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क्या दुनिया का कोई देश वैसा धर्मनिरपेक्ष है, जैसी भारत से अपेक्षा की जाती है?

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राम यादव

What is Secularism: चुनावों के समय ही नहीं, हर गाहे-बगाहे बहस छिड़ जाती है कि भारत कितना धर्मनिरपेक्ष है? धर्मनिरपेक्ष है भी या नहीं? लोग भूल जाते हैं कि भारत में ‘धर्म’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ का अर्थ ठीक वही नहीं हो सकता, जो लैटिन भाषा से निकले अंग्रेज़ी शब्दों ‘रिलिजन’ और ‘सेक्युलर’ का है। इसे समझने के लिए हमें भारत के और ‘सेक्युलर’ शब्द के इतिहास में जाना होगा। ‘रिलिजन’ और ‘धर्म’ के बीच अंतर करना होगा। ‘रिलिजन’ को ईश्वर-प्राप्ति के मार्ग यानी ‘पंथ’ के रूप में और ‘धर्म’ को समाज-धारक एवं प्रकृति-रक्षक कर्तव्यों के रूप में देखना होगा।
 
26 जनवरी का दिन भारत में गणराज्य दिवस के रूप में मनाया जाता है। 1950 में इसी दिन स्वतंत्र भारत का अपना संविधान लागू हुआ था। संविधान की मूल प्रस्तावना में लिखा था –– 'हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए, … इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।' 
अमेरिकी और फ्रांसीसी संविधानों से प्रेरित भारतीय संविधान की इस मूल प्रस्तावना में न तो ‘धर्मनिरपेक्षता’ या ‘पंथनिरपेक्षता’ का उल्लेख था और न ही ‘समाजवाद’ का। भारत को एक ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ देश घोषित करने वाले दोनों नए विशेषण, तथाकथित 42वें संविधान संशोधन द्वारा, 18 दिसंबर 1976 के दिन तब प्रस्तावना में जोड़ दिए गए, जब देश में आपातकाल लागू था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की इच्छानुसार, उन्हीं के विदेश और रक्षामंत्री रहे सरदार स्वर्ण सिंह के नेतृत्व वाली एक समिति ने संविधान की प्रस्तावना में इस संशोधन का सुझाव दिया था।
 
आपातकाल में संविधान संशोधन : इंदिरा गांधी द्वारा 25 जून, 1975 को घोषित और 21 मार्च 1977 तक चले 21 महीनों के आपातकाल में संविधान-प्रदत्त सभी मौलिक अधिकार स्थगित कर दिए गए थे। सरकार की आलोचना और प्रदर्शनों पर प्रतिबंध था। 124 सांसदों सहित अनेक विपक्षी नेता गिरफ्तार थे, जेल में थे या फ़रार थे। मुख्यतः कांग्रेसी सांसद ही बचे थे और वे सरकार की मुट्‍ठी में थे। प्रश्न उठता है कि ज़ोर-ज़बर्दस्ती के दिनों वाले उस आपातकाल में संविधान में किए गए ये परिवर्तन ‘अभिव्यक्ति’ की उस स्वतंत्रता की क्या खिल्ली नहीं उड़ाते, जिसका संविधान की इसी प्रस्तावना में उल्लेख है?
 
यही नहीं, 1976 में अलग से जोड़े गए ‘पंथनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ ऐसे शब्द हैं, जिनकी न तो संविधान में कोई स्पष्ट व्याख्या है, और न ही पूरी दुनिया में कोई एक ही सर्वमान्य परिभाषा है। जिसे हम ‘पंथ’ कहते हैं, बाक़ी दुनिया उसे ‘धर्म’ मानती है। जिसे हम ‘धर्म’ कहते हैं, शेष दुनिया के लिए वह इतनी अबूझ पहेली है कि उसके लिए किसी के पास कोई सही शब्द ही नहीं है। इसी प्रकार समाजवाद के भी मार्क्सवाद, लेनिनवाद, माओवाद, टीटोवाद जैसे कई अलग-अलग मॉडल हैं। कोई भी मॉडल सर्वसत्तावादी तानाशाही, अत्याचारी व दमनकारी प्रवृत्तियों से मुक्त नहीं था।
 
