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सुरों का बसंत हुआ खामोश

पंडित भीमसेन जोशी नहीं रहे

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, सोमवार, 24 जनवरी 2011 (10:16 IST)
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हम इस बहस में नहीं पढ़ेंगे कि दुनियाभर में संगीत को लेकर जो शोध और प्रयोग हो रहे हैं उसके कुछ निष्कर्ष ये भी हैं कि संगीत कई बीमारियों में कारगर साबित हुआ है। लेकिन हम अपने अनुभव से भी जानते हैं कि किसी दुःख में या अवसाद में, किसी अकेलेपन में या मन के किसी कोने-अँधेरे से संगीत की कोई लहर हमें बाहर खींच लाने में कारगर साबित होती रही है।

और यदि इस संगीत के साथ शब्दों का साहचर्य हो तो शायद वे और भी कारगर साबित हों शायद क्योंकि शब्द भी तो अपना जादू बिखरते ही हैं।

इसलिए हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत मुझे सबसे सुरीली शरणस्थली लगती है जहाँ जाकर आप महसूस कर सकते हैं कि कोई आपके जलते घावों पर मरहम लगा रहा है, कोई आपके चोट खाए माथे पर मुलायम बादल का फाहा रख रहा है और कोई धीरे से निराशा-हताशा की जमीन पर कोई फूल रख जाता है।

पंडित भीमसेन जोशी का गाना सुनकर आप ऐसा महसूस कर सकते थे।

कवि मंगलेश डबराल ने पंडितजी का गाया राग दुर्गा सुनकर एक कविता लिखी थी- राग दुर्गा।
कविता की इन पंक्तियों पर गौर करें जरा-

जब सब कुछ कठोर था और सरलता नहीं थी
जब आखिरी पेड़ भी ओझल होने को था

तभी सुनाई दिया मुझे राग दुर्गा
सभ्यता के अवशेष की तरह तैरता हुआ
मैं बढ़ा उसकी ओर
उसका आरोह घास की तरह उठता जाता था
अवरोह बहता आता था पानी की तरह
जाहिर है वह पंडितजी की आवाज का ही जादू था जब उसे सुनकर आप पाते थे कि इस कठोर दुनिया में जहाँ आखिरी पेड़ भी ओझल हो रहा हो तब सरलता ही हमें इस अत्याचारी युग में और दु:ख में बचा लेगी जहाँ उस सभ्यता के अवशेष की तरह तैरता राग महसूस करते हैं, जिस सभ्यता ने सरलता सिखाई थी, प्रेम करना सिखाया था। वह ऐसी पुकार थी जिसमें सबके लिए अथाह प्रेम था। एक ऐसा आलिंगन था जो घायल पृथ्वी का आलिंगन करना चाहता था।

लेकिन यह कविता इससे पहले की पंक्तियों में कहती है-

देर तक उस संगीत में खोजता रहा कुछ
जैसे वह संगीत भी कुछ खोजता था अपने से बाहर
किसी को पुकारता किसी को आलिंगन के लिए बढ़ता।

यह पंडित भीमसेन जोशी की गायकी का ही असर था कि एक कवि उसमें जीवन के मर्म को झिलमिलाता देखता है, पानी की तरह बहता देखता है। वह मर्म जो किसी की पुकार में है और वह मर्म जो किसी आलिंगन के लिए बढ़ता है।

कवि शिरीष कुमार मौर्य ने भी पंडित भीमसेन जोशी के गाए राग बसंत को सुनकर एक कविता लिखी थी- बसंत।
यह कविता भी पंडित भीमसेन जोशी की गायकी के असर और जादू की साक्ष्य है। हालाँकि इसके लिए उनकी गायकी को किसी साक्ष्य की जरूरत नहीं। इस कविता में पंडितजी की गायकी से बेवक्त, बेमौसम बसंत आने की बात को कलात्मक ढंग से कहने की कोशिश है। यह उनकी गायकी की तासिर थी कि जब बाहर पत्ते झर रहे हों तो भीतर कोंपलें फूटने लगती हैं और टिड्डों का रंग भूरे से हरा हो जाता है।

संगीत की कोई लहर आपको खींच कर दु:ख से बाहर ले आती है। इसमें भी शिरीष कहते हैं कि -
ये सभी महसूस कर सकते हैं
एक आवाज का हाथ पकड़कर
यों बसंत का आना।

अपने हाँफते और दौड़ते जीवन में, गिरते-पड़ते जीवन में, खरोंच खाते और मारते जीवन में थोड़ा वक्त निकालिए और पंडित भीमसेन जोशी के गायन को सुनिए। आप चाहें दुःख में हों या पतझड़ में उनकी सुरीली आवाज का हाथ थामकर आप अपने जीवन में बसंत का आना महसूस कर सकते े। आज सुरों का बसंत हमारे बीच से चला गया और नम आँखों से श्रद्धांजलि देने के सिवा हमारे बस में कुछ नहीं।

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