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'उधार लो घी पियो' का मूल मंत्र

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-डॉ. मंगल मिश्र
भारत के वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम द्वारा सदन पटल पर पेश किया गया बजट-2008 पूर्णतः चुनावी बजट है। पिछले कुछ सालों से भारतीय किसान लगातार आत्महत्याएँ कर रहे हैं। सही समय पर उनकी सुध न लेते हुए अब किसानों का ऋण माफ करना मृतक को गंगाजल चढ़ाने जैसा है।

पी. चिदम्बरम को भले ही संक्षेप में पीसी कहा जाता हो लेकिन वे पीसी अर्थात 'पुराने चतुर' सिद्ध हुए हैं। उनके बजट में हार्वर्ड का प्रबंध विद्वान और चेन्नई के अर्थशास्त्र के स्थान पर दिल्ली की चुनावी चतुराई दिखाई देती है। उनका सातवाँ बजट कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, आधारभूत ढाँचा, ऊर्जा और रक्षा का ऐसा सरगम प्रतीत होता है जिसे राग चुनाव और विराग अर्थशास्त्र कहा जा सकता है।

पीसी ने हलवाई की दुकान पर भोग लगाकर मतदाता कृषक भगवान को खुश करने के लिए सार्वजनिक धन पर कुर्सी घुमा दी है। प्रबंध के अर्थशास्त्र के सभी छात्र यह तथ्य जानते हैं कि इस प्रकार की ऋण माफी के कारण गुणात्मक प्रभाव होता है, इससे बैंकों की वित्त व्यवस्था चरमरा जाएगी। वित्तमंत्री साहब ने बैंकों को ग्रामीण क्षेत्र में और अधिक खाते खोलने के लिए निर्देशित करके भविष्य में भी इसी प्रकार की चुनावी चौपाल पर हुक्के गुड़गुड़ाने की संभावनाएँ उपस्थित कर दी हैं। उन्हें लगता है कि चार करोड़ किसान उन्हें आठवाँ बजट पेश करने में मदद देंगे।

अपने इस बजट में वित्तमंत्री ने शिक्षा के लिए उन्होंने बहुआयामी प्रयत्न किए हैं। लेकिन बजट का निरीक्षण करने पर लगता है कि क्या अश्वत्थामा को आटे में पानी घोलकर पीने से ही संतोष करना पड़ेगा? पूरे बजट में उच्च शिक्षा को गरीबों की पहुँच में बनाए रखने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया। शिक्षा और स्वास्थ्य को बाजार बनने से रोकने की कोई दृष्टि इस बजट में कहीं भी नजर नहीं आती।
पीसी चाहते तो देश में तेजी से बढ़ रहे बाजार रूपी शैक्षणिक संस्थानों पर कोई लगाम कसकर शासकीय शिक्षण संस्थानों की माली हालत सुधारने का प्रयत्न कर सकते थे। शायद वे भूल गए हैं कि चपरासी तो तीन हजार रुपए मासिक न्यूनतम वेतन से अधिक प्राप्त करता है लेकिन कई शिक्षकों की मासिक आय चार अंकों में भी नहीं है। शिक्षा के विकास के लिए शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों को केंद्र में रखना जरूरी है।

बजट को देखकर महसूस होता है कि चुनावी साल के कारण वित्तमंत्री पुराने मध्यकालीन भेदभावपूर्ण और फूट डालकर राज करने के अंग्रेजयुगीन वातावरण से उच्च शिक्षा को भी सराबोर करना चाहते हैं। शिक्षा सुविधा को भी जातिगत साँचों में ढाला गया है। गरीब छात्रों के लिए खास प्रावधान नहीं किए गए।

