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पानी का प्रबंधन, पेड़ पौधे प्रकृति व पर्यावरण से ही संभव

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डॉ. साधना सुनील विवरेकर

पानी कितना अनमोल है यह हमें तब समझ में आता है, जब मई-जून की गर्मी में हमारे नलों में पानी दो-दो दिनों के लिए गायब हो जाता है। जब हमारे बोरिंग जवाब दे जाते हैं और टेंकर से पानी डलवाकर पैसा व ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो स्त्रियां मीलों दूर से सिर पर दो-दो मटके पानी ढोकर लाती हैं। नलों पर खाली बर्तन लिए गरीब और झुग्गी झोपड़ी वाले लंबी कतार में लगे रहते हैं और एक-एक बाल्टी पानी के लिए जान लेने तक को उतारू हो जाते हैं। 
 
वहीं दूसरी ओर आलीशान बंगलों में रहने वाले लोगों के नौकर मोटे पाइप से कार व आंगन हर रोज धोते व पानी की बरबादी करते दिख जाएंगे। उनके 24 घंटे चलने वाले कूलर, एसी पानी व बिजली का लगातार दुरूपयोग करते हैं।
 
एक तरह पीने के पानी के लिए तरसता विशाल जनसमुदाय, कहीं लातूर जैसी जगह ट्रेन से पानी पहुंचाने की मजबूरी, तो कहीं टब बाथ लेता, कारों को धोता, आंगन व सड़कों को धोने के लिए अय्याशी के दायरे में आने वाली समुदाय जो मात्र पैसा होने से, बगैर अपने जैसे इंसानों की मूलभूत जरूरत को समझते, पानी का अति उपयोग कर बर्बादी कर रहा है। ऐसे लोगों की सोच समझ व मानसिकता पर प्रश्नचिन्ह तो है ही, पर उन्हें सुधारने के लिए क्या किया जाए इसकी चर्चा व जनचेतना जागृत करना अतिआवश्यक है। ऐसे लोग किसी का अनुरोध नहीं सुनते व कुछ कहने पर अपमानित करते हैं या लड़ने पर उतारू हो जाते हैं।
 
पानी जीवन का मुख्य घटक है। पेड़-पौधों से वाष्पीकृत जल ही बादल बन गगन में एकत्रित होता है व अमृत बन पुनः धरती की क्षुधा को शांत करता है। जलचक्र से ही प्रकृति का प्रबंधन चलता है। पर्यावरण अर्थात वह आवरण जो पृथ्वी को घेरे है, जिसमें वायु, जल, सौर ऊर्जा सब कुछ समाता है हमारे जीवित रहने, स्वस्थ रहने का मार्ग प्रशस्त करता है।
 
आधुनिकीकरण व औद्योगिकीकरण की अंधी दौड़ के साथ भौतिकतावादी संस्कृति हमारे जीवन पर इस कदर छा गई है कि हम सब क्षणिक व त्वरित लाभ में उलझकर रिश्तों से तो दूर हुए ही हैं, प्रकृति के सानिध्य के सुख व उसकी कीमत भूल बैठे हैं। पानी, बिजली, पेट्रोल व अन्य अनमोल प्राकृतिक संपदाओं के अतिदोहन ने हमें उनका गुलाम तो बना ही लिया है, पर इनके दुरूपयोग से हमने प्रकृति को विनाश की कगार पर ला खड़ा किया है। प्रकृति, प्राकृतिक संपदाएं, पानी, पेड़-पौधे, सब कुछ ईश्वर ने हमारी जरूरतें पूर्ण करने हेतु निर्मित किए हैं। ये हमारी जरूरत को तो पूर्ण करने हेतु समर्पित हैं, पर स्वार्थ व लालच को पूर्ण करने में वे भी असमर्थ हैं। 
 
आखिर ऐसी प्रगति, उन्नति व लालच किस काम का जहां सांस लेने को शुद्ध हवा न हो, पीने का पानी सुलभ न हो, बूंद-बूंद के लिए तरसना पड़े, प्रदूषित पर्यावरण के कारण बीमारियां, शरीर को खोखला कर दवाइयों पर जीना मजबूरी हो, खाने को स्वच्छ, शुद्ध भोजन, रसीले फल न हो, रसायन से विषाक्त सब्जियों का डर हो और जीवन में सुख, शांति, सुकून ढूंढने लाखों रूपए खर्च करके मात्र कुछ दिन प्राकृतिक सौंदर्य की तलाश में भटकना पड़े।
 
प्रकृति से छेड़छाड़, अतिदोहन से पर्यावरण प्रदूषित हुआ है। जल संकट से जीवन के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है व प्रदूषण तथा प्रकृति के प्रबंधन में छेड़छाड़ से निम्न प्रकोप, आपदाएं या त्रासदी झेलना हमारी मजबूरी बनता जा रहा है -
 
1. जलवायु परिवर्तन : वनों की अंधाधुंध कटाई से जलवायु परिवर्तन हो रहा है। तापमान की अति वृद्धि, वर्षा की कमी, भूकंप, ज्वालामुखी, कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा, बेमौसम बरसात, जनहानि, संक्रामक रोगों में बढ़ोतरी, नए-नए जीवाणु व विषाणुओं की उत्पत्ति इसके परिणाम है। पेड़-पौधों की कई प्रजातियां भी लुप्त होने की कगार पर है।
 
