Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

सफल प्रेम भी हो जाते हैं क्यों असफल- ओशो रजनीश

हमें फॉलो करें सफल प्रेम भी हो जाते हैं क्यों असफल- ओशो रजनीश
, बुधवार, 13 फ़रवरी 2013 (15:33 IST)
PR
जॉर्ज बर्नाड शॉ ने कहा है, दुनिया में दो ही दुख हैं- एक तुम जो चाहो वह न मिले और दूसरा तुम जो चाहो वह मिल जाए। और दूसरा दुख मैं कहता हूं कि पहले से बड़ा है।

क्योंकि मजनू को लैला न मिले तो भी विचार में तो सोचता ही रहता है कि काश, मिल जाती! काश मिल जाती, तो कैसा सुख होता! तो उड़ता आकाश में, कि करता सवारी बादलों की, चांद-तारों से बातें, खिलता कमल के फूलों की भांति। नहीं मिल पाया इसलिए दुखी हूं।

मजनू को मैं कहूंगा, जरा उनसे पूछो जिनको लैला मिल गई है। वे छाती पीट रहे हैं। वे सोच रहे है कि मजनू धन्यभागी था, बड़ा सौभाग्यशाली था। कम से कम बेचारा भ्रम में तो रहा। हमारा भ्रम भी टूट गया।

जिनके प्रेम सफल हो गए हैं, उनके प्रेम भी असफल हो जाते हैं। इस संसार में कोई भी चीज सफल हो ही नहीं सकती। बाहर की सभी यात्राएं असफल होने को आबद्ध हैं। क्यों? क्योंकि जिसको तुम तलाश रहे हो बाहर, वह भीतर मौजूद है। इसलिए बाहर तुम्हें दिखाई पड़ता है और जब तुम पास पहुंचते हो, खो जाता है। मृग-मरीचिका है। दूर से दिखाई पड़ता है।

रेगिस्तान में प्यासा आदमी देख लेता है कि वह रहा जल का झरना। फिर दौड़ता है, दौड़ता है और पहुंचता है, पाता है झरना नहीं है, सिर्फ भ्रांति हो गई थी। प्यास ने साथ दिया भ्रांति में। खूब गहरी प्यास थी इसलिए भ्रांति हो गई। प्यास ने ही सपना पैदा ‍कर लिया। प्यास इतनी सघन थी कि प्यास ने एक भ्रम पैदा कर लिया।

बाहर जिसे हम तलाशने चलते हैं वह भीतर है। और जब तक हम बाहर से बिलकुल न हार जाएं, समग्ररूपेण न हार जाएं तब तक हम भीतर लौट भी नहीं सकते। तुम्हारी बात मैं समझा।

किस-दर्जा दिलशिकन थे
मुहब्बत के हादिसे
हम जिंदगी में फिर कोई
अरमां न कर सके।

एक बार जो मोहब्बत में जल गया, प्रेम में जल गया, घाव खा गया, फिर वह डर जाता है। फिर दुबारा प्रेम का अरमान भी नहीं कर सकता। फिर प्रेम की अभीप्सा भी नहीं कर सकता।

दिल की वीरानी का क्या मजकूर है,
यह नगर सौ मरतबा लूटा गया।

और इतनी दफे लुट चुका है यह दिल! इतनी बार तुमने प्रेम किया और इतनी बार तुम लुटे हो कि अब डरने लगे हो, अब घबड़ाने लगे होमैं तुमसे कहता हूं, लेकिन तुम गलत जगह लुटे। लुटने की भी कला होती है। लुटने के भी ढंग होते हैं, शैली होती है। लुटने का भी शास्त्र होता है। तुम गलत जगह लुटे। तुम गलत लुटेरों से लुटे।

तुम देखते हो, हिंदू बड़ी अद्‍भुत कौम है। उसने परमात्मा को एक नाम दिया हरि। हरि का अर्थ होता है- लुटेरा, जो लूट ले, जो हर ले, छीन ले, चुरा ले। दुनिया में किसी जाति ने ऐसा प्यारा नाम परमात्मा को नहीं दिया है। जो हरण कर ले।

लुटना हो तो परमात्मा के हाथों लुटो। छोटी-छोटी बातों में लुट गए! चुल्लू-चुल्लू पानी में डूबकर मरने की कोशिश की, मरे भी नहीं, पानी भी खराब हुआ, कीचड़ भी मच गई, अब बैठे हो। अब मैं तुमसे कहता हूं, डूबो सागर में। तुम कहते हो, हमें डूबने की बात ही नहीं जंचती क्योंकि हम डूबे कई दफा। डूबना तो होता ही नहीं, और कीचड़ मच जाती है। वैसे ही अच्छे थे। चुल्लू भर पानी में डूबोगे तो कीचड़ मचेगी ही। सागरों में डूबो। सागर भी है।

