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ऐसी राजनीतिक तस्वीर बदले तो कैसे

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अवधेश कुमार

चुनाव ऐसा अवसर होता है जब आपको राजनीति के सारे नकारात्मक चरित्र हमारे सामने घनीभूत होकर उभरते हैं। हालांकि इसमें आज चार्ज का कोई कारण इसलिए नहीं होता क्योंकि इस तरह की घटनाएं राजनीति की बारंबारता का अंग बन चुके हैं। लोकसभा चुनाव के पूर्व दलों और नेताओं के व्यवहारों और वक्तव्यों पर आम लोग अब आश्चर्य भी प्रकट नहीं करते।

मीडिया और राजनीतिक विश्लेषक नेताओं के पाला बदल, कल तक के राजनीतिक विरोधियों के साथ चुनावी गठबंधन पर चाहे जितना प्रश्न उठाएं या उसका किसी दृष्टि से विश्लेषण करें इससे धरातल पर ठोस गुणात्मक अंतर आएगा ऐसा नहीं लगता। ऐसा लगता है कि वर्षों से भारत में राजनीतिक सुधार यानी राजनीतिक दलों के अंदर वैचारिक, व्यवहारिक और व्यक्तित्व के परिवर्तनों को लेकर जो भी आवाज उठाई गई उसका अत्यंत कम असर हुआ है। 
 
आम आदमी पार्टी द्वारा दिल्ली, हरियाणा और गुजरात में कांग्रेस के साथ गठबंधन पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। आखिर दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप के प्रमुख अरविंद केजरीवाल जिस पार्टी और परिवार पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर सत्ता में आए और उनको सजा दिलवाने का वायदा करते रहे उसके साथ गठबंधन करते हैं तो उस राजनीति पर प्रश्न उठेगा। किंतु क्या इसका असर भी हो सकता है ? या फिर अरविंद केजरीवाल या आम आदमी पार्टी ऐसा करने के मामले में भारतीय राजनीति में एकमात्र उदाहरण है?
 
वास्तव में राजनीति का जब एकमात्र ध्येय येन-केन-प्रकारेण सत्ता में पहुंचना या बने रहना हो जाए तो ऐसा ही होता है। आईएनडीआईए की कल्पना आने के पूर्व तक आम आदमी पार्टी का घोषित स्टैंड था कि उसको किसी भी गठबंधन से कोई लेना-देना नहीं है। वह गठबंधन की राजनीति की आलोचना करती थी। 
 
अन्ना हजारे के अभियान के दौरान की बातों को थोड़ी देर के लिए छोड़ दीजिए क्योंकि उसे कितनी बार याद दिलाएंगे, किंतु हाल तक के अपने राजनीतिक-रणनीतिक स्टैंड से भी पार्टी बदल जाए तो फिर क्या कहा जा सकता है। जिस शराब घोटाले और ईडी कार्रवाई का दिल्ली की कांग्रेस पार्टी समर्थन कर रही थी, वह अचानक न केवल इस पर खामोश हो गई है बल्कि कई टीवी डिबेट में कार्रवाइयों के लिए सरकार की आलोचना करती है।
 
यही स्थिति भाजपा और राजग विरोधी पार्टियों की पश्चिम बंगाल के संदेशखाली जैसे जघन्य और वीभत्स अपराध के मामले में भी है। विपक्ष की किसी पार्टी के प्रमुख नेता ने संदेशखाली को लेकर तृणमूल कांग्रेस, ममता बनर्जी या वहां के पुलिस प्रशासन की आलोचना नहीं की। राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल, तेजस्वी यादव, लालू यादव, राष्ट्रीय जनता दल, शरद पवार, एनसीपी उद्धव ठाकरे आदि का एक ट्वीट हमने नहीं देखा। 
 
