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सिर्फ एक दिन ही क्यों?

महिला अस्तित्व का सच बेहद कड़वा है

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स्मृति आदित्य

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जल, थल, अग्नि, गगन और समीर इन्हीं पंचतत्वों को मिलाकर ही सृष्टिकर्ता ने 'उसे' भी रचा है। उसके सुंदर सपने भी उम्मीद भरे आकार ग्रहण करते हैं। 'वह' भी अनुभूतियों की मधुरतम सुगंध से सराबोर होना चाहती है। मंदिर की खनकती सुरीली घंटियों-सी 'उसकी' खिलखिलाहट भी चहुँओर बिखर जाना चाहती है। महत्वाकांक्षा की आम्रमं‍जरियाँ 'उसके' भी मन-उपवन को महकाना चाहती हैं, किंतु यथार्थ...?

वह समाज में सिर्फ 'देह' समझी जाती है। उसके सपने आकार ग्रहण करें, उससे पहले बिखेर दिए जाते हैं, अनुभूतियाँ छल-कपट का शिकार हो छटपटाती रह जाती हैं, उसकी हँसी कुकृत्य की कड़वाहट के कुहास में दफना दी जाती है और महत्वाकांक्षा कैक्टस में परिवर्तित हो हमेशा की चुभन बन जाती है।

सदियों-सदियों का अत्याचार पल-प्रतिपल का दुराचार, कहाँ से हिसाब शुरू करें? सोचने, विचारने और 'महसूसने' के लिए सिर्फ एक दिन। युगों-युगों का लेखा-जोखा करना है और महज एक दिन? जितनी चाहे चिंता कीजिए, ‍जितना चाहे परिसंवाद, बस यही एक दिन है, फिर तो नौ मार्च, दस मार्च, ग्यारह मार्च से लेकर तीन सौ चौंसठ दिवस हैं, वह है उसकी अत्यधिक व्यस्तताएँ हैं, अत्याचार हैं, निरंतर वृद्धिमान आँकड़े हैं और संवेदना के स्तर पर कभी-कभी कुछ भी हलचल न मचाने वाली 'सामान्य' सी बलात्कार की घटना है (?)

ऐसा क्या चाहा है उसने इस समाज से, जो वह देने में सक्षम नहीं है? सहारा, सुविधा, संसाधन और सहायता? नहीं। उसने हमेशा एक सुंदर, संस्कारित, उच्च मानवीय दृष्टिकोण वाला सभ्य परिवेश चाहा है। अपनी सहृदयता से उसे नैतिक संबल और सुअवसर दीजिए कि वह सिद्ध कर सके - अपने व्यक्तित्व को, अपनी विशिष्टता को। अपने ही पूरक पुरुष को पछाड़ना उसका मानस नहीं है, उनसे आगे निकल जाना उसका ध्येय नहीं है, वह तो समाज में अपना एक वजूद चाहती है, एक पहचान चाहती है, जो उसकी अपनी हो। क्यों समाज कृपण और कंगाल हो जाता है, जब कुछ उसे देने की बात आती है, जिसने अपने पृथ्वी पर आगमन से ही सिर्फ और सिर्फ दिया है, लिया कुछ नहीं।

मुट्‍ठी भर आसमान, एक चुटकी धूप, अँजुरी भर हवा और थोड़ी-सी जमीन, जहाँ वह अपने कदमों को आत्मविश्वास के साथ रख सके। बस इससे अधिक तो कभी नहीं चाहा उसने! फिर क्यों उसके उत्थान के उज्ज्वल सूर्य को अर्घ्य देने में सारे समाज का समंदर थरथरा उठता है? क्यों उसके विस्तार की धरा को अभिस्पर्शित करने में समाज के हाथ पंगु हो जाते हैं और क्यों उसके विराट महत्व को स्वीकारने में सारा समाज संकीर्ण हो जाता है? भ्रूण हत्या से लेकर वृद्धावस्था की उपेक्षा तक स्त्री दमन का सच इतना विकृत है और आठ मार्च के दिन की यह अपेक्षा होती है कि नारी-सफलता पर ध्यान केंद्रित किया जाए।

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कहा जाता है कि दृष्टिकोण की भिन्नता का प्रश्न है कि पात्र आधा भरा है, आधा खाली। किंतु पात्र में नारी-सफलता की पड़ी मात्र दो बूँद को पात्र का आधा भरा कहा जाना मुझे स्वीकार नहीं, यदि मैं ऐसा करती हूँ तो उन हजारों-हजार महिलाओं के साथ कृतघ्नता होगी और उससे भी आगे अक्षम्य अपराध होगा जिन्हें पल-प्रतिपल आज भी शोषित, प्रता‍ड़ित और अपमानित किया जा रहा है।

