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भारत में आखिर क्यों नहीं लागू हो रही महिलाओं के लिए ये 'मेंस्ट्रुअल लीव पॉलिसी'?

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खुशबू जैसानी

जिसने भी महिलाओं के साथ मिलकर किसी ऑफिस में काम किया है, वो तो 'खूनी राक्षस' का ये कहर समझ सकता है। महिलाओं के लिए पीरियड्स के पहले दिन पर काम करना मुश्किल ही नहीं, कई बार बेहद मुश्किल हो जाता है। इस मजबूरी के लिए वे कुछ बोल भी तो नहीं सकतीं। आखिर पीरियड्स की बात जो है। बॉस क्या सोचेंगे? कैसे बताऊं उन्हें अपनी परेशानी के बारे में? सिर्फ शरीर ही नहीं, बल्कि दिमाग भी इस समय स्ट्रेस से घिरा रहता है और ये महीने के 3 दिन आम जिंदगी के बुरे दिनों के पन्नों पर दर्ज हो जाते हैं।

जिस तरह से भारत में कामकाजी महिलाओं की तादाद बढ़ रही है, उसको देखते हुए क्या आपको नहीं लगता कि दूसरे देशों की तरह भारत को भी 'मेंस्ट्रुअल लीव पॉलिसी' की शुरुआत कर देनी चाहिए? अगर कंपनी महिलाओं को 1 दिन की भी छुट्टी दे तो अगले दिन थकावट की बजाय उनका परफॉर्मेंस और भी बेहतर हो सकता है।
 
बोलना तो बहुत ही आसान है कि पीरियड्स में ऑफिस जाने में कोई दिक्कत नहीं, पर ऐसी बहुत-सी महिलाएं हैं जिन्हें पेटदर्द, थकान, सिरदर्द आदि अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। हम सभी मानते हैं कि ये नेचुरल प्रोसेस है, पर पीरियड्स के पहले 2 दिनों तक इसे नेचुरल नहीं मान पाते और ध्यान होता है उस वक्त पर तो सिर्फ दर्द का।
 
आजकल बहुत-सी महिलाएं प्री-मेंस्ट्रुअल सिंड्रोम का भी शिकार हो रही हैं जिसमें कभी भी उनका मूड स्विंग्स होने लगता है, गुस्सा आने लगता है या फिर वे इमोशनल हो जाती हैं। ऐसे में खुद को धक्का देकर जबरदस्ती काम करना किसी काम का नहीं। इन दिनों शरीर में ऐंठन होना आम है, पर ये किसी दिल के दौरे से भी कम नहीं है। दूसरी तरफ देखा जाए तो कामकाजी महिलाएं सिर्फ वे ही नहीं हैं, जो दफ्तर में काम करने जाती हैं बल्कि हाउसवाइफ, हाउस सर्वेन्ट्स भी हैं, जो दिन के 24 में से 18 घंटे काम करती हैं।
 
इतना ही नहीं, उन महिलाओं का क्या, जो दफ्तर भी जाती हैं और दूसरी तरफ उनके ऊपर घर संभालने की जिम्मेदारी भी है। महिलाएं पीरियड्स के दिनों में भी रोज के जितनी ही मेहनत करती हैं। अगर उन्हें शुरुआती दिनों में छुट्टी दे दी जाए तो वे रिकवर होने के साथ पहले जैसी ही जोरदार एंट्री लेंगी।
हमें बचपन से ही सिखाया गया है कि पैड्स को काली थैली में बांधकर फेंका जाए। और तो और, मेडिकल या जनरल स्टोर से जब हम पैड्स खरीदते हैं तो दुकानदार भी उसे अखबार या काली थैली में बांधकर देता है। ये तो नेचुरल प्रोसेस है तो फिर कैसी शर्म? टीवी पर एड देखने में हमें कोई परेशानी नहीं होती, तो फिर असल जिंदगी में क्यों?
 
भारत देश ऐसे तो विचारों में बहुत आगे बढ़ चुका है, पर जब ये स्थिति देखने को मिलती है तब लगता है कि हमारी सोच अभी भी पिछड़ी हुई है। जापान, इटली, साउथ कोरिया और अनेक देशों में 'मेंस्ट्रुअल लीव पॉलिसी' की शुरुआत हो चुकी है और अब देर है तो सिर्फ भारत में ऐसा नियम लागू होने की।
 
हमारा देश बदल रहा है, पर क्या सच में आगे बढ़ रहा है? मेंस्ट्रुअल कोई श्राप नहीं, बल्कि हमारी पीढ़ियों के लिए वरदान है। जरा सोचिए...! 

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