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श्रीकृष्ण की इन कूटनीतियों से जीते थे पांडव महाभारत का युद्ध

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अनिरुद्ध जोशी

भगवान कृष्ण को राजनीति और कूटनीति में दक्ष माना गया है। उनकी नीती छलपूर्ण नहीं थी। जब युद्ध में कौरवों ने अभिमन्यु को धोखे और नियम विरुद्ध मारकर नियम भंग किया तो फिर पांडव भी नियम पर चलने के लिए बाध्य नहीं रह गए थे। युद्ध के पहले भी कौरवों ने छलपूर्ण तरीके से पांडवों को वनवास भेजा और कई तरह के त्रास दिए थे। ऐसे में भगवान श्री कृष्ण ने पांडवों को बचाने के लिए जो भी किया वह सत्य और धर्म की रक्षार्थ ही था। तो आओ जानते हैं कि भगवान श्री कृष्ण ने कैसे अपनी कूटनीति से पांडवों को युद्ध में जीत दिलाई।
 
कर्ण से इस तरह बचाया अर्जुन को : भगवान कृष्ण और अर्जुन के पिता देवराज इंद्र यह भली-भांति जानते थे कि जब तक कर्ण के पास उसका कवच और कुंडल है, तब तक उसे कोई नहीं मार सकता। तब श्री कृष्ण की युक्ति अनुसार देवराज इंद्र ने ब्राह्मण बन दानवीर कर्ण से दान में कवच और कुंडल मांग लिए। लेकिन कुछ मील जाकर इन्द्र का रथ भूमि में धंस गया। तभी आकाशवाणी हुई, 'देवराज इन्द्र, तुमने अपने पुत्र अर्जुन की जान बचाने के लिए छलपूर्वक कर्ण की जान खतरे में डाल दी है। अब यह रथ यहीं धंसा रहेगा और तू भी यहीं धंस जाएगा।' तब इन्द्र ने आकाशवाणी से पूछा, इससे बचने का उपाय क्या है? तब आकाशवाणी ने कहा- अब तुम्हें दान दी गई वस्तु के बदले में बराबरी की कोई वस्तु देना होगी। तब इन्द्र वे फिर से कर्ण के पास गए और उन्होंने कवच और कुंडल वापस देने का कहा लेकिन कर्ण ने लेने से इनकार कर दिया। तब इंद्र ने उन्हें अपना अमोघ अस्त्र देकर कहा कि यह तुम जिस पर भी चलाओगे वह मृत्यु को प्राप्त होगा, लेकिन तुम इसका इस्तेमाल एक बार ही कर सकते हो।
 
 
युद्ध में जब घटोत्कच ने कौरवों की सेना को कुचलना शुरू किया तो दुर्योधन घबरा गया और ऐसे में उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। तब कृष्ण ने कर्ण से कहा कि आपके पास तो अमोघ अस्त्र से जिसके प्रयोग से कोई बच नहीं सकता तो आप उसे क्यों नहीं चलाते। कर्ण कहने लगा नहीं ये अस्त्र तो मैंने अर्जुन के लिए बचा कर रखा है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि अर्जुन पर तो तुम तब चलाओंगे जब ये कौरव सेना बचेगी, ये दुर्योधन बचेगा। जब ये सभी घटोत्कच के हाथों मारे जाएंगे तो फिर उस अस्त्र के चलाने का क्या फायदा? दुर्योधन को ये बात समझ में आती है और वह कर्ण से अमोघ अस्त्र चलाने की जिद करता है। कर्ण मजबूरन व अमोघ अस्त्र घटोत्कच के उपर चला देता है। इस तरह भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को बचा लेते हैं।
 
 
दुर्योधन का शरीर नहीं बनने दिया वज्र का :
यदि दुर्योधन का संपूर्ण शरीर वज्र के समान बन जाता तो फिर उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता था। दरअसल, दुर्योधन की माता गांधारी ने अपने पुत्र को अपने पास नग्न अवस्था में बुलाया था ताकि वह अपनी आंखों के तेज से अपने पुत्र का शरीर वज्र के समान कठोर कर दें। माता की आज्ञा का पालन करने के लिए दुर्योधन भी नग्न अवस्था में ही जा रहा था, तभी रास्ते में श्री कृष्ण ने दुर्योधन को रोककर कहा कि इस अवस्था में माता के सामने जाओगे तो तुम्हें शर्म नहीं आएगी? क्या यह पाप नहीं होगा? यह सुनकर दुर्योधन ने अपने पेट के नीचे जांघ वाले हिस्से पर केले का पत्ता लपेट लिया और इसी अवस्था में गांधारी के सामने पहुंच गया। गांधारी ने अपनी आंखों पर बंधी पट्टी खोलकर दुर्योधन के शरीर पर दिव्य दृष्टि डाली। इस दिव्य दृष्टि के प्रभाव से दुर्योधन की जांघ के अलावा पूरा शरीर लोहे के समान हो गया। युद्ध में भीम ने दुर्योधन की जांघ उखाड़ कर फेंक दी थी जिसके चलते उसकी मृत्यु हो गई थी।
 
