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हमें आपदा को व्यापक रूप में समझना होगा...

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अर्चना शर्मा

जून के इसी महीने में आज से 5 साल पहले जब उत्तराखंड के केदारनाथ में बाढ़ ने तबाही मचाई थी तब पूरा देश हिल गया था। इस जलप्रलय ने पूरी केदार घाटी को तबाह कर दिया था, लोग आज भी उस मंजर को भूल नहीं पाए हैं। इस बाढ़ के बाद से हालात सामान्य होने में काफी वक्त लगा या यों कहें कि अभी भी सब कुछ पहले जैसा नहीं है, तो शायद गलत नहीं होगा।
 
ताजा रिपोर्ट के मुताबिक इम्फाल की घाटी में बाढ़ से लगभग 12,500 मकान क्षतिग्रस्त हो गए हैं और 5,200 लोग इन इलाकों को छोड़कर चले गए हैं। देश समय-समय पर बाढ़ की त्रासदी झेलता रहा है और लोग इससे जूझते रहे हैं। कुछ इसी तरह की परेशानियों से इस समय पूर्वोत्तर का इलाका दो-चार हो रहा है। पूर्वोत्तर के 4 राज्यों में बाढ़ के बढ़ते प्रकोप और भूस्खलन ने अब तक 31 लोगों की जान ले ली है।
 
असम में बाढ़ ने विकराल रूप धारण किया हुआ है। स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है और 7 जिले इसकी चपेट में हैं। इसमें करीब 4 लाख से अधिक लोग प्रभावित हुए हैं। राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण यानी (एएसडीएमए) की बात मानें तो होजाई, कर्बी आंगलांग पूर्व, कर्बी आंगलांग पश्चिम, गोलाघाट, करीमगंज, हैलाकांडी और कछार जिले में लगभग 3.75 लाख लोग बेघर हुए हैं। इसके अलावा हैलाकांडी में 2 लाख और करीमगंज में लगभग 1.25 से अधिक लोगों को नुकसान पहुंचा है।
 
इतना ही नहीं, मणिपुर के बाढ़ग्रस्त 2 जिलों में 1.50 लाख से अधिक लोग प्रभावित हैं और स्थिति दिन-ब-दिन खराब होती जा रही है। त्रिपुरा में लगातार हो रही बारिश के कारण खोवई नदी का पानी कुछ इलाकों में घुस गया है जिससे हजारों लोग बेघर हुए हैं, आसपास की सड़कें टूट गई हैं साथ ही फसलों को भारी नुकसान पहुंचा है।
 
दुबारा से जिंदगी को समेटने की हिम्मत का टूटना है पलायन। ऐसे में हमें यह समझने की जरूरत है कि बाढ़ एक स्वाभाविक आपदा नहीं है। इस पर बहुत लंबे समय तक और पूरी ठोस रणनीति के साथ काम करने की जरूरत है जिससे कि हम भविष्य में होने वाली आपदाओं से होने वाले जान-माल के नुकसान से बच सकें।
 
आपदा से जुड़ी खबरों को अक्सर मीडिया कुछ समय तक दिखाता है लेकिन कुछ समय के बाद ही बाढ़ से जुड़ी खबरें किनारे हो जाती हैं। इन मुद्दों पर कभी चिंतन करना उचित नहीं समझा जाता है। हम तो इन्हें उत्तराखंड की बरसी या पर्यावरण दिवस पर याद करते हैं। हम इन प्राकृतिक आपदाओं के प्रति बेहद लापरवाह हैं। हम समझते हैं, जैसे सब कुछ सामान्य और ठीक हो गया है लेकिन हकीकत इससे पूरी तरह उलट है। बाढ़ में तबाह हो चुकीं जिंदगियां इतनी आसानी से पटरी पर नहीं लौटती हैं और जो नहीं लौट पाती हैं, वे पलायन का रुख करती हैं।
 
दान देने की परिभाषा को बदलने की जरूरत है 'गूंज'
 
आज देश में कई संस्थाएं हैं, जो प्राकृतिक आपदाओं में राहत सामग्री पहुंचाने का काम कर रही हैं। लेकिन राहत सामग्री में मदद का क्या रूप मायने रखता है, ये जानना भी जरूरी है। 'गूंज' भारत के 22 राज्यों में पिछले 19 सालों से प्राकृतिक आपदाओं से उबरने में बेहद व्यापक तरीके से काम कर रही है। चाहे वो बात उड़ीसा के तूफान की हो या गुजरात के भूकंप की, बिहार की बाढ़ हो या पूर्वोत्तर की। 'गूंज' की कोशिश रही है कि प्राकृतिक आपदाओं में तबाह हुई जिंदगी को कैसे दुबारा पटरी पर लाया जा सकता है? बाढ़ के बाद सड़कों पर पड़ा कपड़ों का ढेर बहुत कुछ कहता है।
 
'गूंज' के संस्थापक अंशु गुप्ता बताते हैं कि हम आपदा में राहत के नाम पर हमेशा वो देते हैं, जो हमारे पास है, न कि वो जिसकी उन्हें जरूरत है। अक्सर देखने में आया है कि आपदा के बाद हम सभी सबसे पहले पीड़ितों के बीच अपने पुराने कपड़े मदद के नाम पर देते हैं जिससे कि वे अपना शरीर ढंक सकें। लेकिन क्या आप जानते हैं कि ऐसी स्थिति में लोगों को वास्तव में कपड़े की तुरंत आवश्यकता नहीं होती है। वजह साफ है कि वे एक समय में केवल एक ही कपड़ा पहन सकते हैं, क्योंकि दूसरी जोड़ी को रखने के लिए उनके पास कोई जगह ही नहीं होती है, क्योंकि बाढ़ सबसे पहले एक इंसान से ये ही छीनती है। बाढ़ उनका घरबार सब तबाह करके रख देती है। ऐसे में हमें समझना होगा कि हमें क्या देना चाहिए, जो उन्हें तुरंत राहत दे।
 
राहत सामग्री को पाने के बाद 'गूंज' सुनिश्चित करता है कि वो जरूरतमंद तक सीधे किस रूप में पहुंचे। इनकी ये कोशिश होती है कि लोग ऐसे कपड़े उन्हें न दें जिनका कोई इस्तेमाल ही वे न कर सकें। अंशु बताते हैं कि शहरी इलाकों के ऐसे अतिरिक्त कपड़े को, जिन्हें लोग इस्तेमाल नहीं कर पाते, हम 'डिजास्टर किट' के रूप में पीड़ितों तक पहुंचाते हैं जिन्हें उनका पूरा परिवार इस्तेमाल कर सकता है। एक 'किट' में पूरे परिवार के लिए जरूरत की सभी चीजें मौजूद रहती हैं। इस किट की बदौलत हम उनके तन को पहले ढंकते हैं फिर उनकी काबिलियत के अनुसार उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में सहयोग करते हैं। इसका असर कुछ ही समय बाद दिखना शुरू हो जाता है और वे धीरे-धीरे फिर से अपने पैरों के बूते खड़े हो जाते हैं।
 
अंशु आगे बताते हैं कि बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा न केवल देश के एक हिस्से को प्रभावित करती है, बल्कि उसका सीधा असर हम सभी के जीवन पर पड़ता है जिससे उबरने में हमें सालों लग जाते हैं। बहरहाल, अगर आज अपने आस-पास विकास की मेट्रो दौड़ाकर इंसान को ये लगता है कि दुनिया उसकी मुट्ठी में है, तो ये भ्रम प्रकृति अब तोड़ रही है।
 

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