मेरी मायूस मुहब्बत की
हकीकत मत पूछ
दर्द की लहर है
अहसास के पैमाने में।

तुम्हारा प्रेम सिर्फ एक दर्द की प्रतीति रही। रोना ही रोना हाथ लगा, हंसना न आया। आंसू ही आंसू हाथ लगे। आनंद, उत्सव की कोई घड़ी न आई।

इश्क का कोई नतीजा नहीं
जुज दर्दो-आलम
लाख तदबीर किया कीजे
हासिल है वही।

लेकिन संसार के दुख का हासिल यही है कि दर्द के सिवा कुछ भी नतीजा नहीं है।

इश्क का कोई नतीजा नहीं
जुज दर्दो-आलम।

दुख और दर्द के सिवा कुछ भी नतीजा नहीं है।

लाख तदबीर किया कीजे
हासिल है वही।

यहां से कोशिश करो, वहां से कोशिश करो, इसके प्रेम में पड़ो, उसके प्रेम में पड़े, सब तरफ से हासिल यही होगा। अंतत: तुम पाओगे कि हाथ में दुख के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। राख के सिवा कुछ हाथ में नहीं रह गया है। धुआं ही धुआं!

लेकिन मैं तुमसे उस लपट की बात कर रहा हूं जहां धुआं होता ही नहीं। मैं तुमसे उस जगत की बात कर रहा हूं जहां आग जलाती नहीं, जिलाती है। मैं भीतर के प्रेम की बात कर रहा हूं। मेरी भी मजबूरी है। शब्द तो मुझे वे ही उपयोग करने पड़ते हैं, जो तुम भी उपयोग करते हो तो मुश्किल खड़ी होती है। क्योंकि तुमने अपने अर्थ दे रखे हैं।

जैसे ही तुमने सुना 'प्रेम', कि तुमने जितनी फिल्में देखी हैं, उनका सबका सार आ गया। सबका निचोड़, इत्र। मैं जिस प्रेम की बात कर रहा हूं वह कुछ और। मीरा ने किया, कबीर ने किया, नानक ने किया, जगजीवन ने किया। तुम्हारी फिल्मोंवाला प्रेम नहीं, नाटक नहीं। और जिन्होंने यह प्रेम किया उन सबने यहीं कहा कि वहां हार नहीं है, वहां जीत ही जीत है। वहां दुख नहीं है, वहां आनंद की पर्त पर पर्त खुलती चली जाती है। और अगर तुम इस प्रेम को न जान पाए तो जानना, जिंदगी व्यर्थ गई।

दूर से आए थे साकी,
सुनकर मैखाने को हम।
पर तरसते ही चले,
अफसोस पैमाने को हम।

मरते वक्त ऐसा न कहना पड़े तुम्हें कि कितनी दूर से आए थे। दूर से आए थे साकी सुनकर मैखाने को हम- मधुशाला की खबर सुनकर कहां से तुम्हारा आना हुआ जारा सोचो तो! कितनी दूर की यात्रा से तुम आए हो। पर तरसते ही चले अफसोस पैमाने को हम- यहां एक घूंट भी न मिला।

मरते वक्त अधिक लोगों की आंखों में यही भाव होता है। तरसते हुए जाते हैं। हां, कभी-कभी ऐसा घटता है कि कोई भक्त, कोई प्रेमी परमात्मा का तरसता हुआ नहीं जाता, लबालब जाता है।

मैं किसी और प्रेम की बात कर रहा हूं। आंख खोलकर एक प्रेम होता है, वह रूप से है। आंख बंद करके एक प्रेम होता है, व अरूप से है। कुछ पा लेने की इच्छा से एक प्रेम होता है वह लोभ है, लिप्सा है। अपने को समर्पित कर देने का एक प्रेम होता है, वही भक्ति है।

तुम्हारा प्रेम तो शोषण है। पुरुष स्त्री को शोषित करना चाहता है, स्त्री पुरुष को शोषित करना चाहती है। इसीलिए तो स्त्री-पुरुषों के बीच सतत झगड़ा बना रहता है। पति-पत्नी लड़ते रहते हैं। उनके बीच एक कलह का शाश्वत वातावरण रहता है। कारण है क्योंकि दोनों एक-दूसरे को कितना शोषण कर लें, इसकी आकांक्षा है। कितना कम देना पड़े और कितना ज्यादा मिल जाए इसकी चेष्टा है। यह संबंध बाजार का है, व्यवसाय का है।

webdunia
PR
मैं उस प्रेम की बात कर रहा हूं, जहां तुम परमात्मा से कुछ मांगते नहीं, कुछ भी नहीं। सिर्फ कहते हो, मुझे अंगीकार कर लो। मुझे स्वीकार कर लो। मुझे चरणों में पड़ा रहने दो। यह मेरा हृदय किसी कीमत का नहीं है, किसी काम का नहीं है, मगर चढ़ाता हूं तुम्हारे चरणों में। और कुछ मेरे पास है भी नहीं। और चढ़ा रहा हूं तो भी इसी भाव से चढ़ा रहा हूं-