यह अकारण ही नहीं था कि संविधान-रचयिताओं ने उसकी पहली मूल प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्षता’ या ‘पंथनिरपेक्षता’ तथा ‘समाजवाद’ जैसे विवादास्पद शब्दों से परहेज़ किया। इसीलिए इस लेख में धर्म का तात्पर्य हमेशा सनातन अर्थात हिंदू धर्म है; रिलिजन, पंथ और संप्रदाय का मतलब अन्य आस्था पद्धतियां हैं।
नेहरू समाजवाद के पक्ष में नहीं थे : संविधान बनाने वाली प्रारूप समिति में हुई बहसों से पता चलता है कि पंडित नेहरू, संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ तो क्या, ‘सामाजिक न्याय’ शब्द लिखे जाने के भी पक्ष में नहीं थे। वे समाज में लोकतांत्रिक तरीकों से धीरे-धीरे समानता लाना चाहते थे, जबकि भीमराव अम्बेडकर लेनिन की समाजवादी अवधारणा की पैरवी कर रहे थे। वे बहुत दुखी थे कि उनका सुझाव माना नहीं गया। वे भूल रहे थे कि मार्क्स से प्रेरित लेनिन की रूसी समाजवादी क्रांति कितनी रक्तरंजित थी। लेनिन के बाद आए स्टालिन के नृशंस अत्याचारों की तुलना तो केवल हिटलर से ही हो सकती थी।
 
ढाई दशक बाद इंदिरा गांधी ने अपने पिता की बातें भुलाते और आपातकाल का लाभ उठाते हुए ‘समाजवाद’ को भी संविधान की प्रस्तावना में ठूंस दिया। इससे स्वयं को समाजवादी कहने वाले तत्कालीन सोवियत संघ सहित पूर्वी यूरोप के कम्युनिस्ट देशों के साथ भारत की यारी तो खूब बनी, किंतु उन पर आर्थिक-राजनीतिक निर्भरता भी उतनी ही बढ़ गई। 1990 वाले दशक में सोवियत गुट के विघटन के साथ यूरोप में समाजवाद की अर्थी उठने तक यही स्थिति बनी रही। भारत की अपनी समाजवादी विकास गति भी ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस’ से आगे बढ़ नहीं पाई।
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धर्मनिरपेक्षता यूरोपीय अवधारणा है : समाजवाद (सोशलिज़्म) की तरह ही ‘सेक्युलरिज़्म’ भी यूरोप से ली गई एक अवधारणा है। उसके भी अनेक मॉडल हैं। स्वयं को सेक्युलर कहने वाले हर देश में सेक्युलरिज़्म की न तो एक जैसी परिभाषा है और न एकसमान अमल। मूल सोच यही है कि लोकतंत्र में अपने ‘रिलिजन’ के पालन की स्वतंत्रता होनी चाहिए और रिलिजन तथा राज्यसत्ता (सरकार) के बीच दूरी होनी चाहिए। दोनों को एक-दूसरे के काम में न तो दखल देना और न एक-दूसरे के हित-अहित को बढ़ावा देना चाहिए। 
 
'रिलिजन' शब्द बना है लैटिन भाषा के 'रेलीगियो' से, जिसके 'पवित्र के प्रति आदर, दैवीय के प्रति श्रद्धा, धर्मपरायणता' जैसे कई अर्थ हैं। इस सोच वाले यूरोपीय देशों के अनुभवों का भारत के जनजीवन एवं इतिहास से मेल नहीं बैठता। स्वयं को सेक्युलर कहने वाले पश्चिमी देश भी अपनी कथनी और करनी के बीच विरोधाभासों से मुक्त नहीं हैं।
 
