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भारत के रहस्यमयी अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के खतरनाक आदिवासी, जानकर हैरान रह जाएंगे

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भारत का केंद्र शासित राज्य अंडमान-निकोबार द्वीप समूह 200 सालों तक ब्रिटिश राज में रहा था। इस दौरान अंग्रेज सरकार विद्रोहियों और खतरनाक अपराधियों को यहां की सेलुलर जेल भेज देती थी जिसे भारतीय 'कालापानी' के नाम से जानते हैं। अंडमान-निकोबार में 572 द्वीप हैं और इनमें से 37 द्वीप समूह में ही जनसंख्या है, बाकी खाली पड़े हैं। यहां के आदिवासी हमेशा चर्चा में रहे हैं। आओ जानते हैं उनके बारे में सबकुछ।
 
 
यहां पर अफ्रीका और भारत के कई जनजातीय और आदिवासी समूह रहते हैं। केंद्र सरकार ने खासकर जारवा जनजाति और उनके क्षेत्र को 1956 के एक कानून के हिसाब से संरक्षित घोषित कर रखा है और जिसमें अनधिकृत लोगों के प्रवेश करने की मनाही है। भारतीय प्रशासन इस समुदाय को अपनी तरह से जीने का अधिकार देता है। शिकार कर अपना पेट पालने वाले जारवा लोगों के लिए द्वीप समूह पर जारवा रिजर्व क्षेत्र बने हैं।
 
 
इसके बावजूद पर्यटक लोग स्थानीय शहरी लोगों या मछुआरों को पैसा देकर उनके क्षेत्र में अनधिकृत प्रवेश करते हैं। प्रवेश करने के कई कारण हो सकते हैं। पहला यह कि उन्हें कहीं से यह मालूम होता है कि यहां के आदिवासी लोग 'अजूबा' हैं। इसीलिए वे उन्हें देखने के लिए जाते हैं। दूसरा यह कि कुछ पर्यटक उनकी और उनके क्षेत्र की फोटोग्राफी के लिए जाते हैं। हालांकि देखने में यह भी आया है कि कुछ लोग उनका धर्मांतरण करने के प्रयास के तहत भी वहां जाने लगे हैं। एक अनुमान के मुताबिक हर साल यहां तकरीबन 2 लाख पर्यटक आते हैं।
 
 
हाल ही में 27 साल के एक अमेरिकी जॉन एलिन शाओ मछुआरों की मदद से वहां जा घुसा था। जंगल में वहां के आदिवासियों ने उस पर तीरों से हमला किया जिसके चलते उसकी मौत हो गई। बताया जाता है कि जॉन अमेरिका के अल्बामा के निवासी थे। धर्मान्तरण के उद्देश्य से ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए कई बार अंडमान आते रहते थे। पुलिस ने हत्या का मुकदमा दर्ज किया है और 7 आरोपियों को इस मामले में गिरफ्तार भी किया गया है। वरिष्ठ पुलिस अधिकारी दीपक यादव ने बयान जारी कर कहा है, 'इस मामले में जांच जारी है।' शाओ ने हाल के दिनों में कई बार अंडमान का दौरा किया था और स्थानीय मछुआरों को पैसे देकर आखिरकार इस सुदूर इलाके में जाने में वह सफल हुआ।
 
 
इससे पहले यहां ब्रिटिश अखबार के एक वीडियोग्राफर ने इन आदिवासियों को खाने का लालच देकर उनके नग्न नृत्य का एक वीडियो बना लिया था। इस वीडियो में आदिवासी महिलाओं का नग्न नृत्य था। उस समय के भारत के केंद्रीय आदिवासी मंत्री वी. किशोर चन्द्रदेव ने इस पूरी घटना को बेहद शर्मनाक बताया था और उन पर्यटकों के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज की गई थी। ब्रिटेन के 'ऑब्जर्वर' अखबार ने इस वीडियो को जारी कर दिया था जिसकी दुनियाभर में चर्चा हुई थी।
 
