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विदावेला में विवेकानंद

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सुशोभित सक्तावत

स्वामी विवेकानंद की संपूर्ण ग्रंथावली दस खंडों में प्रकाशित हुई है। इसमें पांचवें खंड से प्रारंभ करके नौवें खंड तक पांच कड़ियों में विवेकानंद पत्रावली भी प्रकाशित है। मित्रों, सहचरों और परिजनों को लिखे इन पत्रों से स्वामीजी के व्यक्त‍ित्व का एक अंतरंग और आत्मीय चित्र उभरकर सामने आता है। और जीवन के अंतिम समय में लिखे पत्रों में हम स्वामीजी की मनोदशा की एक झांकी भी देख सकते हैं। विवेकानंद ग्रंथावली से कुछ चुनिंदा पत्रों के अंश देखिए
 
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बेलूर मठ, 19 दिसंबर, 1900
 
निवेदिता, मैं मौसम के साथ विचरण करने वाला विहंग हूं। आनंद-मुखर कर्म-चंचल पेरिस, दृढ़ गठित प्राचीन कुन्स्तुन्तुनिया, शानदार लघुचित्र-सा एथेंस, पिराडितविभूषित काहिरा : सभी पीछे छोड़ आया हूं, और अभी यहां गंगा-तीरे अपने मठ में बैठा तुम्हें पत्र लिख रहा हूं। सर्दियों का मौसम है लेकिन दोपहरें बहुत उजली-धुली हैं। यह है दक्ष‍िण कैलिफ़ोर्निया जैसा जाड़ा।
 
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ढाका, 20 मार्च, 1901
 
पहली बार पूर्वबंग आया हूं। मुझे तो पता ही ना था कि बंगाल इतना मनोरम है। दुनिया के इतने देश देख लिए, अब जाकर मेरे अपने बंगाल को देख रहा हूं। यहां की नदियों को तो तुम्हें अपनी आंखों से देखना चाहिए। हर चीज़ कितनी हरीतिमा से भरी हुई। मेरे लिए तो चरैवेति का जीवन ही श्रेयस्कर है।
 
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शिलॉन्ग, अप्रैल, 1901
 
अगर मृत्यु हो जाए तो भी क्या फ़र्क पड़ता है। जो देकर जा रहा हूं, वह तो डेढ़ हज़ार वर्षों की ख़ुराक है!
 
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बेलूर मठ, 1901
 
काली ही लीलारूपिणी ब्रह्म हैं। ठाकुर ने कहा है : "सांप की चाल और सांप का स्थिर भाव।" तुमने नहीं सुना?
इस बार स्वस्थ हुआ तो अपने रक्त से काली का पूजन करूंगा। मां को अपनी छाती का रक्त अर्पित करें, संभवत: तभी वे प्रसन्न होती हैं।
 
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बेलूर मठ, 1901
 
कालीघाट में कितना उदार भाव देखा। मेरे जैसे विलायतयाफ़्ता विवेकानंद को मंदिर में प्रवेश देने में संचालकों ने कोई बाधा नहीं उत्पन्न की!
 
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बेलूर मठ, 27 अगस्त, 1901
 
अब मैं मृत्यु-पथ का यात्री हूं। बेकार का स्वांग करने का भी समय अब मेरे पास नहीं। अब मैं कुछ और करने का प्रयास नहीं करता, केवल नींद के लिए प्रयास करना पड़ता है।
 
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बेलूर मठ, 7 सितंबर, 1901
 
मेरा कृष्णसार मृग मठ से भाग गया था, उसे खोजने में हम कई दिनों तक चिंतित रहे। मेरे एक हंसिनी कल चल बसी। प्राय: सप्ताहभर से उसे श्वास की समस्या थी। इसीलिए हमारे एक हास्य-रसिक साधु ने कहा है कि कलियुग में बत्तखों को भी ज़ुकाम हो जाता है और मेंढ़क छींकने लगते हैं।
 
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बनारस, 4 मार्च, 1902
 
रामकृष्णानंद आए थे। आते ही मेरे पैरों में चार सौ रुपए रख दिए। यह उनके जीवनभर की पूंजी थी। मैं बड़ी कठिनाई से अपनी रुलाई रोक सका। ओ मां, इस पृथ्वी को फिर से वनभूमि बनाने के लिए एक बीज भी यथेष्ट है!
 
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बेलूर मठ, मई, 1902
 
मैं चालीस की दहलीज़ नहीं लांघ सकूंगा। जो कहना था, कह दिया। अब जाना होगा। मृत्यु सिरहाने खड़ी है!
 
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बेलूर मठ, 21 जून, 1902
 
यह शरीर अब ठीक होने से रहा। यह चोला अब त्यागकर नया शरीर लेना होगा। बहुत काम शेष हैं!
 
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बेलूर मठ, 2 जुलाई, 1902
 
मैं मृत्यु के लिए प्रस्तुत हो रहा है। किसी महातपस्या के भाव ने मुझे आच्छन्न कर लिया है!
 
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बेलूर मठ, 4 जुलाई, 1902
 
पेड़ पर सोया पाखी जैसे रात बीत जाने पर नीलाकाश में उड़ जाता है, वैसे ही जीवन का अंत आन पहुंचा है।
 
मेघ अदृश्य हुए जा रहे हैं। मेरी दुष्कृतियों के मेघ। अब सुकृतियों का ज्योतिर्मय सूर्य उदय हो रहा है।
 
दक्षिणेश्वर की पंचवटी में परमहंसदेव की अपूर्व वाणी अवाक होकर सुना करता था, अब मैं वैसा ही बालक बन गया हूं।
 
शिक्षक, गुरु, नेता, आचार्य विवेकानंद चला गया है। शेष रह गया है तो केवल वही बालक।
 
विवेकानंद अब जा चुका है! विवेकानंद अब नहीं लौटने वाला!

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