2. भूमण्डलीय तापन : पृथ्वी के आवरण में पाई जाने वाली विभिन्न गैसों का आपसी अनुपात पृथ्वी पर हर क्षेत्र के तापमान को नियंत्रित रखता है तथा उस तापमान पर उस क्षेत्र के पेड़-पौधे, पशु-पक्षी अपनी जैविक क्रियाएं करने के आदी होते हैं। भौतिकवाद से अपनी संस्कृति के बढ़ते सुख सुविधाओं के अति उपयोग से वातावरण में व मीथेन के साथ (क्लोरोफ्लोरो कार्बन - फ्रिज में उपयोग की जाने वाली गैस) की मात्रा में वृद्धि हुई है जो भूमण्डलीय तापमान में वृद्धि के लिए उत्तरदायी है। जिसके कारण अतिवृष्टि या सूखा, समुद्री तूफान, मृदा क्षरण व पशु-पक्षियों की मृत्यु, वनस्पतियों का लुप्त होना जैसी विपदाएं आ रही हैं।
 
3. अम्लीय वर्षा : अमृत की बूंदों में विभिन्न अम्लों जैसे सल्फ्यूरिक एसिड, नाइट्रिक एसिड, कार्बोनिक एसिड का समावेश हो रहा है जिससे भूमि बंजर होती है व त्वचा का कैंसर फैलता है।
 
4. जल संकट : पेड़ों की अंधाधुंध कटाई, वनों का नाश, जंगलों का खात्मा होने से जलचक्र प्रभावित हुआ व जलसंकट की त्रासदी भुगतने की मजबूरी सजा बन रहा है।
 
5. बिजली संकट : आज हमने कई विद्युत यंत्र तो इकट्ठे कर लिए, फ्रिज, एसी, टी.व्ही., मिक्सर, ओवन, कूलर पर हमारे अतिउपयोग से बिजली की कटौती होती है और ये यंत्र बेमानी हो जाते हैं।
 
6. ओजोन स्तर का क्षरण : ओजोन नामक गैस का आवरण पृथ्वी का छाता है जो सूर्य की पराबैंगनी किरणों से जीवमात्र की रक्षा करता है, पर (क्लोरोफ्लोरा कार्बन) जो हमारी आधुनिकता की देन है से इस परत का क्षरण हो रहा है। यह पतली हो रही है व इसमें छेद हो रहे है। इसके दुष्परिणाम स्वरूप त्वचा रोग, कैंसर, कई आनुवंशिक त्रासदियों व खाद्य श्रृंखला पर विपरीत प्रभाव देखने को मिल रहे हैं।
 
7. भूस्खलन : यह प्राकृतिक आपदा पेड़ों व वृक्षों की कटाई का परिणाम है क्योंकि वृक्ष जमीन व चट्टानों को बांधकर रखते हैं। भूस्खलन से बहुत बड़ी-बड़ी जन व पशु हानि होती है।
 
8. जंगलों का लुप्तीकरण : जंगलों के विनाश से न केवल वनस्पति की हानि हुई है बल्कि पक्षियों व वन्य जीवों का आवास स्थल खत्म होने से उनके अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हुआ है।
 
9. भूकंप, बाढ़, सूखा : सारी प्राकृतिक आपदाएं जो लाखों, करोड़ों लोगों का जीवन समाप्त कर देती हैं, हमारे ही कार्यकलापों का परिणाम है। पृथ्वी के अंदर होने वाली वैज्ञानिक घटनाएं रसायनिक बदलाव उसके आक्रोश के प्रतीक हैं जिसका मूल्य आवास, स्वास्थ्य, परिवहन, ऊर्जा स्त्रोत व मानव जीवन देकर चुकाना पड़ रहा है।
 
10. अत्यधिक तापमान में वृद्धि जो वृक्षों व पेड़ों की अंधाधुंध कटाई का परिणाम है - लू, जो गर्मी से अनेकों का जीवन हरण कर लेती है।
 
11. मिट्टी की उर्वरकता में कमी से उत्पादन में कमी आ रही है, जिससे रोजमर्रा की सब्जियों, अनाज मंहगे होते जा रहे हैं जो आर्थिक व्यवस्था को नुकसान पहुंचा रहे हैं।
 
12. जैव विविधता खतरे में है।
13. मरुस्थलीय क्षेत्र बढ़ रहे हैं।
14. नाभिकीय दुर्घटनाओं से सर्वनाश होने की संभावना बढ़ रही है।
 
15. जलमग्न होने का खतरा : भूमंडलीय तापमान में होने वाली वृद्धि से उत्तरी व दक्षिणी ध्रुवों की बर्फ पिघलने लगी, तो सृष्टि के जलमग्न होते देर नहीं लगेगी।
 
इस प्रकार पेड़-पौधे, पानी के आपसी संबंधों पर ही प्रकृति के पर्यावरण का प्रबंधन कायम है जिसे समझना होगा। मानसिकता विकसित कर संस्कारों से प्राकृतिक संपदाओं का मोल करना सीखना, सि‍खाना होगा। पेड़-पौधे, पशु-पक्षियों के प्रति स्वहित में संवेदनशील हो उनके संरक्षण संवर्धन का अभियान जन जागृति के द्वारा चलाना होगा। हमारी परंपराओं का मोल समझना होगा, जिनके द्वारा वट पूर्णिमा हो या आंवला नवमी या गोवर्धन पूजा, विभिन्न पर्वों के माध्यम से वृक्षों को पूजा जाता है।
 
वृक्षों, पशु-पक्षियों को नुकसान पहुंचाने वालों के लिए कड़ी सजा का प्रावधान हो व प्राकृतिक संपदाओं विशेषकर जल की बूंद-बूंद सहेजने के प्रयास हो तथा दुरूपयोग करने वाले को समाज पापी व घृणित कृत्य करने वाला समझें, तभी जल का सम्मान जीवित रहेगा। मात्र पर्यावरण दिवस मनाकर नहीं। स्वहित में हर स्तर पर हर एक को इकोफ्रेंडली बनने का धर्म सर्वोपरि समझना होगा।

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