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घरेलू महिलाओं के अस्तित्व से जुड़े प्रश्न

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ललि‍त गर्ग

एक महिला एक कंपनी में काम करती है। निश्चित अवधि एवं निर्धारित दिनों तक काम करने के बाद उसे एक निर्धारित राशि वेतन के रूप में मिलती है। उसके इस कार्य को और उसके इस क्रम को राष्ट्रीय उन्नति के योगदान के रूप में देखा जाता है। यह माना जाता है कि देश के आर्थिक विकास में अमुक महिला का योगदान है।

 
दूसरी ओर एक महिला शादी के बाद नई घर-गृहस्थी में जाती है। वह सुबह उठने से लेकर रात के सोने तक अनगिनत सबसे मुश्किल कामों को करती है। अगर हम यह कहें कि घर संभालना दुनिया का सबसे मुश्किल काम है, तो शायद गलत नहीं होगा। दुनिया में सिर्फ यही एक ऐसा पेशा है, जिसमें 24 घंटे, सातों दिन आप काम पर रहते हैं, हर रोज क्राइसिस झेलते हैं, हर डेडलाइन को पूरा करते हैं और वह भी बिना छुट्टी के। सोचिए, इतने सारे कार्य-संपादन के बदलने में वह कोई वेतन नहीं लेती। उसके परिश्रम को सामान्यतः घर का नियमित काम-काज कहकर विशेष महत्व नहीं दिया जाता। साथ ही उसके इस काम को राष्ट्र की उन्नति में योगभूत होने की संज्ञा भी नहीं मिलती। जबकि उतना काम नौकर-चाकर के द्वारा कराया जाता, तो अवश्य ही एक बड़ी राशि वेतन के रूप में चुकानी पड़ती। 
 
घर के लगभग सभी कामों का दायित्व एक महिला अपने ऊपर ओढ़ती है, फिर भी इस दृष्टि से नहीं सोचा जाता कि वह भी आर्थिक योगदान कर रही है। ऐसी महिलाएं घर की इनकम में सीधे कुछ नहीं जोड़ती, इसलिए उसके काम की कोई इकनॉमिक वैल्यू नहीं समझी जाती। जीडीपी के नाम से देश की दौलत का जो सालाना हिसाब लगाया जाता है, उसमें वही इनकम शामिल होती है, जिसमें पैसे का लेनदेन हुआ हो। यह कहने की जरूरत नहीं, कि परिवार में एक हाउस वाइफ की क्या अहमियत होती है और उसके बिना समाज नहीं चल सकती। लेकिन उसके काम को अनउत्पादक समझ लिया जाना, उसकी हैसियत को गिराता ही नहीं, बल्कि उसके अस्तित्व और अस्मिता को भी खत्म कर देता है। 
 
इन दिनों हाऊसवाइफ के अस्तित्व को लेकर ऐसी व्यापक चर्चाएं हैं। सोशल मीडिया पर हाऊसवाइफ की सक्रियता से उन्हीं के बीच ऐसे प्रश्न उछलने लगे हैं कि क्या हाऊसवाईफ का परिवार, समाज और देश के प्रति योगदान नगण्य है? क्या हाऊसवाइफ का कोई अस्तित्व नहीं? क्या उसे आर्थिक निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं? क्या हाऊसवाइफ सिर्फ बच्चे पैदा करने और घर संभालने के लिए होती है? क्यों हाऊसवाइफ का योगदान देश के विकास में एक पुरुष से कमतर आंका जाता हैं? हाउसवाइफ को उनके काम के बदले सैलरी का प्रावधान होना ही चाहिए?
 
ये और ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनपर न केवल देश में बल्कि दुनिया में जागरूकता का वातावरण बन रहा है। इस विषय ने नारी जागृति एवं महिला सशक्तीकरण के अभियानों को भी आंदोलित किया है। ऐसी चर्चाएं होना, एक सकारात्मक वातावरण घरेलू महिलाओं को लेकर बनना और सरकार की सोच में भी बदलाव आना निश्चित ही नारी के अस्तित्व को धुंधलकों से बाहर लाने का प्रयास कहा जाएगा। साथ ही भविष्य एक बड़ी चुनौतीपूर्ण समस्या पर समय रहते मानसिकता को विकसित करने का वातावरण बनेगा।
 
सभी के सामने यह एक ज्वलंत प्रश्न है कि आखिर समाज और राष्ट्र की मान्यताएं क्या हैं? विकास का सही मायने में अर्थ क्या है? क्या नारी अस्मिता के सामने हमेशा प्रश्नचिन्ह लगा रहेगा? काफी समय पहले तक महिलाएं घर के बाहर कदम नहीं रखती थीं और यह धारणा थी कि परिवार की रीढ़ पुरुष होता है। पुरुष के कंधों पर ही परिवार का संपूर्ण अर्थतंत्र टिका होता है। उन्होंने उच्च शिक्षा की ओर कदम बढ़ाए एवं बाहर के कार्यक्षेत्र को भी सफलतापूर्वक अंजाम देने में अपने परचम लहराए। वह स्वावलंबी बनी। कभी पुरुष अर्थ की धुरी माना जाता था। किंतु आज महिला ने भी अर्थ की धुरी बनकर दिखा दिया है। इन सकारात्मक स्थितियों के बीच उस महिला के संदर्भ में भी सोचना जरूरी है, जो वेतन तो नहीं पाती है, किंतु सुबह से देर रात तक घर का काम करती है। क्या आर्थिक सहयोग की श्रेणी में उसका योगदान नहीं है? प्रचलित मान्यताओं और आम धारणाओं पर हमें पुनर्चिंतन करना होगा। साथ ही सोच के नजरिए को सकारात्मक दृष्टिकोण में बदलना होगा।
 