प्राचीन रोमन साम्राज्य के नमूने पर, 10वीं सदी से, मध्य और दक्षिणी यूरोप में एक ऐसा साम्राज्य पनपने लगा, जिसे 15वीं सदी से ‘जर्मन राष्ट्रीयता वाला पवित्र रोमन साम्राज्य’ भी कहा जाता था। वह मध्य युग के भारत जैसे कई राजाओं-महाराजाओं के –– किंतु भारत से भिन्न –– आस्था और राजनीति के बीच एक ऐसे गठबंधन के समान था, जिसके शीर्ष पर कोई सम्राट होता था। इस साम्राज्य में रोमन कैथलिक चर्च की तूती बोलती थी। राजा हो या रंक, चर्च के धर्माधिकारियों का संग सबको लेना पड़ता था। असली सत्ता उन्हीं के पास होती थी।
 
ईसाइयों में फूट पड़ी : 16वीं सदी के साथ यूरोप के ईसाइयों में फूट पड़ने लगी। जर्मनी में सैक्सनी प्रदेश के मार्टिन लूथर की मांगों वाला एक नया संप्रदाय उभरने लगा –– प्रोटेस्टैंट (इवैंजेलिक)। इससे सांप्रदायिक तनाव बढ़ने लगे। ‘पवित्र रोमन साम्राज्य’ के सत्ताधारियों के बीच भी लड़ाई-झगड़े होने लगे। सैक्सनी प्रदेश के ड्यूक हाइनरिश ने 1539-40 में अपने यहां के सभी चर्चों (गिर्जाघरों) की संपत्तियां ज़ब्त कर लीं। मठों को बेदखल कर दिया। 
 
इससे कुछ ही पहले इंग्लैंड में राजा हेनरी अष्टम ने भी, 1535 –38 के बीच, ईसाई मठों की संपत्तियां छीन ली थीं। अंधविश्वासों के विरुद्ध अभियान छेड़कर बहुत-सी मूर्तियों आदि को नष्ट-भ्रष्ट करवा दिया था। बड़े-बड़े तीर्थस्थान खंडहर बनवा दिए थे। कैथलिक चर्च को चुनौती देने का यह दौर, जिसे पश्चिम में ‘एनलाइटनमेंट’ (प्रबोधन या ज्ञानोदय) काल कहा जाता है, पंथनिरपेक्षता की यूरोपीय चेतना का आरंभ था। कैथलिक चर्च की पवित्र (अलौकिक) संपत्तियों के बलात अधिग्रहण को उन्हें ‘सांसारिक’ बनाया जाना कहा गया।
यूरोपीय पंथनिरपेक्षता की चेतना के लिए लैटिन भाषा की संज्ञा ‘सेकुलारिज़ात्सियो’ का फ्रेंच भाषा की एक क्रिया ‘सेकुलारिज़ेर’ (सेक्युलराइज़ेशन) के रूप में पहली बार प्रयोग, 8 मई 1646 के दिन, जर्मनी के म्युंस्टर नगर में ‘वेस्टफेलिया शांति’ सम्मेलन के फ्रांसीसी प्रतिनिधि आंरी द्वितीय ने किया था। हालांकि उसके कहने का अभिप्राय यह था कि कैथलिक संपत्तियों पर अब प्रोटेस्टैंट चर्च का स्वामित्व होना चाहिए। यह सम्मेलन यूरोप में 1618 से 1648 तक चले 30 वर्षीय युद्ध के अंत के लिए हुआ था। उस समय दोनों ईसाई संप्रदाय, पवित्र रोमन साम्राज्य के राजवंश तथा फ्रांस, स्वीडन व डेनमार्क जैसे देश अपने-अपने वर्चस्व के लिए लड़ रहे थे। 
 
