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सामरिक शक्ति बनने की दिशा में भारत के बढ़ते कदम

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शरद सिंगी

रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में भारत की हवाई, जमीनी और सामुद्रिक मारक क्षमता विश्व मानकों की तुलना में काफी पिछड़ चुकी है। कारण था रक्षा सौदों में हो रहा व्यापक भ्रष्टाचार और उससे जनित विलम्ब। मंत्रियों और नौकरशाही के बीच फाइलें अटकी रहीं और देश पिछड़ता गया। इन वर्षों में सामरिक बेड़े में कुछ वृद्धि तो हुई नहीं  अलबत्ता पुराने विमान और अन्य सैन्य उपकरण दस वर्ष और बूढ़े हो गए।  वर्तमान सरकार आने के बाद स्थिति में परिवर्तन आया और अब लंबित फाइलों को निपटाया जा रहा है। स्थिति में परिवर्तन का दूसरा कारण है भारत की आर्थिक स्थिति में निरंतर सुधार और अंततर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रभावशाली कूटनीति।  इसलिए आज भारत को सैनिक साधन और हथियार आपूर्ति के लिए विकसित देशों में स्पर्धा मची हुई है। 
 
सबसे पहले प्रधानमंत्री ने वर्षों से अटके पड़े फ्रांस के राफेल लड़ाकू विमानों के सौदे को हरी झंडी दी और सौदे की शर्तों को भारत के पक्ष में करने के लिए स्वयं जाकर फ्रांस पर अपना प्रभाव डाला। जैसे-जैसे भारत की छवि और आर्थिक स्थिति में सुधार होता जा रहा है वैसे-वैसे भारत की शर्तें भारतीय हितों के अनुकूल होती जा रही हैं।
 
विशेषकर भारत चाहता है कि आयातित सैन्य उपकरणों का स्वदेशीकरण हो और साथ ही तकनीक का हस्तांतरण भी हो ताकि बाद में सेना को न तो पुर्जों के लिए जूझना पड़े और न ही मरम्मत के लिए। रक्षा स्वदेशीकरण की दिशा में एक प्रमुख कदम में, भारत सरकार ने मई में एक रणनीतिक साझेदारी मॉडल का खाका तैयार किया है जिसके तहत भारत की चुनिंदा निजी संस्थाएं, विदेशी संस्थाओं के साथ मिलकर लड़ाकू विमानों, पनडुब्बियों और युद्धक टैंक जैसे सैन्य उपकरणों का साझा निर्माण करेगी।
 
इस तरह भारत का  मेक इन इंडिया का सपना भी पूरा होगा। जो राष्ट्र कभी अपनी शर्तों पर माल बेचते थे वे आज भारत के दरवाज़े पर कतार लगा कर खड़े हैं। उसी की एक झलक प्रस्तुत है। 
 
रूस की रक्षा कंपनी मिग भारतीय नौसेना के लिए लड़ाकू जहाज मिग-29 न केवल बेचने को तैयार है बल्कि  तकनीक के हस्तान्तरण और साथ में निर्माण करने के लिए भी तैयार है। मिग-35 बनाने वाली कंपनी भी स्पर्धा में शामिल है। अमेरिका की एक बड़ी विमान बनाने वाली कंपनी बोईंग ने भारत में एफ / ए - 18 सुपर हॉरनेट विमान के उत्पादन के लिए एक विनिर्माण सुविधा स्थापित करने की पेशकश की है, अगर कंपनी को उनकी आपूर्ति के लिए ठेका मिलता है तो।
 
उधर अमेरिका की ही दूसरी  प्रसिद्ध कंपनी लॉकहीड अपने एफ -16 के उत्पादन की एक पूरी लाइन भारत में लगाने को तैयार है यदि भारत कम से कम 100 विमानों का आर्डर देता है तो। तकनीक हस्तांतरण में कुछ शर्तें और प्रश्न हैं जिन्हें भारतीय विशेषज्ञों को ध्यान में रखना होगा।
 
इज़राइल से रक्षा समझौते के तहत इज़राइल एयरोस्पेस इंडस्ट्रीज भारत को मिसाइल रक्षा प्रणालियों की आपूर्ति करेगी, साथ ही स्थानीय तौर पर तैयार किए गए भारतीय विमान वाहक के लिए अतिरिक्त लंबी दूरी की वायु और मिसाइल रक्षा प्रणाली (एलआरएसएएम) उपलब्ध कराएगी।
 
दस वर्षों के विलम्ब के पश्चात् भारत अभी तक के सबसे बड़े  समुद्र के अंदर रक्षा सौदे की शुरुवात कर चुका  है। परियोजना -75  नामक इस परंपरागत पनडुब्बी कार्यक्रम में  फ्रांस, जर्मनी, रूस, स्वीडन, स्पेन और जापान अदि देश 70000 करोड़ की लागत वाले प्रोजेक्ट में  भारत के लिए छः उन्नत अदृश्य पनडुब्बियों का निर्माण करने के लिए स्पर्धा में है। इन पनडुब्बियों को बनाने के लिए विदेशी कंपनियों को  किसी स्वदेशी कंपनी को अपना सहयोगी बनाना होगा और यहाँ भी उत्पादन के साथ तकनीक के हस्तांतरण का दबाव है।
 
सरकार की मंशा भी इस प्रोजेक्ट को दौड़ाने की है किन्तु पहली पनडुब्बी बाहर आते आते छह से सात वर्षों का समय चाहिए। इसी से अंदाज़ लग सकता है कि हम कितने पिछड़ चुके हैं। 
 
खैर, देर आये  दुरुस्त आये। भारत के लिए अपनी सामरिक शक्ति को आधुनिक बनाना अतिआवश्यक है ताकि हमारी आर्थिक प्रगति पर कोई नजर न उठा सके। उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि विश्व की सामरिक महाशक्तियाँ हमारे साथ हैं। कोई अपने आर्थिक हितों के लिए सहयोग कर रही हैं तो कोई रणनीतिक लाभ के लिए और कोई एशिया में शक्ति संतुलन बनाये रखने के लिए। वजह चाहे जो भी हो, भारत के लिए महत्वपूर्ण है सबका साथ। यदि ये सारे सौदे सफल होते हैं तो भारत के पास विश्व के सभी विकसित देशों की उन्नत तकनीक होगी और मुझे नहीं लगता विश्व में किसी अन्य देश को यह गौरव प्राप्त है। 

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