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श्री महाकालेश्वर मंदिर : महिमा अपरंपार

हमें फॉलो करें श्री महाकालेश्वर मंदिर : महिमा अपरंपार
राजशेखर व्यास 
 
'.... वन्दे महाकाल महं सुरेशम्।'
 
उज्जयिनी के दर्शनीय स्थानों में महाकालेश्वर का स्थान सर्व-प्रमुख है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों में महाकालेश्वर की गणना है। इसके अतिरिक्त समस्त मानव लोक के स्वामी होने का भी पुराणों में उल्लेख है।
 
आकाशे तारकं लिंग पाताले हाटकेश्वरम्।
मृत्युलोके महाकालं लिंग‍त्रय नमोस्तुते।।
 
इस प्रकार त्रिलिंग में भी गणना की गई है। महाकालेश्वर का स्थान अत्यंत सुंदर, मनोहर, भव्य और प्रभावोत्पादक है।


 
पुराणों में महाकालेश्वर की महिमा का महत्वपूर्ण वर्णन है। मानव-सृ‍ष्टि का आरंभ स्थल इसी अवन्तिका नगरी को बतलाया जाता है। यही कारण है कि मानव लोमेश नाम से महत्व वर्णित है। जो कुछ भी हो, इस स्थान को भारत के संपूर्ण धार्मिक स्थानों से विशेष महत्ता एवं श्रेष्ठता प्राप्त है। महाकवि कालिदास ने अपनी लेखनी से इस स्थान का बड़ा मोहक वर्णन किया है। अपने मेघदूत यक्ष को महाकालेश्वर के मंदिर पर सायंकालीन शोभा से नयन-सुख लेते घन-गजन नक्कारों के अनुकरण करने का आग्रह किया है-
 
'अप्यन्यस्मिज्जलधर महाकालमासाद्यकाले,
स्थातव्यं ते नयन सुभंग यावदत्येती भानु:।
कुर्वन् संध्या बलिभट हतां शूलिन: श्लाघनीया,
मामन्द्राणां फलमविकलं लप्स्यसे गर्जिततानां।।
 
(मेघदूत)
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इसी प्रकार भगवान त्रिशूली के तांडव नर्तन के समय‍ स्निग्ध गजचर्म की इच्छा पूर्ण करने की प्रेरणा की है- 
 
कालिदास के सिवा और भी कवियों ने महाकालेश्वर के चरणों में अपने सुरभित सुमनों को समर्पित किया है।
 
इतिहासज्ञों का मंतव्य है कि प्रथम ई.सं. 1060 में परमारवंशीय राजा उदयादित्य ने इस मंदिर की सुधारण की है, पर कुछ लोगों का ख्याल है कि उदयादित्य ने नहीं, बल्कि 11वीं शताब्दी में भोजराज ने यह सुधार किया है। बुद्ध के समकालीन राजा प्रद्योत के समय भी यह स्थान बड़े उत्कर्ष पर था।
 
प्राय: 18 पुराणों में महाकालेश्वर का भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्णन मिलता है। महाभारत वनपर्व (अ. 92, श्लो. 41) स्कंदपुराण, मत्स्यपुराण, शिवपुराण, भागवत, शिवलीलामृत आदि ग्रंथों में तथा कथासरित्सागर, राजतरंगिणी, कांदबरी, मेघदूत आदि काव्य ग्रथों में बड़ा ही रोचक एवं अत्यंत सुंदर भावमय वर्णन किया हुआ है। 
 
पुरातन मंदिर कहां था या जहां अब है- वहीं था, इसका ठीक पता नहीं, पर उसकी वैभवशीलता, सुंदरता और विशालता का वर्णन सर्वत्र है। अल्बेरूनी और ‍विशालता का वर्णन सर्वत्र है। अल्बेरूनी और फरिश्ता ने भी यहां की वैभव-संपन्नता का सुंदर चित्र अंकित किया है। 
 
