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आखिर कब तक सहेंगे हम घोटाले?

हमें फॉलो करें आखिर कब तक सहेंगे हम घोटाले?
-प्रवीन शर्मा
 
अल्फ्रेड लार्ड टेनिसन की मशहूर कविता 'द ब्रूक' की ये पंक्तियां किसी से छिपी नहीं हैं। 'द ब्रूक' कविता बहती नदी के ऊपर है जिसका तात्पर्य है- मनुष्य आएगा, मनुष्य जाएगा परंतु मैं हमेशा बहती रहूंगी। वर्तमान भारत की स्थिति को देखकर ऐसा लगता है कि मानो ये पंक्तियां आज के लिए ही लिखी गई हों। जिस प्रकार आए दिन देश में भ्रष्टाचार व घोटालों के नए-नए मामले सामने आ रहे हैं, उनको देखकर तो लगता है कि इन पंक्तियों में थोड़ा परिवर्तन कर देना चाहिए- सरकारें आएंगी, सरकारें जाएंगी, पर हम भ्रष्टाचार व घोटाले करते रहेंगे।
 
जिस प्रकार हमारी देह में रक्त है, उसी प्रकार भ्रष्टाचार भी हमारी देह में अपनी जगह बना चुका है। यदि देखा जाए तो हम ही हैं, जो भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं। हमारी वजह से ही भ्रष्टाचार हो रहा है। हमें कष्ट सहना व सब्र करना नहीं आता। बस, जल्द से जल्द काम हो जाए, उसके लिए कुछ भी करना या देना पड़े, हम दे देंगे। हम सभी को यह बात मालूम है, पर फिर भी हम यही कहते हैं कि भाई, भ्रष्टाचार बहुत बढ़ गया है। कोई भी काम करवाने के लिए कुछ देना ही पड़ता है।
 
हमारे देश में 45 फीसदी लोगों को रिश्वत देकर अपना काम करवाना पड़ता है। यह बहुत शर्म की बात है। ये लोग अपनी मर्जी से नहीं बल्कि मजबूरी में रिश्वत देते हैं। कुछ लोगों की वजह से रिश्वतखोरों की आदत बिगड़ गई है। अब इनको हर काम के लिए कमीशन चाहिए। अब तो जनता भी ऐसी नौकरी तलाशती है जिसमें 'ऊपरी कमाई' ज्यादा हो।
 
ये तो बस घपले हैं, जो कि सामने नहीं आते और मालूम सबको होते हैं। इनसे कोई फर्क भी नहीं पड़ता। सामने आते हैं तो वे हैं घोटाले। भारत में घोटाले होने का सीधा अर्थ है कि सरकार कुछ कर रही है और लोकतंत्र अभी जिंदा है। विपक्ष को भी विधानसभा तथा लोकसभा में हंगामा करने का मौका मिल जाता है।
 
आजादी से अब तक न जाने कितने घोटाले हुए, कितनों की ही सीबीआई जांच हुई, कितनी ही एफआईआर लिखी गईं, कितनी ही रिपोर्टें बनीं, कोई गिनती नहीं है और सजा तो शायद ही किसी को मिली होगी। बिहारी बाबू को इससे दूर रखा जाए। घोटालों में कुछ मिले या न मिले, परंतु सीबीआई की जांच जरूर मिलती है।
 
आज तो चुनाव के वे दिन याद आ रहे हैं, जब सभी राजनीतिक पार्टियां एक-दूसरे के कार्यकाल में हुए भ्रष्टाचार के गड़े मुद्दे उखेड़कर जनता से वोट मांगती थीं और साथ ही यह वादा भी करती थीं कि उनकी पार्टी भ्रष्टाचार पर लगाम लगाएगी और भ्रष्टाचारियों को जेल भेजेगी। 'घोटाला', 'भ्रष्टाचार', 'किसान', 'गरीब', 'रोजगार' ये सभी शब्द चुनाव के समय ही सुनाई देते हैं तथा वोट पाने में सहायक भी हैं। इन अहम मुद्दों को कोई सुलझाना ही नहीं चाहता। शायद फंड रुकने का डर है या वोटबैंक का, पर हमारे देश की जनता के पास समय कहां है। वह तो काफी व्यस्त है जातिवाद, फिल्म, हिन्दू-मुसलमान, राष्ट्रवाद जैसी चीजों में।
 
हाल ही में एक अखबार में पढ़ा कि लैंड मॉर्टगेज का ऋण अदा न करने पर एसडीजेएम सौरभ गुप्ता की कोर्ट ने एक किसान को 2 साल का कठोर कारावास तथा 6 लाख रुपए जुर्माना लगाया है। किसान की गलती बस इतनी थी कि उसने बैंक से 6-6 लाख के 2 कर्ज लिए थे और समय पर उसकी अदायगी नहीं कर पाया था। और वहीं दूसरी तरफ हमारे देश के कुछ लोगों पर बैंक इतनी मेहरबान है कि 6-6 साल तक कुछ कहती ही नहीं है। यहां किसान को सजा हो गई और दूसरी तरफ लोग 'विदेश' चले जा रहे हैं।
 
अब तो हर रोज किसी न किसी बैंक के किस्सों से अखबार भरा रहता है। सारे कानून बस आम जनता, किसान और गरीब को दबाकर रखने के लिए ही हैं शायद। जिस प्रकार एक बालक घर पर आए मेहमानों के जाने का लालचभरा इंतजार करता है, आज जनता का भी लगभग यही हाल है। हर कोई यही सोच रहा है कि कब ये जेल जाएंगे और कब पैसा वापस मिलेगा?

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