महिला विकास और नारी-सफलता की कहानी मंचों से उद्‍घोषित करने वाले कहाँ चले जाते हैं तब, जब 'पिता' शब्द को 'सुशोभित' करने वाले अपनी 'पुत्री जैसी' की अस्मत पर दृष्टि डालते हैं? किसकी छत के नीचे वह 'कुँआरी' शरण पाती है, जिसके साथ छल से 'माँ' जैसा पवित्र शब्द अपमानजनक तरीके से जोड़ दिया जाता है? और कौन सहारा देता है उसे, जब वैधव्य से पीड़ित होकर उसके आँसू समाज की प्रताड़ना से टूटकर बरस जाना चाहते हैं और कौन सहेजता है उन झरते हुए आँसुओं को जो बेबसी के वशीभूत पैरों में घुँघरू बन कर लिपट जाते हैं।

और कितने लोग सड़कों, गलियों, चौराहों, मंदिरों और विद्यालयों-महाविद्यालयों पर किसी लड़की पर की जाने वाली अपमानजनक टिप्पणी देने का जवाब देने का साहस करते हैं? कितने मंचों से आठ मार्च के दिन मानसिक, हार्दिक, आत्मिक और संवेदनशील व भावनात्मक क्षति का समाधान अभिव्यक्त होगा? नारी के सुकोमल मन पर कितने और कैसे-कैसे रिसने वाले घाव अंकित हैं, कितने लोग उतनी गहराई में उतरकर सोच और समझ पाते हैं?

सच अत्यंत भयावह है, मर्मांतक और लज्जास्पद है। आखिर कब तक यह समाज महिला सफलता की दो प्रतिशत कहानी को विस्तारित करते हुए उपन्यास बनाता रहेगा और कब तक चारों ओर फैले नारी अत्याचार के महाग्रंथों को समेटकर 'राई' बनाता रहेगा।

हमें अपवाद और सच का अंतर समझना होगा। सैकड़ों 'कल्पनाएँ', 'सपनाएँ' 'किरणें' और आशाएँ, स्वाहा की जाती हैं तब कहीं जाकर एक 'आशा' जन्म लेती है। स्वागत है उन सभी का, किंतु उन सैकड़ों सपना-किरण-सुनीता-आशा के प्रति समाज का क्या दायित्व है? कैसे उम्मीद कर सकते हैं आप उन 'सहजों' से किरण बेदी बनने की, अपने अधिकार के विषय में बोलने से पूर्व ही जिसकी जुबान पर जलता अंगारा रख दिया जाता है। कैसे उम्मीद करें उस 'पार्वती' से कि वह सुनीता विलियम बन जाए, जिसे शारीरिक शोषण का विरोध करने पर पेड़ से बाँधकर पत्थरों से पीट-पीटकर मार डाला जाता है और कैसे उम्मीद करें उस 'कमली' से आशा सद्‍गोपालन बनने की, जिसे अपने बलात्कार के आरोपियों का नाम बताने पर पूरे गाँव में निर्वस्त्र कर घुमा दिया जाता है। कहाँ किस एयरकंडीशंड कमरे में फरमा रहे होते हैं तब समाज के ठेकेदार?

महिला अस्तित्व का सच बेहद कड़वा है और जहरीला भी। उधर शहरों की स्थिति भी कुछ कम बदतर नहीं। 25 वर्ष पहले यदि एक महिला बलत्कृत होती थी तो उसके मुकाबले आज 400 महिलाएँ इस घृणित कृत्य का शिकार होती हैं। क्या आपको लगता है कि यह 400 का आँकड़ा आज चीखकर बता रहा है, वह सही है? इस 400 के पीछे 4000 का सिसकता वह आँकड़ा है जो बिना किसी रिपोर्ट के, बिना किसी आवाज के, बिना किसी कार्यवाही के खामोशी से सुला दिया जाता है। पीड़िता स्वयं अपने आपको अ‍पवित्र समझते हुए सो जाती है। क्या यह भी एक प्रश्न नहीं हो सकता है कि पवित्रता और शुचिता के सवाल पर आज भी क्यों सिर्फ महिलाओं को ही हेय और नफरत की दृष्टि से देखा जाता है जबकि पुरुष के लिए सिर्फ कानून द्वारा प्रदत्त सजा ही पर्याप्त मान ली जाती है और वह समाज में दोबारा स्वीकार्य हो जाता है।