 
श्रीकृष्ण की नीति से भीष्म को मिली शरशय्या
महाभारत के युद्ध में भीष्म पितामह कौरवों की तरफ से सेनापति थे। भीष्म ने 8 दिन तक घोर युद्ध करते हुए पांडवों की सेना का मनोबल तोड़ दिया था। 9वें दिन भयंकर युद्ध हुआ जिसके चलते भीष्म ने बहादुरी दिखाते हुए अर्जुन को घायल कर उनके रथ को जर्जर कर दिया। कृष्ण के लिए यह घोर चिंता का विषय था। 10वें दिन भीष्म द्वारा बड़े पैमाने पर पांडवों की सेना को मार देने से घबराए पांडव पक्ष में भय फैल जाता है, तब श्रीकृष्ण को एक युक्ति समझ में आती है और कृष्ण के कहने पर पांडव भीष्म के सामने हाथ जोड़कर उनसे उनकी मृत्यु का उपाय पूछते हैं। भीष्म कुछ देर सोचने पर उपाय बता देते हैं।
 
 
दरअसल, भीष्म ने अपनी मृत्यु का रहस्य यह बताया था कि वे किसी नपुंसक व्यक्ति के समक्ष हथियार नहीं उठाएंगे। इसी दौरान उन्हें मारा जा सकता है। इस नीति के तरह युद्ध में भीष्म के सामने शिखंडी को उतारा जाता है और उसी दौरान भीष्म को अर्जुन तीरों से छेद देते हैं। वे कराहते हुए नीचे गिर पड़ते हैं और भीष्म बाणों की शरशय्या पर लेट जाते हैं।
 
युद्ध में जयद्रथ का इस तरह वध करवाते हैं श्रीकृष्ण
महाभारत युद्ध में जयद्रथ के कारण अकेला अभिमन्यु चक्रव्यूह में फंस गया था और दुर्योधन आदि योद्धाओं ने एक साथ मिलकर उसे मार दिया था। इस जघन्नय अपराध के बाद अर्जुन प्रण लेते हैं कि अगले दिन सूर्यास्त से पहले जयद्रथ का वध नहीं कर पाया तो मैं स्वयं अग्नि समाधि ले लूंगा। इस प्रतिज्ञा से कौरवों में हर्ष व्याप्त हो जाता है और पांडवों में निराशा फैल जाती है। कौरव किसी भी प्रकार से जयद्रथ को सूर्योस्त तक बचाने और छुपान में लग जाते हैं। जब काफी समय तक अर्जुन जयद्रथ तक नहीं पहुंच पाया तो श्रीकृष्ण ने अपनी माया से सूर्य को कुछ देर के लिए छिपा दिया, जिससे ऐसा लगने लगा कि सूर्यास्त हो गया। सूर्यास्त समझकर जयद्रथ खुद ही अर्जुन के सामने हंसता हुआ घमंड से आ खड़ा होता है। तभी उसी समय सूर्य पुन: निकल आता है और अर्जुन तुरंत ही जयद्रथ का वध कर देता है।
 
 
श्रीकृष्ण ने द्रोण का वध भी कूटनीति से करवाया
भीष्म के शरशय्या पर लेटने के बाद ग्यारहवें दिन के युद्ध में कर्ण के कहने पर द्रोण सेनापति बनकर युद्ध में कोहराम मचा देते हैं। अश्वत्थामा और उसने पिता द्रोण की संहारक शक्ति के बढ़ते जाने से पांडवों के खेमे में दहशत फैल जाती है। पांडवों की हार को देखकर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से भेद का सहारा लेने को कहते हैं। इस योजना के तहत युद्ध में यह बात फैला दी गई कि 'अश्वत्थामा मारा गया', लेकिन युधिष्‍ठिर झूठ बोलने को तैयार नहीं थे। तब अवंतिराज के अश्‍वत्थामा नामक हाथी का भीम द्वारा वध कर दिया गया। इसके बाद युद्ध में यह बात फैला दी गई कि 'अश्वत्थामा मारा गया'।
 
 
जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा के मारे जाने की सत्यता जानना चाही तो उन्होंने जवाब दिया- 'अश्वत्थामा मारा गया, परंतु हाथी।' श्रीकृष्ण ने उसी समय शंखनाद किया जिसके शोर के चलते गुरु द्रोणाचार्य आखिरी शब्द 'हाथी' नहीं सुन पाए और उन्होंने समझा मेरा पुत्र मारा गया। यह सुनकर उन्होंने शस्त्र त्याग दिए और युद्ध भूमि में आंखें बंद कर शोक में डूब गए। यही मौका था जबकि द्रोणाचार्य को निहत्था जानकर द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने तलवार से उनका सिर काट डाला। यह सब कृष्ण की नीति के चलते हुआ, जिसकी बाद में बहुत आलोचना हुई। लेकिन युद्ध में यह बहुत जरूरी था।
 
