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गुरु मंत्र

दिल जीतोगे तभी जीत पाओगे सम्मान

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- मनीष शर्म
खलीफा मामू ने अपने शहजादों की तालीम के लिए एक काबिल उस्ताद को लगाया। उस्ताद रोज आकर शहजादों को पढ़ाने-लिखाने लगे। उनके पढ़ाने के तरीके से शहजादे उनकी सिखाई बातों को जल्दी ही सीख जाते थे।

धीरे-धीरे शहजादों के मन में उस्ताद के लिए इज्जत बढ़ती चली गई। एक दिन जब वे शहजादों को पढ़ा रहे थे, तभी किसी काम से वे अपनी जगह से उठे।

उन्हें उठते देख दोनों शहजादे हरकत में आ गए और उनकी जूतियों की ओर दौड़े। दोनों एक साथ वहाँ पहुँचे। जूतियाँ उठाने के लिए वे झगड़ने लगे। फैसला न होते देख दोनों ने तय किया कि वे एक-एक जूती लेकर जाएँगे। और वे जूतियाँ लेकर बड़े ही आदर भाव से उन्हें पहनाने लगे, जिसे देखकर उस्ताद भी भावुक हो उठे।

यह निश्चित ही उस उस्ताद की सफलता थी जिसने शहजादों को इस तरह से पढ़ाया कि उनके मन में अपने उस्ताद के प्रति आदर भाव पैदा हो गया। यह बहुत जरूरी भी है क्योंकि छात्र अपने शिक्षक का सम्मान नहीं करेगा तो उससे सीखेगा कैसे?
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यह बात खलीफा के कानों तक पहुँची। उन्होंने उस्ताद को बुलाकर पूछा- आज दुनिया में सबसे ज्यादा सम्माननीय कौन है? उस्ताद बोले- मुसलमानों के खलीफा मामू के अलावा और कौन हो सकता है। खलीफा- नहीं, यह सही नहीं है। यह सम्मान तो उसे मिलना चाहिए जिसे जूतियाँ पहनाने के लिए शहजादे आपस में झगड़ते हों। उस्ताद- मैं शहजादों को रोकना चाहता था। खलीफा- यह तो आपने ठीक ही किया।

यदि आप उन्हें रोकते तो मैं बहुत नाराज होता। इससे इस बात का पता चलता है कि शहजादों की तालीम के लिए जिसे चुना गया है वह वाकई कितना काबिल है। वह शहजादों को सही बातें सिखा रहा है और उनकी आदतें सुधार रहा है। उस्ताद का सम्मान करके शहजादों ने अपनी भी इज्जत बढ़ाई है। इसलिए हम उस्ताद और चेलों को हजार-हजार दिरहम इनाम के रूप में देने का ऐलान करते हैं।

दोस्तो, कितना सही फैसला रहा खलीफा का। यह निश्चित ही उस उस्ताद की सफलता थी जिसने शहजादों को इस तरह से पढ़ाया कि उनके मन में अपने उस्ताद के प्रति आदर भाव पैदा हो गया। यह बहुत जरूरी भी है क्योंकि छात्र अपने शिक्षक का सम्मान नहीं करेगा तो उससे सीखेगा कैसे? यानी सीखने के लिए जरूरी है कि सिखाने वाले के प्रति आदर का भाव होना। आदर होगा तो उसकी बातों पर विश्वास भी होगा।

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तब वह जैसा कहेगा उसके कहे अनुसार शिष्य करता जाएगा। इसलिए जरूरी है कि शिक्षक ज्ञान देने से पहले, सिखाने से पहले अपने छात्रों के दिल में जगह बनाए। हालाँकि यह काम सबसे कठिन होता है लेकिन एक बार दिल में जगह बन गई तो फिर उसके बाद छात्र आपकी हर बात को सीखता चला जाएगा।

दूसरी ओर, बहुत से शिक्षकों की यह पीड़ा रहती है कि उन्हें पर्याप्त सम्मान नहीं मिलता। ऐसा उन्हीं अध्यापकों के साथ होता है जो सिर्फ अध्यापन कार्य करके ही संतुष्ट हो जाते हैं। ऐसे गुरुजनों से हम कहना चाहेंगे कि यह तो सिर्फ नौकरी बजाना हुआ। अपने छात्रों का स्नेह और आदर पाने के लिए आपको अपने छात्रों का बनकर उन्हें भी अपना बनाना होगा। और ऐसा सिर्फ शिक्षक होने से नहीं बल्कि सही शिक्षकीय दायित्व निभाने से ही संभव होगा। आप ऐसा करेंगे तो वे आपको भरपूर सम्मान देंगे और आप भी अपने छात्रों पर गर्व कर सकेंगे।

भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन भी एक शिक्षक के रूप में इसीलिए सफल रहे क्योंकि उन्होंने यही तरीका अपनाया। वे हमेशा अपने छात्रों के सुख-दुःख में साथ खड़े रहते थे और उनकी हरसंभव सहायता करते थे। वे कहते भी थे कि एक आदर्श शिक्षक वही है जो अपने छात्रों के दिलों पर राज करे। तभी वह अपने पेशे के साथ न्याय कर सकता है।

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अपने काम से प्यार करने का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि राष्ट्रपति बनने के बाद भी जब उनके जन्मदिन को 'शिक्षक दिवस' के रूप में मनाए जाने की बात आई तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार करते हुए कहा कि इससे निश्चित ही मैं स्वयं को गौरवान्वित महसूस करूँगा। इसलिए आज 'शिक्षक दिवस' पर हम सभी शिक्षकों का सम्मान करते हुए उनसे आग्रह करना चाहेंगे कि वे भी डॉ. राधाकृष्णन की तरह ही समर्पित और प्रतिबद्ध होकर अपनी भूमिका को निभाएँ।

तभी आप भी अच्छे शिक्षक बनकर अपने छात्रों में आदर्श स्थापित कर पाएँगे। आपके कंधों पर इस राष्ट्र की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। आप राष्ट्र के भविष्य को जो तैयार कर रहे हैं। अब बस, वरना आप कहेंगे कि सिखाने वालों को ही सिखा रहा है।

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