पश्चिम बंगाल में जिस तरह की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं, उससे लगता है कि धनबल और बाहुबल का प्रभाव बंगाल में घटने की बजाय ज्यादा सशक्त हुआ है। जिस तरह गिरफ्तारी के बाद संदेशखाली का मुख्य अभियुक्त शेख शाहजहां चल रहा था, लगता था जैसे पुलिस किसी वीआईपी को सुरक्षा देकर ले जा रही हो। 55 दिनों बाद उसकी गिरफ्तारी बताती है कि अपराध, धनबल तथा एकपक्षीय भयावह सांप्रदायिक बाहुबल का गठजोड़ पश्चिम बंगाल की राजनीति का स्थायी चरित्र बन गया हो।
 
80 के दशक से भारतीय राजनीति का यह सबसे बड़ा मुद्दा रहा। लगातार राजनीतिक सुधार की मांग उठती रही। लगता था कि धीरे-धीरे अपराध, बाहुबल, धन बल और वोट के लिए संप्रदायिक अपराध की अनदेखी की राजनीति से अंत हो रहा है। ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस वाम मोर्चा के शासन में अपराधियों, माफियाओं और सांप्रदायिक तत्वों के बोलबाला के विरुद्ध ही संघर्ष करके सत्ता तक आई किंतु उनका शासन उससे भी ज्यादा इन सारी बीमारियों का वीभत्सतम उदाहरण बन गया है। 
 
बाहुबल और धनबल का राजनीति के साथ स्पष्ट दिखता रिश्ता तथा सिद्धांतहीन, आदर्शहीन पालाबदल कई राज्यों में सामने आ रहे हैं। एक समय राजनीतिक और सत्ता शीर्ष का भ्रष्टाचार विरोधी दलों का सबसे बड़ा मुद्दा होता था। यह स्थिति पूरी तरह पलट गई है। आज भ्रष्टाचार के आरोप के विरुद्ध नेताओं और सत्ताशीर्ष पर बैठे व्यक्तियों के विरुद्ध कार्रवाई विपक्ष के लिए सबसे बड़ा मुद्दा हो गया है। इस स्थिति की पहले कल्पना नहीं थी। 
 
पहले मनीष सिसोदिया, फिर संजय सिंह और हेमंत सोरेन तथा ऐसे छोटे-बड़े नेताओं को जेल जाना पड़ा, न्यायालय उनको जमानत तक नहीं दे रहा, किंतु विरोधी राजनीति का स्वर है मानो ये सारे पाक साफ हों। न्यायालय जब तक किसी को सजा नहीं देती हम उन्हें दोषी नहीं मानते किंतु बिना आधार के इतनी बड़ी कार्रवाई नहीं होती और होती है तो शांति से न्यायिक प्रक्रिया का सामना किया जा सकता है। 
 
सच कहा जाए तो एक बीमारी के उपचार की जगह उससे बड़ी बीमारी ने हमारी राजनीति को घर कर लिया है। यह राजनीतिक सुधार की विपरीत दिशा है। आने वाले समय में राजनीति और शीर्ष भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्रवाई कितनी कठिन होगी इसका अनुमान आज की स्थिति से लगाया जा सकता है।

एक नेता पर कार्रवाई हुई नहीं कि वकीलों की फौज उन्हें बचाने के लिए उच्चतम न्यायालय तक पहुंच जाती है। बड़े-बड़े लोग पक्ष में खड़े हो जा रहे हैं। यह राजनीति की ऐसी प्रवृत्ति है जिसका अंत तभी संभव है जब राजनीतिक सुधार इस अवस्था में पहुंच जाए जहां केवल देश और समाज की चिंता करने वाले ज्ञानी, विवेकशील और संकल्पबद्ध लोग ही चुनावी राजनीति में रहे। ऐसी स्थिति सामने नहीं दिख रही।
 
संघ और भाजपा का विरोध राजनीति में एक बड़ा वर्ग पहले भी करता था। इस समय यह विरोध घृणा की उस अवस्था में पहुंच गया है जहां लगता है कि दलों और नेताओं के विवेक और अविवेक में कोई अंतर नहीं बचा। इसमें कोई कितना भी भ्रष्टाचारी हो, बाहुबली हो, सांप्रदायिक हो, अगर नरेंद्र मोदी सरकार और भाजपा विरोधी है तो विपक्ष के बड़े समूह के लिए सहज स्वीकार्य। यह इस समय भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी और जटिल चुनौती है। 
 