यह तो मानी हुई बात है कि मुस्लिम आक्रमण के पूर्व उज्जैन की भूमि सुवर्णमयी थी। भारतवर्ष पर गजनी के मुहम्मद की दूषित आक्रमणकारी मनोवृत्ति का प्रभाव पीछे भी बहुत काल तक यहां बना रहा। इसके पूर्व महाकालेश्वर का स्थान भारत भर में अपने ढंग का अद्वितीय और स्वर्ण प्रकार-मंडित था। हजारों वर्षों से यहां सहस्रों यात्रीगण, धार्मिक भावना को लिए हुए आते रहे हैं। भूतभावन भगवान त्रिशूली पर पुण्य-सलिला शिप्रा के पुनीत जल से मंत्राभिषेक की धारा प्रवाहित होती रही है। शतश: वेद ध्वनि से गगन-मंडल को प्रतिध्वनित करते रहने वाले ब्रह्म-वृंदों से यह स्थान घिरा रहता था। लोगों की धारणा रही है कि महाकालेश्वरजी स्वंभू देव हैं, यह अजेय स्थल है।
 
देहली के गुलाम-वंशीय अल्तमश ने ई.सं. 1235 में उज्जैन पर सवारी कर, यहां का सौभाग्य लूटकर मिट्टी में मिला दिया। इसके पूर्व भी एक बार सिंध के अमीर और अल्तमश के ससुर ने यहां लूट की थी, पर अल्तमश ने जैसी दुष्ट मनोवृत्ति का परिचय दिया है, जिस प्रकार देवालयों और भव्य-भवनों का सर्वनाश किया है, दुष्टता की पराकाष्ठा ही थी। उज्जैन की चहारदीवारी पर मजबूत पहरा लगा रहता था, पर उसने एकदम धावा कर दिया। तीन दिन तक घमासान युद्ध होता रहा, आसपास के राजाओं ने आकर सामना किया, पर वे अधिक समय ठहर न सके। क्रूर अल्तमश की तलवार की धार पर अनेक नरमुंडों को उतरना पड़ा। मंदिर की शोभा और वैभव ने उसको धन-लिप्सा का शिकार बना रखा था। इस समय तक मंदिर सौ गज ऊंचा था। गगनस्पर्शी सुंदर शिखर मंदिर की विशालता प्रकट कर रहा था। सभा-मंडप में खुदाई का काम बहुत कलापूर्ण बना हुआ था, अनेक प्राचीन कला-चित्र अंकित थे। प्रवेश द्वार के पूर्व सुवर्ण-श्रृंखलाओं में भव्य घंटिकाएं लटक रही थीं। मोती और रत्नों से जड़ित तोरण तथा झालरें द्वार पर शोभायमान हो रही थीं। सभा-मंडप के बीच-बीच में रत्नराश‍ि के बहुमूल्य झूमर लटक रहे थे।
 
जिनकी रंग-बिरंगी आभा संगमरमर की बनी हुई शुभ्र फर्श पर छिटक रही थी। मंदिर के एक कोने में सम्राट विक्रमादित्य की सुवर्णमयी प्रतिमा स्थापित थी। 

सहस्रों वर्षों से यात्री-समूह के आते रहने के कारण मंदिर के भंडार में अपूर्व की राशि धन एकत्र और सुरक्षित थी। यह सब इस आक्रमण के कारण नष्ट हो गई। सारा वैभव लुट गया, मंदिर नष्ट-भ्रष्ट कर डाला गया। ई.सं. 1734 में राणेजी सिन्धे के दीवान रामचन्द्र ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार ‍करवाया, तब से यहां पूजन-अर्चन की व्यवस्था उपयुक्त हो गई। सिन्धे, होलकर, पंवार तीनों राज्यों से मिलाकर 4,000 वार्षिक का व्यय स्टेट की निरीक्षकता में होता रहा है।