 
खतरनाक है यहां के आदिवासी समूह : अंडमान-निकोबार में एक समय मूल जनजातियों के 6 से 7 समूह पाए जाते थे- जारवा, ओन्गे, ग्रेट अंडमानीज, सेंटेनेलीज, शोम्पेंस और बो। आज इनमें से सिर्फ 4 ही जनजाति समूह बचे हैं। सेंटिनल द्वीप पर आज भी हजारों साल पुराना इंसानी कबीला रहता है।
 
जारवा जनजाति मानव सभ्यता की सबसे पुरानी जनजातियों में से एक है, जो हिन्द महासागर के टापुओं पर पिछले हजारों वर्षों से निवास कर रही है। यह अभी भी पाषाण युग में जी रही है। कहते हैं कि ये 50,000 वर्ष पहले अफ्रीका से यहां पहुंचे थे। यह जनजाति दक्षिणी अंडमान में रहती है। जंगली भी जारवा जनजाति के ही वंशज हैं लेकिन रुटलैंड द्वीप की वजह से ये उनसे थोड़े कटे हुए हैं। ओन्गे जनजाति के लोगों का मुख्य काम शिकार और खाने की तलाश करना है। शोम्पेंस लोग निकोबार के मूल निवासी हैं। ये निकोबार द्वीप के मध्य में बसते हैं। सेंटेनेलीज जनजाति का संपर्क बाहरी दुनिया से बिलकुल भी नहीं है। ये अंडमान के मूल निवासी हैं। ये दुनिया की सबसे खतरनाक जनजातियों में से एक है।
 
 
सबसे खतरनाक जारवा आदिवासी : द्वीप में रहने वाली जारवा जनजाति काफी खतरनाक मानी जाती है। जारवा लोग आमतौर पर गहरे काले रंग के होते हैं। जारवा आदिवासियों का बाहरी दुनिया से कोई संपर्क नहीं है। वहां पहुंचने की कोशिश करने वालों पर कबीला हमला भी करता है। इस जनजाति के लोग न तो किसी बाहरी व्यक्ति के साथ संपर्क रखते हैं और न ही किसी को खुद से संपर्क रखने देते हैं। अंडमान में 400 से ज्यादा जारवा समुदाय के लोग रहते हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि उन्हें बाहरी लोगों से डर लगता है।
 
 
जारवा जनजाति इलाके से केवल एक अंडमान ट्रंक रोड गुजरती है। इलाके में जाने के लिए गाड़ियां लगातार एकसाथ बिना रुके गुजरती हैं और किसी भी गाड़ी को रुकने की इजाजत नहीं है। जारवा इलाके में जाते वक्त सेना की गाड़ियां भी आगे-पीछे चलती है, क्योंकि जारवा लोग कभी भी पर्यटकों पर अपने भालों, धनुष आदि से आक्रमण कर सकते हैं।
 
जारवा लोगों के संरक्षण के लिए दिसंबर 2004 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने ट्राइबल अफेयर्स मंत्रालय और अंडमान निकोबार प्रशासन के साथ मिलकर एक नीति बनाई थी। जंगल से मिलने वाली तमाम परंपरागत चीजों के संरक्षण में जारवा समुदाय की अहम भूमिका को देखते हुए उनके रिजर्व क्षेत्र को 847 वर्ग किलोमीटर से बढ़ाकर 1,028 वर्ग किलोमीटर किया गया। इसी द्वीप समूह पर ग्रेट अंडमानीज, ओंगे, सेंटिनेलीज और शोम्पेंस जैसे संख्या में बेहद कम हो चुके संकटग्रस्त जनजातीय समूह के लोग भी रहते हैं।
 
