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अहमद फ़राज़ की ग़ज़लें

हमें फॉलो करें अहमद फ़राज़ की ग़ज़लें
1.
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वो दुशमने-जाँ, जान से प्यारा भी कभी था
अब किससे कहें कोई हमारा भी कभी था

उतरा है रग-ओ-पै में तो दिल कट सा गया है
ये ज़ेहरे-जुदाई के गवारा भी कभी था

हर दोस्त जहाँ अबरे-गुरेज़ाँ की तरह है
ये शहर यही शहर हमारा भी कभी था

तित्ली के तअक़्क़ुब्में कोई फूल सा बच्चा
ऎसा ही कोई ख्वाब हमारा भी कभी था

अब अगले ज़माने के मिलें लोग तो पूछें
जो हाल हमारा है तुम्हारा भी कभी था

हर बज़्म में हमने उसे अफ़सुर्दा ही देखा
कहते हैं फ़राज़ अंजुमन आरा भी कभी था

2.
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उसके शहर मेंकुछ दिन ठहर के देखते हैं

सुना है रब्त है उसको ख़राब हालों से
सो अपने आपको बरबाद कर के देखते हैं

सुना है दर्द की गाहक है चश्मे-नाज़ उसकी
सो हम भी उसकी गली से गुज़र के देखते हैं

सुना है उसको भी है शे'र-ओ-शायरी से शग़फ़
सो हम भी मोजज़े अपने हुनर के देखते हैं

सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं

सुना है रात उसे चाँद तकता रहता है
सितारे बामे-फ़लक से उतर के देखते हैं

सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं

सुना है हश्र हैं उसकी ग़ज़ाल सी आँखें
सुना है उसको हरन दश्त भर के देखते हैं

सुना है आईना तमसाल है जबीं उसकी
जो सादा दिल हैं उसे बन-संवर के देखते हैं

सुनाहै उसके बदन की तराश ऐसी है
के फूल अपनी क़बाएं कुतर के देखते हैं

बस इक निगाह से लुटता है क़ाफ़िला दिल का
सो रेहरवाने-तमन्ना भी डर के देखते हैं

सुना है उसके शबिस्ताँ से मुत्तसिल है बहिश्त
मकीं उधर के भी जलवे इधर के देखते हैं

रुके तो गर्दिशे उसका तवाफ़ करती हैं
चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं

किसे नसीब के बे पैरहन उसे देखे
कभी कभी दर-ओ-दीवार घर के देखते हैं

कहानियाँ ही सही सब मुबालग़े ही सही
अगर वो ख़्वाब है, ताबीर कर के देखते हैं

अब उसके शहर में ठहरें के कूच कर जाएँ
फ़राज़ आओ सितारे सफ़र के देखते हैं

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