स्वास्थ्य के लिए पंद्रह प्रतिशत व्यय बढ़ा दिया गया है। इससे धन की कमी का बहाना तो खत्म हो जाएगा, लेकिन गुणवत्ता सुनिश्चित होना आवश्यक नहीं। पेयजल के लिए सत्तर हजार दो सौ करोड़ रुपए का प्रावधान तो स्वागत योग्य है लेकिन पर्यावरणीय हितों को ध्यान में रखते हुए छोटे बाँध बनाने, नदियों को जोड़ने और बोतल बंद पानी के बाजार को खत्म करके प्याऊ संस्कृति विकसित करने की भारतीय दृष्टि बजट में दिखाई नहीं देती।

भारत निर्माण के लिए ३१ हजार २८० करोड़ का प्रावधान है। पीसी यह भूल गए कि देश में सारा झगड़ा भारत औऱ इंडिया के बीच ही है। उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि इस निर्माण के लाभ भारत को मिले पहले से संपन्न इंडिया की झोली में न चले जाएँ। अमीर-गरीब की गहरी खाई में बँटे इस देश को यूँ भी आधे सोने का नेवला माना जाता है। आधे सोने का नेवला कहीं सोने के घनत्व को और न बढ़ा ले इस बात का ध्यान नहीं रखा गया है।

बजट के अनुसार सेवा और निर्माण के क्षेत्र में विकास दर सबसे अधिक है तो क्या भविष्य में भारत कृषि प्रधान देश नहीं रह पाएगा? हम खाद्यान्न का निर्यात तो करते हैं फिर वित्त मंत्री खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने का अब भी लक्ष्य क्यों बता रहे हैं?

गोबर से गेहूँ बीनकर जीवन यापन करने वाली देश की 24 प्रतिशत गरीब जनता के लिए चमकीली प्रगति एक क्रूर मजाक है जो शरीर औऱ आत्मा को साथ में ही न रख पा रहे हैं उन गरीब मजदूरों के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के साथ भोजन आहार की योजना शुरू की जा सकती थी।

महिलाओं के लिए सोलह हजार दो सौ करोड़ रुपए का प्रावधान भी चुनावी हथकंडा है। पूरा बजट चुनाव को ध्यान में रखकर बनाया गया है जिसके दूरगामी परिणाम काफी नुकसानदेह होंगे। इस बार आम उपभोग के सामान की जगह छोटी कार, सैट टॉप बाक्स आदि को सस्ता किया गया है। जैसे वित्तमंत्री चाहते हैं कि बैंक से कर्ज लो कार खरीदो, टीवी देखो और कर्ज चुकाने की चिंता छोड़ दो?

इसके साथ ही कंपनी करों की दर में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। व्यक्तिगत कर दाताओं के लिए चालीस हजार रुपए की कर मुक्ति सीमा बढ़ाना तो स्वागत योग्य है, लेकिन वेतनभोगी कर्मचारियों के लिए मानक कटौती पुनः शुरू की जाना थी। साथ ही विनियोग पर एक लाख रुपए की कटौती को बढ़ाकर कम से कम दो लाख किया जाना था ताकि पूँजी निर्माण व निवेश को प्रोत्साहन मिल सके। कमोडिटी टैक्स लगाकर मूल्य वृ‍द्धि की आग में घी डालने का काम किया गया है और अल्पकालीन पूँजी लाभ पर कर बढ़ाकर सट्टात्मक प्रवृति को नियंत्रित करने का स्वागत योग्य कदम उठाया गया है।

कुल मिलाकर चिदंबरम ने सभी मोर्चों पर चुनावी रंग की ऐसी फुहार छोड़ी है जिसका सतंरगी माहौल आगे आने वाले चुनाव की वैतरणी से उन्हें पार भले ही न करा सके लेकिन पार होने की मृगतृष्णा अवश्य पैदा कर सकता है। लेकिन जब तक विकास के लाभ अंतिम आदमी के झोपड़े तक नहीं पहुँचेगा तब तक मंत्री चिदंबरम और जनता दिगंबरम बनी रहेगी? (लेखक श्री क्लॉथ मार्केट कॉमर्स कॉलेज इंदौर के प्राचार्य हैं)
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