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असम में मुस्लिम वोटों से ही तय होगी ऊंट की करवट

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अनिल जैन

गुवाहाटी। आगामी दो महीनों में देश के जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं उनमें असम ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां भाजपा अपने दो क्षेत्रीय सहयोगी दलों के साथ सीधे मुकाबले में है। वह पिछले 15 साल से सत्तारुढ़ कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर पूर्वोत्तर में अपनी पहली सरकार बनाने के लिए जी-तोड़ कोशिश कर रही है। असम में आगामी 4 और 11 अप्रैल को मतदान होना है।
जिन पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं उनमें पश्चिम बंगाल और केरल के साथ ही असम ही ऐसा राज्य है, जहां मुस्लिम आबादी का प्रतिशत देश में जम्मू-कश्मीर के बाद सबसे ज्यादा है। 2011 की जनगणना के मुताबिक, पश्चिम बंगाल और केरल की कुल आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी 27-27 फीसदी है, जबकि पूर्वोत्तर के सबसे बड़े सूबे असम में यह 34 फीसदी है। यही वह तथ्य है, जो भाजपा की राह का रोड़ा बन सकता है।
 
हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव में वह अप्रत्याशित रूप से राज्य की 13 में से सात सीटों पर कब्जा जमाने में कामयाब रही थी, लेकिन उस समय माहौल अलग था। उस चुनाव में भाजपा को हिन्‍दू वोटों के ध्रुवीकरण और मुस्लिम वोटों के बंटवारे का फायदा मिला था। मुस्लिम वोटों के बंटवारे की वजह से ही मौलाना बदरुद्दीन अजमल का ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट तीन सीटें जीतने में कामयाब रहा था।
 
असम में चुनावी नतीजों पर असर डालने में मुस्लिम मतदाताओं की भूमिका हमेशा ही अहम रही है और इसी वजह से तरुण गोगोई लगातार तीन कार्यकाल पूरा करने में सफल हुए हैं। 2015 में पांच और इस साल दो नए जिलों के गठन के बाद असम में अब जो 34 जिले हैं उनमें से नौ- धुबरी, बरपेटा, ग्वालपाड़ा, दर्रांग, करीमगंज, हल्लाकांडी, मोरीगांव, नगांव व बोगाइगांव में मुसलमान बहुसंख्यक हैं। कांग्रेस अरसे से मुस्लिम वोटों को एक मुश्त बटोरती आ रही है।
 
हालांकि पिछले एक दशक में स्थिति बदली है। धुबरी से लगातार दूसरी बार सांसद बने इत्र व्यवसायी मौलाना बदरुद्दीन अजमल ने 2005 में यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट गठित कर मुसलमानों के बीच अपनी स्वतंत्र राजनीतिक पहचान बनाई। 2006 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी ने दस सीटें भी जीतीं। अजमल ने 2009 में अपनी पार्टी को ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट का नाम देकर मैदान में उतारा और अपने विधायकों की संख्या दस से बढ़ाकर 18 कर ली, लेकिन उसका चौंकाने वाला प्रदर्शन 2014 के आम चुनाव में रहा, जब उसने तीन लोकसभा सीटों पर कब्जा कर लिया।
 
इस बार मौलाना बदरुद्दीन अजमल अपनी सीटों की संख्या बढ़ाकर राज्य की राजनीति में अपनी हैसियत बढ़ाने की तैयारी में हैं। क्षेत्रीय स्तर पर ही सही लेकिन राजनीति में अपनी तरह का यह एक नया बदलाव है जिसमें एक संप्रदाय विशेष की पार्टी किसी राष्ट्रीय पार्टी की पिछलग्गू बनकर नहीं बल्कि स्वतंत्र रूप से मुकाबला कर रही है। चुनावी समर में उतरे पांच राज्यों में असम अकेला राज्य है जहां मुख्य मुकाबले में दो राष्ट्रीय पार्टियां हैं। प्रादेशिक क्षत्रपों के बढ़ते प्रभुत्व के बीच यह भी पूर्वोत्तर में एक नया समीकरण बनने का संकेत साबित हो सकता है। हालांकि यह तय है कि अजमल अंत में कांग्रेस का ही दामन थामेंगे। 
 
जिन नौ मुस्लिम बहुल जिलों पर अजमल को आस है उनकी 53 सीटों में से 28 पर 2011 में कांग्रेस जीती थी। एआईयूडीएफ ने सिर्फ इन्हीं जिलों में 18 सीटें जीतने में सफलता हासिल की थी। इस बार के चुनाव एआईयूडीएफ के लिए कड़ी चुनौती हैं। अजमल कांग्रेस से तालमेल करना चाहते थे, लेकिन गोगोई ने रुचि नहीं ली। दोनों का मुख्य चुनावी मुद्दा बांग्लादेश से अवैध रूप से आए लोगों को नागरिकता का अधिकार देना है। अगर अजमल इस मामले में ज्यादा विश्वसनीय साबित हुए तो बढ़े हुए संख्या बल से वे कांग्रेस को मर्जी के मुताबिक नाच नचा सकेंगे। 
 
कुल मिलाकर असम का चुनाव एक सांप्रदायिक पार्टी के प्रभावी उभार का आधार बन सकता है। यह जरूर है कि कांग्रेस के मुकाबले पिछले आंकड़ों को देखते भाजपा दौड़ में ज्यादा मजबूत नहीं दिखती। 2006 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को दस सीटें मिली थीं, जो 2011 में घटकर पांच रह गई थीं। 2014 के आम चुनाव में सात लोकसभा सीटें जीतकर पार्टी ने अपनी जो हैसियत दिखाई थी उसकी असली परीक्षा अब होगी। 
 
लोकसभा चुनाव में तब भाजपा को कांग्रेस के 29.6 फीसदी वोट की तुलना में अप्रत्याशित रूप से 36.5 फीसदी वोट मिल गए थे। इस चुनाव में बांग्लादेशी शरणार्थियों के मुद्दे पर भाजपा और कांग्रेस का अलग-अलग दृष्टिकोण मतदाताओं के सामने होगा और उसमें तय होगा कि राज्य का सामाजिक-सामुदायिक और सांप्रदायिक ढांचा क्या शक्ल लेगा?

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