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क़ैसर इन्दौरी

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1. चश्म-ए-गुल्चीं में ख़ार हैं हम लोग
फिर भी जान-ए-बहार हैं हम लोग

बाग़बाँ इतना ख़ौफ़ खाता है
जैसे बर्क़-ओ-शरार हैं हम लोग

बाग़बाँ पर ही कुछ नहीं मौक़ूफ़
जाने किस किस पे बार हैं हम लोग

हाय! एहले चमन का तर्ज़-ए-सुलूक
फूल होकर भी ख़ार हैं हम लोग

कल भी ख़ून-ए-जिगर बहाया था
आज भी जाँ निसार हैं हम लोग

बात पर अपनी मिट गए क़ैसर
फिर भी बे एतबार हैं हम लोग

2. इंसान ता हयात कभी सुर्ख़ रू न हो
जब तक हलाक-ए-जलवा गहे रंग-ओ-बू न हो

मिलता है हादिसों से मुझे दर्स-ए-अज़्म-ए-नौ
क्यों गर्दिश-ए-जहाँ की मुझे जुस्तुजू न हो

आने न पाए दामन-ए-हस्ती पे कोई हर्फ़
दामन हज़ार चाक हो लेकिन रफ़ू न हो

मेरे ही नक़्श-ए-पा हैं निशान-ए-रहे हयात
क्यों एहले कारवाँ को मेरी जुस्तुजू न हो

राहों के पेच-ओ-ख़म के अंधेरे न होंगे दूर
जब तक चिराग-ए-राह में मेरा लहू न हो

उस आदमी को सौंप दो दुनिया का कार-ओ-बार
जिस आदमी के दिल कोई आरज़ू न हो

हम अम्न-ओ-इत्तेहाद के परवरदिगार हैं
क़ैसर हमारा ज़िक्र कभी बे वज़ू न हो

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