चार सदी पूर्व का भारत : चार सदी पूर्व के उसी समय के भारत में मुगलों की तूती बोलती थी। हुमायूं की मृत्यु के बाद 1555 में उसके 15 साल के बेटे जलालुद्दीन अकबर को राजगद्दी मिली थी। 50 साल के अपने शासनकाल में उसने मुग़ल साम्राज्य का ख़ूब विस्तार किया। एक नया पंथ भी चलाया ––‘दीन-ए-इलाही।’ किंतु उसके पोते शाहजहां और पड़पोते औरंगज़ेब ने, 1627 से 1707 के बीच 80 वर्षों के अपने शासनकाल में, अकबरी सहिष्णुता की धज्जियां उड़ा दीं। तब तक यूरोप के ईसाई उपनिवेशवादी और धर्मप्रचारक भी भारत में अपने पैर पसारने लगे थे।
 
दूसरी ओर यूरोप में फ्रांस, ज्ञानोदय कालीन ईसाई चर्चों की सत्ता को चुनौती दे रहे सुधारों का अगुआ बन गया था। नेपोलियन प्रथम की फ्रांसीसी क्रांति के आरंभ में ही वहां की राष्ट्रीय संसद ने, 2 नवंबर 1789 को, सभी चर्च-संपत्तियों के राष्ट्रीयकरण (ज़ब्ती) का अध्यादेश पारित किया। कैथलिक और प्रोटेस्टैंट चर्चों के धर्माधिकारियों को सरकारी कर्मचारियों की तरह वेतन दिया जाने लगा। उन्हें देशभक्ति और नए संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी पड़ी। उनकी शक्ति और ईसाई चर्चों की राजनीतिक साख के पर कतर दिए गए। चल-अचल संपत्तियां बाद में नीलाम कर दी गईं। 
 
यूरोप में चर्च के कामों में हस्तक्षेप : यूरोप में पंथनिरपेक्षता का युग, शासन-कार्य में चर्च के दखल पर कुठाराघात और शासकों द्वारा चर्च के कामों में हस्तक्षेप को बढ़ावा देने के साथ शुरू हुआ था। दोनों ईसाई चर्च, शासकों के आज्ञापालक बन कर रह गए थे। यहूदियों के सिवाय इस्लाम का या किसी अन्य ग़ैर-ईसाई पंथ का उस समय ही नहीं, बल्कि दूसरे विश्वयुद्ध तक, यूरोप में शायद ही कोई अस्तित्व था। अतः उनकी ओर से किसी विरोध-प्रतिरोध का कोई प्रश्न ही नहीं था।
 
भारत में मुग़ल शासनकाल का सूर्यास्त होते ही ब्रिटिश शासनकाल का सूर्योदय होने लगा। एक नागनाथ था, तो दूसरा सांपनाथ।  देश की बहुसंख्यक जनता को आत्ममंथन का न तो समय मिला और न उसके पास आत्मनिर्णय का अधिकार था। अपनी सांस्कृतिक-आध्यात्मिक अस्मिता की रक्षा ही जनता की फिर से सबसे बड़ी चिंता बनी। सबसे बड़ी विडंबना तो यह थी कि इस अस्मिता के लिए जिस नाम का सबसे अधिक प्रचलन था, वह भी भारतीयों का खुद का दिया हुआ नहीं था!
‘हिंदू’ नाम अरबों-फ़ारसियों ने दिया : आज हम भी धड़ल्ले से स्वयं को ‘हिंदू’ और अपनी आस्था को ‘हिंदू धर्म’ कहते हैं, जबकि हमें ‘हिंदू’ नाम सदियों पहले अरबों-फ़ारसियों ने दिया है, हमने नहीं। अरबी-फ़ारसी में भारत आज भी ‘हिंद’ ही कहलाता है। ‘हिंद’ नाम, भारत के विभाजन के बाद अब पाकिस्तान में पड़ने वाली ‘सिंधु’ नदी के नाम का अपभ्रंश है।