-'त्वदीयं वस्तु गोविंद तुभ्यमेव समर्पयेत्।' तेरी ही चीज है। तुझी को वापस लौटा रहा हूं। मेरा इसमें कुछ है भी नहीं। देने का सवाल भी नहीं है, देने की अकड़ भी नहीं है। मगर तुझे और तेरे चरणों में रखते ही इस हृदय को शांति मिलती है, आनंद मिलता है, रस मिलता है। जो खंड टूट गया था अपने मूल से, फिर जुड़ जाता है। जो वृक्ष उखड़ गया था जमीन से, उसको फिर जड़ें मिल जाती हैं; फिर हरा हो जाता है, फिर रसधार बहती है, फिर फूल खिलते हैं, फिर पक्षी गीत गाते है, फिर चांद-तारों से मिलन होता हैं।

परमात्मा से प्रेम का अर्थ है कि इस समग्र अस्तित्व के साथ मैं अपने को जोड़ता हूं। मैं इससे अलग-अलग नहीं जिऊंगा, अपने को भिन्न नहीं मानूंगा। अपने को पृथक मानकर नहीं अपनी जीवन-व्यवस्था बनाऊंगा। मैं इसके साथ एक हूं। इसकी जो नियति है वही मेरी नियति है। मैं इस धारा के साथ बहूंगा, तैरूंगा नहीं। यह जहां ले जाए! यह डुबा दे तो डूब जाऊंगा। ऐसा समर्पण परमात्म प्रेम का सूत्र है। खाली मत जाना।

मैकशों ने पीके तोड़े जाम-ए-मै
हाये वो सागर जो रक्खे रह गए।

ऐसे ही रक्खे मत रह जाना। पी लो जीवन का रस। तोड़ चलो ये प्यालियां। और उसकी नजर एक बार तुम पर पड़ जाए और तुम्हारा जीवन रूपांतरित हो जाएगा।

लाखों में
इंतिखाब के काबिल बना दिया।
जिस दिल को
तुमने देख लिया दिल बना दिया।।

जरा रखो उसके चरणों में। जरा झुको। एक नजर उसकी पड़ जाए, एक किरण उसकी पड़ जाए, और तुम रूपांतरित हुए। लोहा सोना हुआ। मिट्टी में अमृत के फूल खिल जाते हैं।

आखिरी जाम में क्या बात थी
ऐसी साकी।
हो गया पी के जो खामोश
वो खामोश रहा।

यहां तुमने बहुत तरह के जाम पीए। आखिरी जाम - उसकी मैं बात कर रहा हूं।

आखिरी जाम में क्या बात थी
ऐसी साकी।
हो गया पी के जो खामोश
वो खामोश रहा।

उसको पी लोगे तो एक गहन सन्नाटा हो जाएगा। सब शांत, सब शून्य, सब मौन। भीतर कोई विचार की तरंग भी नहीं उठेगी। उसी निस्तरंग चित्त को समाधि कहा है। उसी निस्तरंग चित्त को बोध होता है, मैं कौन हूं।

मैं किसी और ही प्रेम की बात कर रहा हूं, तुम किसी और ही प्रेम की बात सुन रहे हो। मैं कुछ बोलता हूं, तुम कुछ सुनते हो। यह स्वाभाविक है शूरू-शुरू में। धीरे-धीरे बैठते-बैठते मेरे शब्द मेरे अर्थों में तुम्हें समझ में आने लगेंगे। सत्संग का यही प्रायोजन है। आज नहीं समझ में आया, कल समझ में आएगा, कल नहीं तो परसों।

सुनते-सुनते...। कब तक तुम जिद करोगे अपने ही अर्थ की? धीरे-धीरे एक नए अर्थ का आविर्भाव होने लगेगा।

मेरे पास बैठकर तुम्हें एक नई भाषा सीखनी है। एक नई अर्थव्यवस्था सीखनी है। एक नई भाव-भंगिमा, जीवन की एक नई मुद्रा! तुम्हारे ही शब्दों का उपयोग करूंगा, लेकिन उन पर अर्थों की नई कलम लगाऊंगा। इसलिए जब भी तुम्हें मेरे किसी शब्द से अड़चन हो तो खयाल रखना, अड़चन का कारण तुम्हारा अर्थ होगा, मेरा शब्द नहीं। तुम भी कोशिश करना कि मेरा अर्थ क्या है। तुम अपने अर्थों को एक तरफ सरकाकर रख दो। तुम तत्परता दिखाओ मेरे अर्थ को पकड़ने की। और तत्परता दिखाई तो घटना निश्चित घटने वाली है।

साभार- नाम सुमिर मन बावरे से
सौजन्य- ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi