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ईरान अमेरिका के बीच पुन: तनाव से बढ़ती आर्थिक चिंताएं

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शरद सिंगी

यदि पाठकों को स्मरण हो कि कुछ वर्षों पहले ईरान पर परमाणु बम बनाने के लिए यूरेनियम को संवर्धित करने के आरोप थे और इसलिए ईरान को परमाणु बम बनाने से रोकने के लिए अमेरिका और यूरोपीय देशों ने उस पर आर्थिक प्रतिबंध थोप दिए थे। कई वर्षों तक अलग-थलग रहने के बाद ओबामा सरकार के काफी प्रयासों के पश्चात दोनों देशों के बीच यूरेनियम संवर्धन को लेकर सहमति बनी।
 
पश्चिमी देशों द्वारा प्रतिबंधों को उठाने के बदले में ईरान अपने यूरेनियम संवर्द्धन कार्यक्रम को सीमित करने पर सहमत हुआ। इस समझौते के पश्चात प्रतिबंधों में ढील देने की शुरुआत हुई। ईरान पुन: मुख्य धारा में आने लगा था किंतु वर्तमान राष्ट्रपति ट्रंप का आरोप है कि ओबामा सरकार के साथ ईरान की सहमति मात्र एक छलावा था और इस समझौते में ऐसी कई त्रुटियां या गलियां हैं जिनकी आड़ में ईरान अपना परमाणु कार्यक्रम जारी रखे हुए है।
 
अब स्थिति यह है कि ट्रंप इस समझौते की शर्तों को बदलना चाहते हैं इसलिए इस वर्ष मई में उन्होंने ईरान की परमाणु महत्वाकांक्षाओं को नियंत्रित करने के लिए 2015 में किए गए अंतरराष्ट्रीय सौदे से अमेरिका को अलग कर लिया। बावजूद इसके कि ईरान जोर देकर कहता रहा है कि उसका परमाणु अनुसंधान शांतिप्रिय उद्देश्यों के लिए है। वहीं यूरोप के अन्य देश भी राष्ट्रपति ट्रंप के साथ सहमति नहीं रखते और उन्होंने अभी ईरान के साथ अपना समझौता जारी रखा हुआ है।
 
समझौते से अलग होने के पश्चात अमेरिका ने दूसरा कदम उठाते हुए ईरान पर आर्थिक प्रतिबंधों की पहली किस्त इस सप्ताह सोमवार से लागू कर दी। अमेरिका द्वारा प्रतिबंधों के घोषणा होते ही ईरान की मुद्रा तेजी से गिरी। 1 डॉलर में 40 हजार मिलने वाला ईरानी रियाल इतना गिरा कि पिछले हफ्ते ब्लैक मार्केट में 1 डॉलर, 1 लाख ईरानी रियाल में मिलने लगा। बड़ी मुश्किलों से संभला ईरान पुन: खाई में जाता दिख रहा है। धंधे चौपट और युवक बेरोजगार होने लगे हैं। इसका मात्र एक ही कारण है, ईरान के कुछ कट्टरपंथी नेताओं का अड़ियल रवैया जिनकी वजह से वहां की जनता को बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है किंतु अब वे अधिक तकलीफ बर्दाश्त करने के मूड में नहीं हैं। कई नगरों में जनता सड़कों पर निकल चुकी है।
 
अभी तक तो वहां प्रदर्शन शांतिपूर्ण हैं किंतु भीड़ को भड़कने में देर नहीं लगती। ऊपर से ईरान की कट्टरपंथी सरकार आंदोलनों को बेरहमी से कुचलने के लिए कुख्यात है। जरूरत का सामान विशेषकर आयातित प्राणरक्षक औषधियों के न मिल पाने से जनता में रोष है। जनता निश्चित ही अपने देश के सम्मान के साथ तो खड़ी होती है किंतु यदि कुछ कट्टरपंथी नेता अपने हठ को राष्ट्र के सम्मान से ऊपर समझें, तो जनता मूर्ख नहीं है। 21वीं सदी की जनता शांति और आर्थिक विकास चाहती है।
 
ईरान पर इस तरह से प्रतिबंध जड़ने से यूरोप की भी कई व्यापारिक संस्थाएं परेशानी में आ जाएंगी, क्योंकि ईरान के साथ उनके व्यापार पर भी असर होगा और उन पर भी तलवार लटकी रहेगी ब्लैक लिस्ट होने की। यूरोपीय विदेश मामलों के प्रमुखों ने ईरान के साथ व्यापार करने के लिए अमेरिकी प्रतिबंधों के प्रभाव के खिलाफ फर्मों को वित्तीय सुरक्षा देने का आश्वासन दिया है। बयान में कहा गया है कि हम ईयू कानून और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के संकल्प 2231 के अनुसार ईरान के साथ वैध व्यापार में लगे यूरोपीय आर्थिक व्यवसायियों की रक्षा करने के लिए दृढ़ संकल्प हैं। इस तरह ईरान को लेकर अमेरिका और यूरोप में दोफाड़ हो चुके हैं।
 
अमेरिका ने सभी देशों को चेतावनी दी है कि वे ईरान के साथ व्यापार बंद करें। इस स्थिति में भारत की स्थिति एक बार पुन: खराब होगी, क्योंकि ईरान, भारत के लिए कच्चे तेल का महत्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता है। अमेरिका नवंबर में प्रतिबंधों की दूसरी किस्त जारी करेगा जिसमें ईरान पर कच्चे तेल के निर्यात पर पाबंदी होगी। यदि भारत, अमेरिका की इच्छा के विरुद्ध जाता है, तो अमेरिका से नाराजी मोल लेगा और दूसरी तरफ भारत के ईरान के साथ भी अच्छे संबंध हैं और उसे ईरान से सस्ता तेल चाहिए। ट्रंप के बारे में अब कुख्यात हो चुका है कि वे आपसी संबंधों को केवल लाभ-हानि की तराजू में तौलते हैं और फिलहाल वे किसी कूटनीति के फेर में नहीं हैं। ऐसे में दोनों देशों के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए भारत की कूटनीति को तलवार की धार पर चलना पड़ेगा।
 
निष्कर्ष में यह कहा जा सकता है कि अभी की स्थिति देखते हुए आर्थिक परिस्थितियां क्या मोड़ लेंगी, कहना बहुत मुश्किल है। असमंजस बहुत घने हैं और आशा की किरणें बहुत कम।

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