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प्रवासी कविता : पतंग पंछी और मकर संक्रांति

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पुष्पा परजिया

आई खिचारहाई कहीं देश के एक कोने में कहते लोग इसे खिचारहाई,
कहीं कहते मकर संक्रांति तो कहीं पतंगबाजी के लिए होती इसमें बेटियों की पहुनाई (मेहमाननवाजी)।
 
अपना देश का पश्चिम का भाग जो हल्दी कुमकुम से सुहागिनों का करता गोदभराई,
बच्चे-बूढ़े खुश हो जाते जब बनती घर-घर तिल की मिठाई।
 
कहीं चटकी तिल तो कहीं गुड़ और मुरमुरे की जम गई ऐसी मिठाई,
जिसकी स्वाद की बात तो भैया खाए बिन न कही जाए।
 
पतंग कहीं बसंती कहीं लाल, नीली व पीली लहराई, उमंग अनोखी दिखे हर मानव में कि,
इस प्यारे से त्योहार की जो रौनक है भाई, हमसे तो न कही जाए।
 
किसी के हाथ पतंग, सबके साथ पतंग और कहीं थालों में सजी है मिठाई,
सब जाए घर के ऊपर की छत पर और हवा में सबकी है पतंग लहराई।
 
झूम उठा है खुशी से मेरा मन जब देखूं सबको खुश और मगन,
खिचारहाई के संग तब न जाने कहां से एक बात है मेरे मन में आई।
 
रक्षा करियो हे ईश्वर तुम पतंग की डोर से इन पक्षियों की तो है बन आई, 
डर के मारे बाहर न निकले वो अपने घरों से दाना कैसे चुगेंगे, भूखे वो मर जाएंगे,
बाहर निकले तब तो उनकी गर्दन ही कट जाएगी।
 
बिनती इतनी करना चाहूं दिन है ये पुण्य कमाने का,
भूल से पंछी के लहू से न खुशी न मनाना, वरना जीवनभर पछतावा रह जाएगा।
 

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