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कश्मीर में शांति वार्ता की सफलता पर संदेह

हमें फॉलो करें कश्मीर में शांति वार्ता की सफलता पर संदेह

सुरेश एस डुग्गर

श्रीनगर। पेंचीदा हो चली कश्मीर समस्या को वार्ता से सुलझाकर शांति लाने की केंद्र सरकार की ताजा कोशिश का क्या हश्र होगा यह तो आने वाला वक्त ही बता पाएगा लेकिन अतीत की ऐसी बीसियों कोशिशें नाकामी का मुंह देख चुकी हैं। इस सच्चाई से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है।
 
सबसे पहली कोशिश वर्ष 1990 में उस समय आरंभ हुई थी जब एक साल पहले कश्मीर में आतंकवाद ने अपने पांव पसारे थे। तब कश्मीर में शांति लाने का प्रयास मार्च 1990 में राजीव गांधी के नेतृत्व में कश्मीर आए एक प्रतिनिधिमंडल ने किया था।
 
उसके बाद तो ऐसे प्रयासों का जो क्रम आरंभ हुआ वह अनवरत रूप से जारी है पर कोई भी प्रयास कामयाबी का मुंह नहीं देख पाया है। राजीव गांधी के दौरे के तुरंत बाद केंद्र सरकार ने अलगाववादियों को वार्ता की मेज पर लाने के लिए बैक चैनल्स से मनाते हुए दो और प्रयास किए।
 
पहला औपचारिक प्रयास अप्रैल 2001 में पूर्व केंद्रीय मंत्री केसी पंत के नेतृत्व में उस समय हुआ जब उन्हें केंद्र सरकार ने पहला आधिकारिक वार्ताकार नियुक्त किया। हालांकि अलगाववादी नेताओं ने केसी पंत से मिलने से इंकार कर दिया था, पर अलगाववादी नेता शब्बीर अहमद शाह ने जरूर उनसे कश्मीर मसले को सुलझाने की खातिर मुलाकात कर अपने सुझाव दिए थे। तब शब्बीर हुर्रियत कॉन्‍फ्रेंस में शामिल नहीं हुए थे। इन मुलाकातों और पहले वार्ताकार के प्रयास कोई नतीजा नहीं दे पाए तो वर्ष 2002 में उन्हें बंद कर दिया गया।
 
हालांकि जिस साल वर्ष 2002 में केसी पंत ने वार्ताकार के रूप में अपने प्रयास रोक दिए थे तब वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी के नेतृत्व में अगस्त 2002 में आठ सदस्यीय कश्मीर कमेटी ने जन्म लिया जिनका मकसद भी अलगाववादियों को वार्ता की मेज पर लाना था।
 
इस कमेटी में तब सुप्रीम कोर्ट के वकील अशोक भान, पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण, पत्रकार दिलीप पडगांवकर व एमजे अकबर, पूर्व आईएफएस अधिकारी वीके ग्रोवर तथा कानूनविद फाली नारीमन भी शामिल थे। शायद यह कश्मीरियों की बदकिस्मती रही थी कि यह कमेटी भी संबंधों पर जमीं हुई बर्फ को नहीं तोड़ पाई थी और कमेटी का स्थान राज्यपाल नरेंद्रनाथ वोहरा ने ले लिया। पूर्व गृह सचिव रहे एनएन वोहरा ने तब फरवरी 2003 में वार्ताकार का पद संभाला था।
 
एनएन वोहरा भी कोई तीर नहीं मार पाए थे क्योंकि उनकी कोशिशों को उस समय धक्का लगा था जब अलगाववादी नेता प्रधानमंत्री के सिवाय किसी और से बात करने को राजी नहीं थे। वोहरा की नाकामी के बाद भी कश्मीर में वार्ता के जरिए शांति लाने के प्रयासों का सिलसिला केंद्र सरकार द्वारा जारी रखा गया था। उनके बाद भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण जेटली को वार्ताकार नियुक्त किया गया। रॉ के पूर्व चीफ एएस दुल्लत को भी इसमें शामिल कर लिया गया था लेकिन नजीता फिर वही ढाक के तीन पात वाला ही था।
 
कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की वर्ष 2002 में गोलमेज कॉन्‍फ्रेंस में अलगाववादियों को शामिल करने की कोशिश के नाकाम रहने के बाद तो अलगाववादी जैसे अड़ियल हो गए थे, जिन्होंने उसके बाद किसी भी वार्ताकार की कोशिशों को कामयाब ही नहीं होने दिया।
 
इतना जरूर था कि इन कोशिशों के कई साल बाद वर्ष 2010 में जब कई महीनों तक चले आंदोलन में 120 से अधिक आम नागरिक सुरक्षाबलों की गोलियों से मारे गए थे तो केंद्र सरकार ने दिलीप पैडगांवकर, एमएम अंसारी और प्रो राधा कुमार को वार्ताकार नियुक्त कर कश्मीर सुलझाने की ताजा कोशिश की थी।
 
इस दल ने अपने दौरों और मुलाकातों के बाद अपनी रिपोर्ट तो केंद्र सरकार के पास जमा करवा दी थी लेकिन न ही कांग्रेस सरकार और न ही भाजपा सरकार ने उन रिपोर्टों को रोशनी दिखाने की कोशिश तक नहीं की है। तो ऐसे में अब सवाल यही उठ रहा है कि ताजा वार्ताकार की नियुक्ति क्या वाकई संबंधों पर जमीं हुई बर्फ को तोड़ पाएगी और क्या वह कश्मीर को सुलझा पाएंगे।

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