 
मानवशास्त्री कहते हैं कि तकरीबन 50,000 सालों से मुख्य समाज से कटकर जंगल के बीच रह रहे ये आदिवासी बेहद ही खतरनाक हैं। हालांकि पर्यटकों के कारण इनकी मुसीबतें बढ़ रही हैं। इनके पास इनके खुद के बनाए हुए बेहद ही खतरनाक तीर और कमान हैं। ये अपने क्षेत्र में घुसने वाले किसी भी व्यक्ति को छोड़ते नहीं हैं।
 
जारवा की लाइफस्टाइल : जारवा जनजाति का प्रिय भोजन सूअर का मांस है जिसके लिए वो समूह में शिकार करते हैं। ये लोग आज भी धनुष-बाण से मछली, सूअर और केकड़ों का शिकार करते हैं। जारवा पुरुष और महिलाएं ऊंचे-ऊंचे पेड़ों से शहद इकट्ठा कर उसे भोजन के रूप में इस्तेमाल करते हैं। कहते हैं कि इन्हें 150 से ज्यादा पेड़-पौधों और 250 से ज्यादा जानवरों की प्रजातियों का ज्ञान है। सन् 1998 में पहली बार जारवा बिना धनुष-बाण के अपने इलाके से बाहर शहरों में आए थे। सन् 1990 में जारवा जनजाति को स्थानीय सरकार ने घर बनाकर रहने की सुविधा दी थी लेकिन कुछ ही जारवा अपने क्षेत्र से बाहर आए। ये अपने क्षेत्र में किसी भी प्रकार की दखलअंदाजी बर्दाश्त नहीं करते हैं। जारवा जनजाति से लोग आज भी बिना कपड़ों के ही रहते हैं लेकिन हाले ही के वर्षों में बाहरी आबादी के ज्यादा आगमन से लोग उन्हें कपड़े देते हैं, तो वे पहन लेते हैं। इन लोगों को गाने और नाचने का बहुत शौक है।
 
 
कहते हैं कि बाहरी लोगों के संपर्क में आकर ये शराब पीना तथा पान और तम्बाकू खाना सीख गए हैं। यह जनजाति अब बाहरी दुनिया के लोगों के संपर्क में आ रही है। लेकिन अगर इनके किसी बच्चे का रंग इनसे मिलता-जुलता नहीं दिखता तो ये उसे मार डालते हैं। जनजाति की यह भी परंपरा है कि अगर कोई विधवा मां बनती है या बच्चा किसी बाहरी शख्स का लगता है तो वे उसे मार देते हैं। ऐसे कई मामले लगातार सामने आते रहे हैं लेकिन पुलिस को इसमें दखल न देने का आदेश है।
 
 
झारखंड के आदिवासी भी रहते हैं यहां :
अंडमान निकोबार में इसके अलावा और भी जनजातीय समूह रहते हैं। निर्माण कार्य और सड़क बनाने के उद्देश्य से 1918 के आसपास अंग्रेजों ने झारखंड के सिमडेगा, खूंटी, गुमला, चाईबासा, रांची, छोटा नागपुर सहित कई इलाकों से सैकड़ों आदिवासियों को अंडमान-निकोबार ले जाकर बसाया था। झारखंड के इन आदिवासियों ने समुद्र के बीचोबीच इस भू-भाग को सुंदर बनाया और आम लोगों के आने का यहां रास्ता खोला था। एक अनुमान के मुताबिक यहां पर झारखंड के उरांव, लोहरा, मुंडा, खरिया आदि आदिवासी समूह निवास करते हैं, जो कि हजारों की संख्‍या में हैं।
 
 
राजधानी पोर्ट ब्लेयर से आगे बढ़ने पर फेरारगंज, रामनगर, बाराटांग और जिरकाटांग में इन लोगों की बस्तियां देखने को मिलती हैं। पोर्ट ब्लेयर से 100 किमी दूर बाराटांग में भी झारखंडी आबादी है। राधानगर, हैवलॉक, निकोबार में भी झारखंडियों ने अपनी मेहनत से पहचान बनाई है।
 

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