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रक्षाबंधन से है बंधी आस....

हमें फॉलो करें रक्षाबंधन से है बंधी आस....

राजश्री कासलीवाल

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महिलाएँ भले ही उम्र के किसी भी पड़ाव तक क्यों न पहुँच जाएँ, अठारह से अस्सी वर्ष तक का सफर तय कर लें फिर भी सबके मन में सदैव एक बहन, मासूम बेटी जिंदा रहती ही है। और रक्षाबंधन का यह पर्व उस बेटी-बहन या बुआ को चुंबक-सा आकर्षित करता है, खींचता है अपने मायके जाने के लिए। लेकिन समाज में बढ़ता एकल परिवारों का दौर और दिनों-दिन बढ़ती महँगाई, स्कूलों की बढ़ती फीस, रोजमर्रा के बढ़ते खर्चों और ऊपर से बढ़ती बेरोजगारी ने मानवीय जनजीवन को तहस-नहस कर दिया है। और त्योहारों को तो जैसे ताक पर बिठा दिया हो।

इस प्रकृति ने हमारी संस्कृति में रक्षाबंधन व भाईदूज जैसे त्योहारों का समावेश किया ताकि हम अपनी जड़ों से जुड़े रहे। और अपने परिवार व समाज को तृप्त करने का दायित्व पूरी तरह निभा सकें। रेशम की इस महीन डोरी का यह त्योहार 'रक्षाबंधन' एक ऐसा सेतु है जो हर महिला में मौजूद एक बेटी को-बहन को अपनी कोख से जोड़े रखता है।

ऐसे में एक मध्यमवर्गीय परिवार हो या मजदूरी करके पेट पालने वाले लोग इस बढ़ती महँगाई के तानाशाही जीवन से भला कैसे बचे रह सकते हैं। जो लोग अमीर घरानों से ताल्लुक रखते हैं उनके लिए कोई भी चीज कठिन नहीं होती ऐसे में अगर महँगाई बढ़े या घटे उन्हें इसका कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उनके तीज-त्योहार तो अच्छी तरह से मन ही जाते हैं। फिर भी त्योहार तो त्योहार है यह धन से नहीं मन से मनाए जाते हैं।
  महिलाएँ भले ही उम्र के किसी भी पड़ाव तक क्यों न पहुँच जाएँ, अठारह से अस्सी वर्ष तक का सफर तय कर लें फिर भी सबके मन में सदैव एक बहन, मासूम बेटी जिंदा रहती ही है। और रक्षाबंधन का यह पर्व उस बेटी-बहन या बुआ को चुंबक-सा आकर्षित करता है।      


राखी का त्योहार उन बहनों के लिए बहुत ही मुश्किल भरा त्योहार तब बन जाता है जब पहले सामूहिक परिवार में रहने वाले भाई अब एकल परिवार की दौड़ में शामिल हो गए हों। ऐसे में बहन के लिए यह तय कर पाना बड़ा मुश्किल हो जाता है कि अलग-अलग शहर में भाई के घर जाकर राखी बाँधने वह सही समय पर कैसे पहुँचे? या फिर एक ही शहर में दूर-दूर रहने वाले भाइयों के यहाँ जाने के लिए समय का निर्धारण कैसे करे?

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कई बार ऐसा होता है कि भाभी के मायके चले जाने की वजह से बेचारी बहना को रक्षाबंधन पर जाने का मौका ही नहीं मिल पाता। ऐसे में वे बहनें अपना मन मसोसकर रह जाती हैं। कई घरों में तो बहनों को सिर्फ इसलिए नहीं बुलाया जाता है कि अगर वह आ गई तो घर की बहू अपने मायके राखी का त्योहार मनाने नहीं जा पाएगी। लेकिन क्या आप बता सकते हैं कि यह किस हद तक सही है। आखिर हर बहन यही तो चाहती है कि राखी और भाईदूज जैसे त्योहारों पर मायके से बुलावा आए और वे अपने भाई-भाभियों और परिवारजनों के साथ इस त्योहार को मनाकर खुशियाँ बाँट सकें।

मेरे एक परिचित हैं। जिनके यहाँ दो बहुओं का परिवार रहता तो साथ-साथ ही है लेकिन खाना अलग-अलग बनता है। ऐसे में हर साल जब राखी का त्योहार आता है तो छोटी बहू चार दिन पहले ही मायके चली जाती है। जब ससुराल से ननदों या बुआ का फोन आता है तो उसका दोटूक जवाब रहता है, मैं तो मायके जाऊँगी, लेकिन आप आ जाना।

वह तो चली जाती है बाकी सारे काम अपने जेठानी के सिर पर छोड़कर। बेचारी जेठानी सारे घर का काम निपटा कर, ननदों की आवभगत करने के बाद जब फ्री होती है तब अपने भाई के घर जाती है। और घर आने वाली बेटियाँ बगैर अपने छोटी भाभी और भतीजों से राखी बँधवाए ही अपने ससुराल लौट जाती हैं। वे शिकायत करती रह जाती हैं कि भाभी तो हर बार ही मायके चली जाती है। लेकिन इस बात से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। जबकि होना यह चाहिए कि पहले अपना कर्तव्य निभाने के बाद ही हमें अपने रिश्ते के बारे में सोचना चाहिए।

एक तरफ तो हम रिश्तों की दुहाई देते हैं और दूसरी तरफ जब रिश्ते निभाने का सही समय आता है तब हम मैदान छोड़कर भाग जाते हैं। रिश्ते निभाने की यह परंपरा कहाँ तक उचित है? खास कर ऐसे समय में जब राखी का त्योहार हो। और बहनें अपने भाई की लंबी उम्र की कामनाएँ करने और दुआएँ माँगने की ख्वाहिश रखती हों।

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