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क्योंकि भैया खास हैं और बहन उनके लिए अनमोल...

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प्रीति सोनी

मम्मी हमेशा भैया के पसंद का खाना बनाती हैं और मेरी पसंद की चीज कभी नहीं बनती...भैया से लड़ाई का बिगुल इसी वाक्य से शुरू होता था बचपन में। चिढ़ि हुई छोटी बहन को और चिढ़ाने के लिए भैया की इतराती हुई एक मुस्कान ही काफी होती थी। बस फिर क्या था...यहां तो मासूमिसम भरे चेहरे पर गोल-मटोल गाल और ज्यादा फूल जाते, और सिकुड़ी हुई भौंओं के साथ आंखें भैया और मम्मी को घूरने लगती। मम्मी प्यार भी मुस्कान लिए समझाती...कल तो मैं मेरी बेटू की पसंद की चीज बनाउंगी पक्का...जो बोलेगी वो...अभी खा ले बेटू, भैया तो तुझे चिढ़ा रहे हैं...। 
 
मुझे चिढ़ाने और रुलाने के जुर्म में सैकड़ों डांट खाई होंगी उन्होंने, लेकिन उनका मन आज तक नहीं भरा इस बात से। भैया बाद में मनाने में कसर नहीं छोड़ते, मना-मना कर खाना खिला ही देते। भैया और मेरी उम्र में काफी फासला रहा, इसलिए कभी बराबरी वाली बात नहीं रही, बहुत सारा स्नेह मिला शुरू से ही। भैया को देखते-देखते, उनका अनूसरण करते-करते बड़ी हुई, तो पता ही नहीं चला कि कब मेरी आदतें और पसंद-नापसंद उनकी तरह हो गई। उन्हें बैंगन नहीं पसंद तो मुझे भी नहीं, उन्हें बेसन से चिढ़, तो मुझे भी, नए कपड़े भी लेने हैं तो भैया की पसंद के...। बचपन में सब दो पक्की सहेलियों से झगड़ा हो जाता और मैं अकेली पड़ जाती, तो भैया मेरे साथ घर-घर खेलते और खेल को इतना मनोरंजक बना देते, कि पड़ोस से देखते हुए मेरी दोनों सहेलियां भी उस खेल में शामिल होना चाहतीं, और हमारी आपस में दोस्ती हो जाती।
 
आज भी याद है वो सारी बातें, जब मुझे को जरा डांट भी दे तो मेरे लिए जाकर दुनिया से लड़ लें। स्कूल जाने के लिए जब मेरी जिद शुरू हुई कि बाकी बच्चों की तरह मुझे भी रिक्शे से ही स्कूल जाना है, तो मुझे साइकल से स्कूल छोड़ने और लाने के लिए पापा ने दोनों भैया की ड्यूटी लगाई थी। रक्षाबंधन और जन्मदिन पर भाईयों के साथ जब फोटो खिंचवाते तो, छोटी सी मैं बीच में और दोनों भैया अगल-बगल खड़े होते...। जब-जब किसी जिद पर अड़ती, बेचारे भैया को दौड़ना पड़ता साइकल से, मेरी फरफाइश की चीज बाजार से लाने के लिए। एक बार तो शक्तिमान वाली रबर यानि इरेजर के लिए रोना शुरू किया था...घर की सारी रबर मेरे सामने मय तरीफों के पुल, रख दी गईं, लेकिन अंत में भैया वो शक्तिमान वाली रबर बाजार भर में घूमकर, ढूंढकर लाए तब शांति मिली।
 
बचपन में भी मुझे लिपस्टिक, मेकअप का बड़ा शौक था, लेकिन भैया को लिपस्ट‍िक से बड़ी चिड़ थी। लेकिन एक बार सामने से निकलने वाले ढेले वाले के पास ढेर सारी लिपस्ट‍िक देखीं, तो हम महारानी साहिबा एक बार फिर जिद पर...। जैसे-जैसे ठेला आगे बढ़ता जा रहा था, निवेदन, रूदन में तब्दील होकर बढ़ता जा रहा था। फिर दौड़ना तो भैया को ही था। न केवल वो जाकर लिपस्ट‍िक लेकर आए, बल्कि मुझे दिखाने और हंसाने के लिए खुद लिपस्ट‍िक लगाकर मेरे सामने आए और मुझे चुप किया।
 
ऐसी न जाने कितनी ही यादें हैं उनके स्नेह से जुड़ी। कभी मेरी स्कूल यूनिफार्म प्रेस करना, तो कभी रात-रात भर बैठकर मेरे लिए प्रोजेक्ट बनाने का जिम्मा बड़े वाले भैया के सिर था। मेरी अधूरी पड़ी टेक्स्ट बुक भी वही पूरी करते, रात भर जागकर, और मैं वहीं साइड में सो जाती। हमारी राइटिंग भी एक जैसी थी, तो टीचर भी ज्यादा कुछ समझ नहीं पाते थे। पढ़ाई के लिए जब भैया घर से बाहर गए, तो सबसे ज्यादा मुझे याद करते, और जब घर आते तो बहुत कुछ तोहफे लेकर आते मेरे लिए। ऐसी न जानें कितनी यादें हैं उनके स्नेह भाव से जुड़ी। जितनी पटती, अब उतने ही झगड़े भी होते हैं उनसे। लेकिन हर वक्त ढाल की तरह साथ भी वही खड़े मिलते हैं...क्योंकि भाई सबसे खास होते हैं, और बहनें उनके लिए अनमोल। 

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