मान्यताएं देश, काल, परिस्थिति और वातावरण के अनुसार करवट लेती रहती है। समाज यदि इसके अनुकूल ढलता जाता है तो विकास को सही दिशा मिल जाती है। यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो सब कुछ उल्टा-पुल्टा होता चला जाता है और विकास की जिस परिकल्पना को लेकर हम चल रहे हैं, वह उद्देश्य चूर-चूर हो जाता है।
 
हाउसवाइफ के घरेलू भूमिका और उसके आर्थिक मूल्यांकन का काम कई मोर्चों पर चल रहा है। हमारे देश में भी और बाहर भी। सन् 2004 में एक हाईकोर्ट कह चुका है कि हाउसवाइफ की कम से कम वैल्यू रुपयों में माहवार निश्चित होना चाहिए। केरल में हाउसवाइफ के लिए मासिक भत्ते की मांग भी सामने आ चुकी है। बांगलादेश के वित्तमंत्री का मानना है कि हाउस कीपिंग की वैल्यू तय की जानी चाहिए। लेकिन बात इतनी ही नहीं है। हाउसवाइफ की वैल्यू तो निश्चित हो ही जाएगी लेकिन उससे बड़ा चिंताजनक प्रश्न हाउसवाइफ के अस्तित्व को ही समाप्त करने की मानसिकता से जुड़ा है।  
 
स्वीडन के जर्नलिस्ट पीटर लेटमार्क ने लेख में ‘हाउसवाइफ होने का दाग’ में अनेक चिंताजनक स्थितियों को प्रस्तुत किया है। इस लेख में घरेलू कामकाम की जटिल होनी स्थितियों और उनमें निष्क्रिय होती महिलाओं की भूमिका को उठाया गया है। उनका यह लेख न्यूयार्क टाइम्स में छपा है। स्वीडन और नॉर्वे में हाउसवाइफ कहलाना बेइज्जती माना जा रहा है, महिलाएं हाउस कीपिंग से तौबा कर रही है।
 
ऐसा अकेले स्वीडन नॉर्वे में नहीं, भारत में भी हो रहा है। हालांकि यहां हाउसवाइफ अभी गायब नहीं हुई हैं और ऐसा होने में बरसों लग जाएंगे, लेकिन हाउसकीपिंग को अब पुराने जमाने की दकियानूसी मानकर नीची नजर से देखा जाता है। न्यू जेनरेशन की लड़कियां इसके लिए कतई तैयार नहीं है।
 
लिहाजा हम उन जटिल स्थितियों की ओर अग्रसर हो रहे हैं, जहां हमारे लिए भी घरेलू काम-काज चुनौती बन कर प्रस्तुत होगा, भले ही हम घरेलू महिलाओं के श्रम को आर्थिक मूल्य देने को तो तैयार हो जाएं, लेकिन तब तक परिवार का यह महत्वपूर्ण सेक्टर खतरे में पड़ चुका होगा। हमें हाउसकीपिंग की जरूरत लगभग पहले जितनी है, बल्कि वह और बढ़ी है, उस बढ़ी जरूरत को पूरा करना हमारे लिए चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। हमें हाउसकीपिंग की वैल्यू तय करके उसकी इज्जत तो लौटानी ही होगी, साथ ही पुरुषों को इसके लिए आगे आना होगा। उन्हें घरेलू काम-काज में बराबर का हाथ बंटाना होगा। महिलाओं के इस एकाधिकार क्षेत्र को संतुलित करने के लिए पुरुषों को भी सहभागिता निभानी होगी। हमारे सामने स्वीडन का मॉडल है। वहां मर्दों को कई महीनों की पैटरनिटी लीव तो मिलती ही है, इसके लिए इंसेंटिव भी दिए जाते हैं। वहां के समाज में इससे इतना फर्क आ गया है कि बेबी पाउडर के ऐड में महिलाओं की जगह पुरुष नजर आते हैं। ऐसे मर्द आम हैं, जो पैटरनिटी लीव पर चल रहे हैं। 
 
हमारा देश विकास की ओर अग्रसर है, महिलाओं से जुड़ा यह मसला भी विकास से ही जुड़ा है। जरूरत इस बात की है कि विकास की परिभाषा सही हो, विकास के मायने सही हों, तभी विकास की कल्पना को सही अर्थों में साकार रूप देकर सार्थक किया जा सकता है। 
 

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