मजे की बात देखिए कि इस स्थिति ने पार्टियों को अपने दूरगामी भविष्य की चिंता से भी विलग कर दिया है। ‌उदाहरण के लिए कांग्रेस के व्यावहारिक नेताओं को आभास है कि दिल्ली, हरियाणा और गुजरात जैसे राज्य में अगर आम आदमी पार्टी आगे बढ़ी तो सबसे ज्यादा क्षति उन्हीं की होगी। बावजूद वह गठबंधन को तैयार हैं तो क्यों? यही स्थिति दूसरी पार्टियों के साथ भी है। अनेक पाला बदलने वालों के लिए भाजपा भी अपना द्वार खोले हुए है। 
 
नीतीश कुमार जैसे सिद्धांतहीन और अस्थिर व्यक्ति जब चाहते हैं भाजपा को छोड़कर चले जाते हैं और फिर वापस आ जाते हैं। वे मुख्यमंत्री भी बने रहते हैं। भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में इस समय ऐसी सशक्त स्थिति में है जब वह सिद्धांतहीन और आरोपी नेताओं से अपने को काफी हद तक बचाए रख सकती है।

इससे उसके चुनावी प्रदर्शन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। हालांकि जब तक कोई नेता विरोधी खेमे में होता है उसके विरुद्ध आवाज नहीं उठाती। जैसे ही वह भाजपा के साथ आता है, विरोधी चिल्लाने लगते हैं कि देखो-देखो जिस पर भ्रष्टाचार का आरोप था वह उनके साथ चला गया। इसलिए जनता ऐसी आलोचनाओं को गंभीरता से नहीं लेती है।
 
वास्तव में एक बड़े वर्ग के लिए स्थिति इतनी निराशाजनक है कि वे इन पर टिप्पणी करना भी समय नष्ट करना मानते हैं। उनके अनुसार भारतीय राजनीति की विद्रुपताओं पर जितना कुछ लिखा-बोला जा चुका है कि अलग से कोई टिप्पणी करने की आवश्यकता नहीं रहती। जो कुछ भी लिखा जाएगा उसमें प्रसंग और चेहरे नए हो सकते हैं, पर मुद्दे और विषय पुराने ही होते हैं। यह स्थिति बदलनी चाहिए। इसमें राजनीतिक दलों के साथ-साथ आम लोगों की भी भूमिका है। 
 
आम लोग भी अगर मतदान करते समय सिद्धांतहीन, पाला बदल तथा धनबल और बाहुबल से राजनीति करने वालों का साथ और सम्मान न दें, उनके पक्ष में मतदान न करें तो प्रवृत्ति बदल सकती है। भाजपा इस समय सबसे बड़ी ही नहीं, उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम सबसे ज्यादा लोगों के आकर्षण वाली पार्टी है। वह इस स्थिति का राजनीतिक सुधार के लिए उपयोग करके उदाहरण बने। 
 
जहां भी भाजपा की सरकार हो वहां ऐसे तत्वों के विरुद्ध कार्रवाई, पार्टी में ऐसे लोगों के लेने का निषेध तथा दूसरी पार्टी की सत्ता में ऐसे तत्वों के विरुद्ध राजनीतिक संघर्ष जैसे तीन स्तरीय व्यवहार की उम्मीद उससे की जाती है। दूसरी पार्टियां भी समझ लें कि आम लोगों के अंदर उसके ऐसे व्यवहार से असंतोष बढ़ता है तथा अनेक पार्टियां बीच-बीच में सत्ताच्युत होतीं हैं, तो इसके पीछे सिद्धांतहीन और राजनीतिक भ्रष्टाचार के कारण बिगड़ी हुई छवि की प्रमुख भूमिका रही है।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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