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प्रात:काल 4 बजे चिता-भस्म पूजन बंद करवाया, अब साधारण उपलों से निर्मित भस्म से ही भस्म आरती होती है। इसके बाद 8 बजे, दिन के 12 बजे तथा सायंकाल- इस तरह 3 पूजा होती है। प्रात:कालीन पूजा तथा संध्याकालीन पूजन के समय तो मंदिर में कैलास हिमालय का अनुभव होता है। चिता भस्म-पूजन के समय चिता-भस्म छानने का तथा नैवेद्य ग्रहण करने का अधिकार गुसाई साधु का हैं। इन साधु की गद्दी की यहां परंपरा से चली आती है। ये महंत कहे जाते हैं। 
 
महाशिवरात्रि के 9 दिन पूर्व से ही मंदिर के ऊपरी पटांगण में प्रतिदिन हरि कीर्तन होता है। श्री महाकालेश्वरजी की उन दिनों नित्य नवीन झांकी होती है। सैकड़ों स्त्री-पुरुष दर्शनार्थी आते रहते हैं। शिवरा‍त्रि के दिन रातभर जागरण और पूजा होती है। इससे रोज सप्तधान्य तथा मनो पंचामृत द्वारा वृहत्पूजन होता है। यह दृश्य दर्शकों को भावनाभिभूत कर देता है। 
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श्रावण मास के 4 सोमवारों पर महाकालेश्वर की 4 सवारी बड़े लवाजमे के साथ निकलती है। इस समय आस-पास के ग्रामों के दर्शनार्थियों का भी इतना नर-समूह एकत्र हो जाता है कि एक यात्रा मालूम होती है। सवारी मंदिर से निकलकर शिप्रा-तट पर पहुंचती है। वहां पूजा होने के बाद शहर में घूमती हुई ढाई-तीन घंटे में यथास्थान पहुंचती है। इस सवारी के पीछे नि:संदेह कोई भावुक कवि हृदय कल्पना रही होगी, जो वृद्ध, अपंग, रोगी, अपाहिज, मूक, बीमार और बच्चे अपने प्रजापालक भगवान महाकाल के दर्शनों को न आ पाए। अपनी विवशताओं के चलते महाकाल तक न पहुंच पाए। तब श्रावण माह के इस पुण्य पर्व पर स्वयं राजा महाकाल उन तक आएंगे, उनसे मिलने मानो उनके दुख-दर्द, पीड़ाओं से साक्षात्कार करने, सवारी की कभी उज्जवल परंपरा था, कभी स्वयं महाराजा सिंधिया और स्व. पं. सू.ना. व्यास पद्मभूषण और अनेक गणमान्यजन विद्वान सवारी में पैदल चलना अपना गौरव मानते थे। आज भी सिंधिया परिवार इस परंपरा का पालन करता है। अंतिम सवारी की शोभा और भव्यता देखने लायक होती है। 
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सांप्रदायिक सौहार्द का भी सबसे बड़ा उदाहरण है यह सवारी, शहर के मुस्लिम कलाकार अपने बैंड समूह को सजा-धजाकर सवारी की शोभा बढ़ाते हैं। 
 
