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जानिए क्यों है समुद्र में भारतीय पनडुब्बियों की धाक...

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नई दि​ल्ली , रविवार, 19 नवंबर 2017 (11:44 IST)
नई दि​ल्ली। कभी अंग्रेजों द्वारा 'नादान और अपरिपक्व' करार देकर पनडुब्बी की ताकत से वंचित रखी गई भारतीय नौसेना ने लंबा सफर तय करते हुए अपनी अत्याधुनिक परमाणु पनडुब्बी बनाकर न केवल दुनिया के चुनिंदा देशों में जगह बनाई है बल्कि वह हिन्द प्रशांत क्षेत्र में एक बड़ी समुद्री ताकत बनकर उभरी है।
 
पचास साल पहले 08 दिसम्बर 1967 को रूस से खरीदी गई पहली पनडुब्बी आईएनएस कलवरी के साथ देश की विशाल समुद्री सीमाओं की निगरानी का नया अध्याय शुरू करने वाली नौसेना आज अत्याधुनिक पनडुब्बियों से लैस है और पनडुब्बी शाखा के गौरवमयी इतिहास की स्वर्ण जयंती मना रही है।
 
यह भी संयोग ही है कि लगभग तीन दशक की सेवा के बाद 1996 में विदा हुई देश की पहली पनडुब्बी आईएनएस कलवरी इसी साल नए अवतार में एक बार ​फिर नौसेना बेड़े में शामिल हो रही है और समुद्र की गहराइयों में भारत का परचम लहराने के लिए तैयार है। इससे यह बात पूरी तरह चरितार्थ हो जाती है कि पनडुब्बियों को इतिहास से मिटाया नहीं जा सकता, क्योंकि उनके नाम अनंतकाल तक चलते रहते हैं।
 
अभी नौसेना बेड़े में अरिहंत जैसी देश में बनी अत्याधुनिक परमाणु पनडुब्बी तथा रूस से ली गई आईएनएस चक्र के अलावा 13 परंपरागत पनडुब्बियां शामिल हैं। फ्रांस के सहयोग से स्कोर्पिन श्रेणी की उन्नत प्रौद्योगिकी और हथियार प्रणालियों से लैस छह पनडुब्बियां देश में ही बनाई जा रही हैं।
 
नौसेना को पनडुब्बी की ताकत हासिल करने के लिए शुरुआती दिनों में बड़ी जद्दोजहद करनी पड़ी थी। दरअसल 1947 में देश तो आजाद हो गया लेकिन हमारी नौसेना की बागडोर 1958 तक अंग्रेज अफसरों के हाथ में ही थी। भारत की भू राजनीतिक स्थिति, लंबी समुद्री सीमा और बढ़ते समुद्री व्यापार को देखते हुए जब नौसेना के भारतीय अधिकारियों ने अंग्रेज नौसेना प्रमुख से नौसेना को पनडुब्बियों से लैस करने का सुझाव दिया तो उन्होंने इसे यह कहते हुए इसे दरकिनार कर दिया कि भारतीय नौसेना अभी 'काफी युवा और अपरिपक्व' है।
 
उनका कहना था कि पनडुब्बी संवेदनशील और खतरनाक ​हथियार प्रणाली है जिससे कभी भी हादसा हो सकता है और भारतीय नौसेना इस तरह की स्थितियों से निपटने में सक्षम नहीं है तथा किसी अनहोनी की स्थिति​ में उसका आत्मबल डगमगा जायेगा। उसके पास पनडुब्बी संचालन से जुड़ी ढांचागत सुविधाएं भी नहीं हैं। 
 
ग्यारह वर्षों के इंतजार के बाद 1958 में वाइस एडमिरल आर डी कटारी को नौसेना की बागडोर सौंपी गयी जो उसके पहले भारतीय प्रमुख बने। इसके साथ ही नौसेना को पनडुब्बी हथियार प्रणाली की ताकत से लैस करने की कवायद भी शुरू हो गई।
 
सरकार ने पहले तो नौसेना के प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में डाल दिया, लेकिन 1962 में चीन के साथ युद्ध ने देश की रक्षा तैयारियों की पोल खोल दी जिसके तुरंत बाद सरकार ने नौसेना के प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार किया। हरी झंडी मिलने के बाद भारतीय परिस्थितियों और जरूरत को ध्यान में रखते हुए शुरू में तीन पनडुब्बी खरीदने पर सहमति बनी। इसके लिए अमेरिका, रूस, जर्मनी और ब्रिटेन की पनडुब्बियों का आकलन किया गया।
 
लंबे समय तक रॉयल नेवी के तहत रही भारतीय नौसेना के लिए ब्रिटेन को नजरंदाज कर किसी और से पनडुब्बी खरीदने का निर्णय काफी कठिन था, लेकिन ब्रिटेन द्वारा अपनी ओबेरान पनडुब्बी बेचने से इंकार कर देने के बाद भारत के लिए राह आसान हो गई। रूस, अमेरिका और जर्मनी के विकल्पों पर विचार करने के बाद अंतत रूस से 1965 में फोक्सट्रोट श्रेणी की तीन पनडुब्बी खरीदने का समझौता किया गया। उस समय एक पनडुब्बी की कीमत 03 करोड़ रुपए थी और इसके लिए भारत ने दस वर्ष की अवधि के लिए ऋण लिया। समझौते में रूस को भारत के लिए तीन और पनडुब्बी बनानी थी और आगे चलकर कुछ युदधपोतों की भी आपूर्ति करनी थी।
 