 
कर्ण फिर भी था शक्तिशाली और तब लिया कठिन निर्णय
कवच कुंडल उतर जाने के बाद, अमोघ अस्त्र नहीं होने के बावजूद कर्ण में अपार शक्तियां थी। युद्ध के सत्रहवें दिन शल्य को कर्ण का सारथी बनाया गया। इस दिन कर्ण भीम और युधिष्ठिर को हराकर कुंती को दिए वचन को स्मरण कर उनके प्राण नहीं लेता। बाद में वह अर्जुन से युद्ध करने लग जाता है। कर्ण तथा अर्जुन के मध्य भयंकर युद्ध होता है।
 
 
तभी अचानक कर्ण के रथ का पहिया भूमी में धंस जाता है। इसी मौके का लाभ उठाने के लिए श्रीकृष्ण अर्जुन से तीर चलाने को कहते हैं। बड़े ही बेमन से अर्जुन असहाय अवस्था में कर्ण का वध कर देता है। इसके बाद कौरव अपना उत्साह हार बैठते हैं। उनका मनोबल टूट जाता है। फिर शल्य प्रधान सेनापति बनाए जाते हैं, परंतु उनको भी युधिष्ठिर दिन के अंत में मार देते हैं।
 
बर्बरीक को युद्ध से दूर रखना जरूरी था
युद्ध के मैदान में भीम पौत्र बर्बरीक दोनों खेमों के मध्य बिन्दु, एक पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हो गए और यह घोषणा कर डाली कि मैं उस पक्ष की तरफ से लडूंगा जो हार रहा होगा। भीम के पौत्र बर्बरीक के समक्ष जब अर्जुन तथा भगवान श्रीकृष्ण उसकी वीरता का चमत्कार देखने के लिए उपस्थित हुए तब बर्बरीक ने अपनी वीरता का छोटा-सा नमूना मात्र ही दिखाया। कृष्ण ने कहा कि यह जो वृक्ष है इसके सारे पत्तों को एक ही तीर से छेद दो तो मैं मान जाऊंगा। बर्बरीक ने आज्ञा लेकर तीर को वृक्ष की ओर छोड़ दिया।
 
 
जब तीर एक-एक कर सारे पत्तों को छेदता जा रहा था उसी दौरान एक पत्ता टूटकर नीचे गिर पड़ा, कृष्ण ने उस पत्ते पर यह सोचकर पैर रखकर उसे छुपा लिया की यह छेद होने से बच जाएगा, लेकिन सभी पत्तों को छेदता हुआ वह तीर कृष्ण के पैरों के पास आकर रुक गया। तब बर्बरीक ने कहा प्रभु आपके पैर के नीचे एक पत्ता दबा है कृपया पैर हटा लीजिए क्योंकि मैंने तीर को सिर्फ पत्तों को छेदने की आज्ञा दे रखी है आपके पैर को छेदने की नहीं।
 
 
उसके इस चमत्कार को देखकर भगवान श्रीकृष्ण यह सोचने लगते हैं कि बर्बरीक प्रतिज्ञावश हारने वाले का साथ देगा। यदि कौरव हारते हुए नजर आए तो फिर पांडवों के लिए संकट खड़ा हो जाएगा और यदि जब पांडव बर्बरीक के सामने हारते नजर आए तो फिर वह पांडवों का साथ देगा। इस तरह वह दोनों ओर की सेना को एक ही तीर से खत्म कर देगा।
 
तब भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण का भेष बनाकर सुबह बर्बरीक के शिविर के द्वार पर पहुंच गए और दान मांगने लगे। बर्बरीक भी कर्ण की तरह दानवीर था। बर्बरीक ने कहा मांगो ब्राह्मण! क्या चाहिए? ब्राह्मण रूपी कृष्ण ने कहा कि तुम दे न सकोगे। लेकिन बर्बरीक कृष्ण के जाल में फंस गए और कृष्ण ने उससे उसका 'शीश' मांग लिया।
 
 
बर्बरीक द्वारा अपने पितामह पांडवों की विजय हेतु स्वेच्छा के साथ शीशदान कर दिया। बर्बरीक के इस बलिदान को देखकर दान के पश्चात्‌ श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को कलियुग में स्वयं के नाम से पूजित होने का वर दिया। आज बर्बरीक को खाटू श्याम के नाम से पूजा जाता है। जहां कृष्ण ने उसका शीश रखा था उस स्थान का नाम खाटू है।

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