अरबों-ईरानियों के लिए सिंधु  नदी वाले देश ‘हिंद’ के सभी निवासी ‘हिंदू’, ‘हिंदी’ या ‘हिंदवी’ थे। एशिया में इस्लाम के विस्तार के साथ जिस तरह कज़ाकों का देश कज़ाकस्तान, उज़बेकों का देश उज़बेकिस्तान या अफ़ग़ानों का देश अफ़ग़ानिस्तान कहलाया, उसी तरह ‘हिंद’ के मुस्लिम शासकों ने उसे भारत नहीं, ‘हिंदुस्तान’ कहा। हमने इसे भी अपना लिया।
 
अरब-ईरान से आया इस्लाम जिन्हें ‘हिंदू’ कह रहा था, वे स्वयं को इससे पहले वैदिक, ब्राह्मण, आर्य या सनातन धर्मी कहते थे। ये सभी नाम एक ही चिरकालिक आध्यात्मिक दर्शन की अलग-अलग अभिव्यक्तियां थे। सृष्टि के आरंभ से ही समस्त ब्रह्मांड में जो ईश्वरीय सत्ता चल रही है, वही सनातन है। जो सनातन है, सदा से है और सदा रहेगा, उससे तो हम अलग या विरक्त हो ही नहीं सकते! 
 
किंतु, दूसरों द्वारा दिया गया ‘हिंदू’ शब्द ही, समय के साथ, सनातनियों की आस्था और अस्मिता का अकेला पर्यायवाची बन गया। मुग़लों के बाद हिंदुओं को अंग्रेज़ों की शासन और शिक्षाप्रणाली झेलनी पड़ी। सदियों की इसी दासता का चमत्कार था कि सनातनी भी अपने आप को ‘हिंदू’ ही कहने लगे। आज भी यही स्थिति है, हालांकि स्वयं को ‘सनातनी’ या ‘सनातनधर्मी’ कहना धीरे-धीरे वापस आ रहा है। सरकारी दस्तावेज़ों में धर्म के लिए किंतु अब भी ‘हिंदू’ शब्द ही लिखा मिलेगा।   
 
‘धर्म’ का वही अर्थ नहीं है जो ‘रिलिजन’ का है : आपातकाल के दौरान 1976 में हुए 42वें संविधान संशोधन की वैसे तो कोई आवश्यकता नहीं थी, तब भी संविधान के अंग्रेज़ी संस्करण की प्रस्तावना में ‘सेक्युलर’ शब्द का, और हिंदी संस्करण में धर्मनिरपेक्ष के बदले ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्द का प्रयोग हुआ है। इसीलिए, क्योंकि धर्म शब्द भारतीय सभ्यता-संस्कृति की अनोखी देन है।  भारत में ‘धर्म’ का वही अर्थ नहीं है जो लैटिन भाषा के ‘रेलीगियो’ से बने अंग्रेज़ी भाषा के ‘रिलिजन’ शब्द का है। ‘धर्म’ का अर्थ है कर्म, कर्तव्य। समाज धारक कर्तव्य।   
 
अंग्रेज़ी में जिसे 'रिलिजन' और उर्दू में 'मज़हब' कहा जाता है, उसके लिए दुर्भाग्य से हिंदी सहित लगभग सभी भारतीय भाषाओं में ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग होता है, जो उचित नहीं है। रिलिजन में धर्म का कुछ अंश हो सकता है, पर रिलिजन धर्म नहीं है। भारत की सनातन परंपरा, जिसे हम ‘हिंदुत्व’ के नाम से भी जानते हैं, उसमें कोई एक पैगंबर (प्रवर्तक) नहीं है। कोई एक ही किताब ‘धर्मपुस्तक’ नहीं है। कोई एक ही पवित्र स्थान नहीं है और केवल एक ही पूजापद्धति भी नहीं है।
 
सनातन परंपरा में यदि कोई एक ही पवित्र अवधारणा है, तो वह है आत्मा, जो हर जीव में निवास करती है। इन कारणों से भारत में धर्म की अवधारणा, रिलिजन या मज़हब की व्याख्या से बहुत अलग है। भारत का सनातन धर्म, रिलिजन या मज़हब की अपेक्षा कहीं अधिक व्यापक और सर्वसमावेशी है।  
 
 

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