भारतीय नौसेना को आठ दिसम्बर 1967 को आईएनएस कलवरी के रूप में पहली पनडुब्बी मिली। इसके दो वर्ष के अंदर उसे आईएनएस खंडेरी, करंज और कुरसुरा तीन पनडुब्बियां मिली जिससे पनडुब्बी शाखा निरंतर मजबूत होती चली गयी। भारत को इसका फायदा भी तुरंत मिला और पाकिस्तान के साथ 1971 की लड़ाई में नौसेना ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नौसेना ने पाकिस्तान में कराची बंदरगाह को घेरकर पाकिस्तान की रणनीतिक चालों को नाकामयाब कर दिया।
 
भारत-पाकिस्तान लड़ाई के दौरान नौसेना को उस समय परमाणु पनडुब्बी की कमी खली जब अमेरिका ने भारत को डराने के लिए परमाणु पनडुब्बी यूएसएस इंटरप्राइज की अगुवाई में अपने 7 वें बेड़े को बंगाल की खाड़ी में भेज दिया। उस समय हालांकि रूस ने दोस्ती निभाते हुए मिसाइलों से लैस अपनी परमाणु पनडुब्बी को अमेरिकी बेड़े के पीछे लगा दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1970 के दशक के अंत में नौसेना को परमाणु पनडुब्बी से लैस करने की योजना बनाई जिसमें 1987 में रूस ने भारत को चार्ली -1 श्रेणी की पहली परमाणु पनडुब्बी आईएनएस चक्र लीज पर दी जो तीन वर्ष तक नौसेना में सेवा में रही और उसके बाद उसे लौटा दिया गया।
 
पनडुब्बी शाखा को निरंतर मजबूती प्रदान करने के प्रयासों और धीरे-धीरे पुरानी हो रही फोक्सट्रोट श्रेणी की पनडुब्बियों की जगह नौसेना ने 10 नई पनडुब्बियों को बेड़े में शामिल करने का निर्णय लिया। इसके तहत रूस से ली गई किलो श्रेणी की पहली पनडुब्बी आईएनएस सिंधुघोष को 1986 में नौसेना में शामिल किया गया। इसके बाद 1991 तक सिंधुध्वज, सिंधुवीर, सिंधुराज , सिंधुरत्न , सिंधुकीर्ति , सिंधुकेसरी और सिंधुध्वज सात पनडुब्बियों को भारतीय नौसेना के ध्वज के नीचे लाया गया।
 
नौसेना के पनडुब्बी अभियान को वर्ष 2010 में उस समय ठेस पहुंची जब 1997 में बेड़े में शामिल की गई आईएनएस सिंधुरक्षक में आग लगने और विस्फोट के कारण 18 नौसैनिकों को जान गंवानी पड़ी। दसवीं पनडुब्बी आईएनएस सिंधुराष्ट्र को वर्ष 2000 में बेड़े में शामिल किया गया।
 
इस बीच भारत ने स्वदेशी परमाणु पनडुब्बी आईएनएस अरिहंत बनानी शुरू कर दी और वर्ष 2009 में इसे लांच करने के बाद लंबे समय तक चले गहन समुद्री परीक्षणों के बाद यह पिछले वर्ष नौसेना के बेड़े में शामिल हो गई। इसके साथ ही भारत परमाणु पनडुब्बी बनाने की क्षमता रखने वाले दुनिया के पांच चुनिंदा देशों की श्रेणी में शामिल हो गया। इससे पहले अरिहंत के समुद्री परीक्षणों में लग रहे लंबे समय को देखते हुए भारत ने वर्ष 2012 में रूस से अकुला श्रेणी की पनडुब्बी लीज पर ली और उसे एक बार फिर आईएनएस चक्र के नाम से ही बेड़े में शामिल किया।
 
परमाणु पनडुब्बी के बेड़े को 25 की संख्या तक ले जाने तथा रूस से ली गयी किलो श्रेणी की पुरानी होती जा रही पनडुब्बियों की जगह लेने के लिए नौसेना ने फ्रांस के साथ स्कोर्पिन श्रेणी की छह पनडुब्बी देश में ही बनाने का करार किया। इन को शुरुआती पनडुब्बियों का ही नाम देने का निर्णय लिया गया है। इसके अनुरुप स्कोर्पिन श्रेणी की पहली पनडुब्बी को नौसेना की पहली पनडुब्बी आईएनएस कलवरी का ही नाम दिया गया है। आईएनएस कलवरी पनडुब्बी शाखा के स्वर्ण जयंती वर्ष यानी इसी साल नौसेना बेड़े में शामिल होने जा रही है जो एक तरह से इसका पुनर्जन्म होगा। इसके बाद हर साल एक नई पनडुब्बी नौसेना के बेड़े की शान बनेगी। (वार्ता) 

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