कार्तिक मास में भी 4 सवारियां निकलती हैं। ये साधारण सवारी होती हैं।
 
बैकुंठ चतुर्दशी के रोज 'हरि-हर' भेंट होती है। महाकालेश्वर की सवारी गोपाल मंदिर में जाती है। वहां गोपाल-कृष्ण पर बिल्वपत्रार्पण होता है और भस्म-पूजन के समय गोपालकृष्ण की सवारी यहां आती है। यहां महाकालेश्वर पर तुलसी-दल अर्पित होता है। दशहरे के रोज भी महाकालेश्वर की एक सवारी सारे लवाजमे के साथ निकलती है। शमी-पूजन को सभी अधिकारी साथ में जाते हैं, तोपों की सलामी दी जाती है। महाकालेश्वरजी की मूर्ति लिंग विशाल है। चांदी की सुंदर कारीगरीयुक्त जलाधारी में नागवेष्टित विराजमान हैं। एक ओर गणेशजी हैं, दूसरी ओर पार्वती तथा तीसरी ओर कार्तिकेय हैं। मंदिर के मुख्य द्वार के सामने नंदीगण हैं। शिवजी के सामने एक तेल का और एक घृत का दीपक अखंड जलता रहता है। मंदिर में सर्वत्र सफेद फर्श लगी हुई है। जलाधारी के आसपास चौखट लगे हुए हैं। पहले मंदिर में प्रवेश करने का एक ही द्वार था, उसके बाद एक दूसरा पश्चिम की ओर द्वार बन गया है। बिजली की रोशनी का भी प्रबंध है अत: पर्याप्त प्रकाश रहता है। मंदिर के अत्युच्च शुभ्र शिखर पर भी‍ बिजली की बत्ती लगी है, जो प्रकाशित होने पर नवीन चन्द्र की तरह ज्योत्स्ना फैलाकर बड़ी दूर-दूर से शोभा देखने के लिए नेत्रों को आकर्षित करती है। मंदिर के ऊपरी पूर्व द्वार पर नक्कारखाना है। ऊपर का पटांगण भी बड़ा विशाल है। महाकालेश्वरजी के ऊपर ओंकारेश्वर स्थापित हैं। अंदर तथा ऊपर पुजारी और ब्राह्मण लोग बैठे रहते हैं। 
 
मंदिर के अंदर 16 पुजारियों का अधिकार है। पूजा का कार्य राज की निरीक्षकता में होता है। मंदिर के ऊपर कुशकों में प्राचीन मूर्तियों का संग्रह पुरातत्व विभाग की ओर से किया गया है। मंदिर के दक्षिण-विभाग में ऊपर भी शंकर के कई मंदिर हैं, अनादिकालेश्वर और वृद्धकालेश्वर के दो विशाल मंदिर हैं। वृद्धकालेश्वर को लोग जूना महाकाल भी कहते हैं। 
 
मध्ययुगीन काल में महाकालेश्वर के मंदिर के चारों ओर कोट बना हुआ था। अंदर कई राजप्रासाद और भव्य-भवन तथा उपवन थे जिनके ध्वंशावशेष यत्र-‍तत्र अब भी उस वैभव की स्मृति दिलाते हैं। इसी कारण इस मुहल्ले का नाम अब 'कोट' भी कहा जाता है।
 
पुराणों में इस स्थान की ख्‍याति 'महाकाल वन' के नाम से है। अवश्य ही सघन वन प्रदेश में यह स्थान रहा होगा। संकल्पों में आज भी 'महाकाल वने' कहा जाता है। मंदिर के नीचे सभा-मंडप से लगा हुआ एक 'कोटितीर्थ' नामक कुंड है, यह सारा पुख्ता बना हुआ है। बड़ा सुंदर दृश्य उपस्थित करता है। कुंड के आसपास अनेक छोटी-छोटी शंकरजी की सुंदर छत्रियां हैं, जब शुक्ल पक्ष में चांदनी छिटकती है, तब अत्यंत नयन मनोहर एक स्वर्गीय दृश्य दिखाई देता है। विद्युत सज्जा से अलंकृत बहुत भव्य लगता है। 
 
कुंड के दक्षिण में देवास-राज्य की धर्मशाला है। पश्चिम में सरदार किबे की धर्मशाला थी तथा उत्तर में लेखक का 'भारती-भवन' नामक पद्मभूषण स्व. व्यास निर्मित ऐतिहासिक क्रांतिकारियों का रैन बसेरा आवास स्थल है। 
 
महाकालेश्वर के सभा मंडप में ही राम मंदिर हैं। इन रामजी के पीछे 'अवन्तिका देवी' की प्रतिमा है, जो इस अवन्तिका की अधिष्ठात्री देवी हैं। 
 
आज महाकाल पर शासकीय आधिपत्य है। श्रृंगार और नवनिर्माण के नाम पर नित नए प्रयोग होते रहते हैं, मुख्य द्वार पर 'शंख द्वार' भी अब नहीं है, तोड़ दिया गया है।
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