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कहीं कोई अंत है भी या नहीं इन अपराधों का, इन विकृतियों का और चारित्रिक पतन का? बलात्कार, देह व्यापार, दहेज, हत्या, अपहरण, शोषण और छेड़छाड़ जैसी घटनाओं के बढ़ते आँकड़े आज भी उसी स्त्री से जुड़े हैं, जिसे चंद उपलब्धियों के आधार पर सफल होने का ताज पहना दिया जाता है।

देह व्यापार समाज का ही एड्‍स है, सिर्फ एड्‍स की वजह नहीं। आँकड़े सचाई की वह तस्वीर दिखाते हैं, जो आँखों के उस परदे को हटाने में सक्षम है, जिसे समाज ने ओढ़ा हुआ है। एशिया में 10 लाख से ज्यादा सुकोमल बच्चियाँ वेश्यावृत्ति के घिनौने संसार में लाई जाती हैं। नेपाल से प्रतिवर्ष 25 हजार महिलाएँ भारत लाई जाती हैं। सरकारी आँकड़ों के अनुसार कोलकाता और दिल्ली में 15 वर्ष से कम उम्र की 15 प्रतिशत और 16 से 18 वर्ष की 25 प्रतिशत लड़कियाँ इस नारकीय अँधेरे में धकेल दी जाती हैं।

इसी तरह अरब देशों में भारत से घरेलू नौकरानियाँ भेजी जाती हैं। उन स्थानों पर इन महिलाओं के साथ जो अनाचार किया जाता है, उसकी कहानी असीम कष्टों और अबाध अश्रुधारा से लिखी हुई है, किंतु किसे समय है उसे पढ़ने का?

सवाल फिर वही है कि जो प्रतिवर्ष उठाया जाता है और जवाब के अभाव में खामोश हो जाता है। समाधान जो सुझाया जाएगा वह सब जानते हैं कि महिलाओं की समर्थता, सशक्तता व स्वतंत्रता जरूरी है, लेकिन समाज में फैलते-पनपते उस निर्लज्ज-निकृष्टतम वर्ग की रोकथाम करना, उससे निपटने के उपाय करना किसी को भी आवश्यक नहीं लगता? नारी अत्याचार का क्या सिर्फ यही एक समाधान है कि उसे ‍ही निपटने के लिए सक्षम बनाया जाए? क्या उसके साथ-साथ यह भी जरूरी नहीं है कि एक ऐसा नवीनतम, सुसंस्कृत वातावरण निर्मित किया जाए जिसमें समाज में विद्यमान दूषित मानसिकता वाले व्यक्ति शिष्टता, सभ्यता और सात्विकता के महत्व को समझते हुए नारी के सम्मान के प्रति संवेदनशील हो जाएँ।

परिवर्तन की जरूरत सिर्फ महिलाओं के लिए ही नहीं है, परिवर्तन की जरूरत इस संकीर्ण समाज में है, व्यवस्थागत दुर्बलताओं में है, सामाजिक स्तर पर किए जाने वाले व्यवहार में है। महिलाओं के राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय ग्राफ में सुसज्जित 'आँकड़ीन' प्रगति की पृष्ठभूमि में यह समाज कितनी वेदना, पीड़ा और अव्यक्त दर्द को उपेक्षित करता है, इसका अंदाजा सहज संभव नहीं।

बहुत कुछ कहना शेष है और जो कुछ कहा है, लिखा है उससे कई-कई गुना अनकहा-अनलिखा है और जो अनकहा-अनलिखा है वह शब्दों का मोहताज नहीं है, क्योंकि शब्द अभिव्यक्ति के सफर में अर्थ बदल देते हैं। मैं चाहती हूँ भावनाओं की गहनता के स्तर पर आप यह महसूस करें कि नारी के प्रति आपके मन में, दृष्टिकोण में और व्यवहार में कितना सम्मान झलकता है और यदि नहीं तो कृपया...।

नारी, औरत, महिला, स्त्री, खवातीन संबोधन भिन्न-भिन्न हैं। अर्थ वही और इससे जुड़े विषय उतने ही पुराने, जितनी नारी।

कितने पिट चुके हैं ये विषय नारी की तरह, है न? वहीं नारी, वही समाज, वही हम और वही सवाल।
अलग-अलग रूपों में उभरते-उछलते, उठते वही-वही प्रश्न? है आपके पास जवाब? उत्तर या समाधान?

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