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वन्यजीव प्रबंधन दक्षता के बगैर कैसे संभव है वन्यजीव संरक्षण?

हमें फॉलो करें वन्यजीव प्रबंधन दक्षता के बगैर कैसे संभव है वन्यजीव संरक्षण?
-डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
 
पिछले दिनों मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से खबर आई कि प्रदेश के 10 नेशनल पार्कों में से 7 में ऐसे अफसर फील्ड डायरेक्टर बने हुए हैं, जो वन्यजीव प्रबंधन में दक्ष नहीं हैं जबकि राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के स्पष्ट निर्देश हैं कि प्रशिक्षित अधिकारियों को ही नेशनल पार्कों में तैनात किया जाए।

 
भारत की पारिस्थितिकी एवं भौगोलिक दिशाओं में अनेक विविधता पाई जाती है, इसी विविधता के कारण विश्व की कुल जीव-जंतुओं की 15 लाख ज्ञात प्रजातियों में से लगभग 81 हजार प्रजातियां भारत में पाई जाती हैं। वन्यप्राणी पर्यावरण के अभिन्न अंग है तथा पारिस्थितिकी के अन्य अवयवों से इनका घनिष्ठ संबंध होता है। इसी कारण वन्य प्राणियों का पर्यावरण संतुलन में विशिष्ट योगदान है। पर्यावरण के मौलिक रूप को सुरक्षित रखने में वन्य प्राणियों के संरक्षण के कार्यों की महत्वपूर्ण भूमिका है।

 
मनुष्य द्वारा आदिकाल से उपयोग किए जाने वाले साधनों में वन्यप्राणी मुख्य है। प्रारंभिक काल में जब मनुष्य कृषि नहीं सीख पाया था, तब वह मांसाहारी था और वन्य प्राणियों से अपना भोजन प्राप्त करता था। आज भी मानव के भोज्य पदार्थ में मांस का महत्वपूर्ण स्थान है। विश्व की तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या के अनुपात में सीमित भूमि होने के कारण खाद्य पदार्थों की पूर्ति के लिए मांस की मांग तेजी से बढ़ रही है। इस निरंतर बढ़ती मांग के कारण विश्व में पाई जाने वाली प्राणियों प्रजातियों में से कई पशु-पक्षियों की संख्या अत्यंत कम हो गई है और कई जातियां तो पूर्णत: नष्ट हो गई हैं।

 
लगातार बढ़ती जनसंख्या एवं भूमि संसाधनों का अत्यधिक उपयोग होने से वन्य प्राणियों के लिए रहवास और दैनिक आवश्यकता पूर्ति में असंतुलन पैदा हो रहा है, जो उनके जीवन का संकट बन रहा है। वन्य प्राणियों के अनेक समस्याओं में आहार की समस्या मुख्य है इसलिए वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए केवल उनके शिकार को रोकना ही पर्याप्त नहीं है, वरन वन्य प्राणियों के जिंदा रहने के लिए उनके शिकार के योग्य प्राणी तथा अन्य प्राणियों के बीच संतुलन भी आवश्यक है। जंगलों का सिमटा हुआ दायरा और वृक्षों की अत्यधिक कटाई गहन वनों को विरल बना रही है, इस कारण वनों की सीमाएं सिकुड़ रही हैं। इससे वन्य प्राणियों का जीवन आधार प्रभावित हो रहा है।

 
वनों और वन्य प्राणियों के संरक्षण पर सरकार ने समय-समय पर जरूरी कदम उठाए हैं, लेकिन अभी भी बहुत कुछ करना शेष है। देश में वन्यजीव संरक्षण के लिए वर्ष 1992 में केंद्रीय सलाहकार समिति बनाई गई थी जिसे 'इंडियन बोर्ड ऑफ वाइल्ड लाइफ' कहा जाता है। इसके अतिरिक्त देश में अन्य सस्थाएं भी हैं, जो वन्यजीव संरक्षण एवं प्रबंधन में उल्लेखनीय भूमिका निभा रही हैं। इन संस्थाओं में बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी, वाइल्डलाइफ प्रिजर्वेशन सोसायटी ऑफ इंडिया और वाइल्डलाइफ फंड ऑफ इंडिया प्रमुख हैं।

 
वन्य प्राणियों की सुरक्षा के लिए एक सेंट्रल झू अथॉरिटी का भी गठन किया गया है जिसका उद्देश्य देश के वन्यप्राणी उद्यानों के प्रबंधन की देखरेख करना है। देहरादून में एक वन्य प्राणी संस्थान की भी स्थापना की गई है। भारत सरकार ने 1 अप्रैल 1973 से प्रोजेक्ट टाइगर की शुरुआत की थी। इसका उद्देश्य भारत में मौजूद टाइगरों की संख्या का वैज्ञानिक एवं पारिस्थितिकी मूल्यों के दृष्टिगत प्रबंधन सुनिश्चित करना है।

 
वन्यजीवन यानी वन्य प्राणी निरंतर बदलते रहने वाले जीव हैं जिनका नियंत्रण मनुष्य करता है। अत: यह प्रयास होना चाहिए कि इन प्राणियों की मौलिक आवश्यकताओं जिसमें समय पर समुचित भोजन, पानी एवं सुरक्षा सुनिश्चित हो जिससे कि वे संतोषपूर्वक जीवन-यापन करते हुए अपनी संतति की अभिवृद्धि कर सकें। इन दिनों राष्ट्रीय उद्यानों में बढ़ती पर्यटकों की भीड़ के मद्देनजर ऐसे प्रयास करने होंगे जिससे अभयारण्य में सैलानी और दर्शक स्वयं बिना किसी को हानि पहुंचाए निर्बाध रूप में इन वन्य प्राणियों व उनके जीवन की गतिविधियों को देख सकने में समर्थ हो सकें। यह सुरक्षित ईको पर्यटन की व्यवस्था काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे सरकारों को भारी राजस्व प्राप्त होता है।

 
वन्यजीव संरक्षण प्रबंधन में नवाचारी प्रयोगों और निरंतर नवीन अनुसंधानों की भी आवश्यकता है। वन्य प्राणी संरक्षण की योजनाओं और उनका क्रियान्वयन स्थानीय पारिस्थितिकी और सामाजिक परिवेश को केंद्र में रखकर करना होगा। इसे अदक्ष व्यक्तियों के हाथों में कैसे दिया जा सकता है? इस संवेदनशील काम में कुशल प्रशिक्षित और दक्ष लोग होंगे तभी हम वन्य प्राणियों के संरक्षण एवं पर्यावरण में संतुलन बनाए रखने में सफल हो सकेंगे। (सप्रेस)
 
 
(डॉ. खुशालसिंह पुरोहित लेखक एवं पत्रकार हैं। वे रतलाम से प्रकाशित मासिक पत्रिका 'पर्यावरण डाइजेस्ट' के संपादक हैं।)

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