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दीपावली पर्व भीतर से जागृति का संदेश देता है

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ललि‍त गर्ग

दीपावली का त्योहार भारतीय संस्कृति का गौरव है, क्योंकि दीपावली रोशनी का पर्व है और दीया प्रकाश का प्रतीक है और तमस को दूर करता है। यही दीया हमारे जीवन में रोशनी के अलावा हमारे लिए जीवन की सीख भी है, जीवन निर्वाह का साधन भी है। दीया भले मिट्टी का हो, मगर वह हमारे जीने का आदर्श है, हमारे जीवन की दिशा है, संस्कारों की सीख है, संकल्प की प्रेरणा है और लक्ष्य तक पहुंचने का माध्यम है। 
 
दीपावली मनाने की सार्थकता तभी है, जब भीतर का अंधकार दूर हो। अंधकार जीवन की समस्या है और प्रकाश उसका समाधान। जीवन जीने के लिए सहज प्रकाश चाहिए। प्रारंभ से ही मनुष्य की खोज प्रकाश को पाने की रही। 
 
दीपावली पर्व एक, पर्याय अनेक हैं- इस पर्व का प्रत्येक भारतीय उल्लास एवं उमंग से स्वागत करता है। दीपावली का न केवल धार्मिक दृष्टि से बल्कि आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, भौतिक दृष्टि से भी विशेष महत्व है। भगवान महावीर का निर्वाण दिवस- दीपावली, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का आसुरी शक्तियों पर विजय के पश्चात अयोध्या आगमन का ज्योति दिवस- दीपावली, तंत्रोपासना एवं शक्ति की आराधक मां काली की उपासना का पर्व- दीपावली, धन की देवी महालक्ष्मी की आराधना का पर्व- दीपावली, ऋद्धि-सिद्धि, श्री और समृद्धि का पर्व- दीपावली, आनंदोत्सव का प्रतीक वात्स्यायन का श्रृंगारोत्सव- दीपावली, ज्योति से ज्योति जलाने का पर्व- दीपावली। यह पर्व हमारी सभ्यता एवं संस्कृति की गौरव-गाथा है।
 
प्रत्येक भारतीय की रग-रग में यह पर्व रच-बस गया है। जो महापुरुष उस भीतरी ज्योति तक पहुंच गए, वे स्वयं ज्योतिर्मय बन गए। जो अपने भीतरी आलोक से आलोकित हो गए, वे सबके लिए आलोकमय बन गए। जिन्होंने अपनी भीतरी शक्तियों के स्रोत को जगाया, वे अनंत शक्तियों के स्रोत बन गए और जिन्होंने अपने भीतर की दिवाली को मनाया, लोगों ने उनके उपलक्ष्य में दिवाली का पर्व मनाना प्रारंभ कर दिया।
 
यह बात सच है कि मनुष्य का रुझान हमेशा प्रकाश की ओर रहा है। अंधकार को उसने कभी न चाहा न कभी मांगा। 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' भक्त की अंतर-भावना अथवा प्रार्थना का यह स्वर भी इसका पुष्ट प्रमाण है। 'अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल' इस प्रशस्त कामना की पूर्णता हेतु मनुष्य ने खोज शुरू की। उसने सोचा कि वह कौन-सा दीप है, जो मंजिल तक जाने वाले पथ को आलोकित कर सकता है। 
 
अंधकार से घिरा हुआ आदमी दिशाहीन होकर चाहे जितनी गति करे, सार्थक नहीं हुआ करती। आचरण से पहले ज्ञान को, चारित्र-पालन से पूर्व सम्यक्त्व को आवश्यक माना गया है। ज्ञान जीवन में प्रकाश करने वाला होता है। शास्त्र में भी कहा गया- 'नाणं पयासयरं' अर्थात ज्ञान प्रकाशकर है। अंधकार हमारे अज्ञान का, दुराचरण का, दुष्ट प्रवृत्तियों का, आलस्य और प्रमाद का, बैर और विनाश का, क्रोध और कुंठा का, राग और द्वेष का, हिंसा और कदाग्रह का अर्थात अंधकार हमारी राक्षसी मनोवृत्ति का प्रतीक है।
 
जब मनुष्य के भीतर असद् प्रवृत्ति का जन्म होता है, तब चारों ओर वातावरण में कालिमा व्याप्त हो जाती है। अंधकार ही अंधकार नजर आने लगता है। मनुष्य हाहाकार करने लगता है। मानवता चीत्कार उठती है। अंधकार में भटके मानव का क्रंदन सुनकर करुणा की देवी का हृदय पिघल जाता है। ऐसे समय में मनुष्य को सन्मार्ग दिखा सके, ऐसा प्रकाश स्तंभ चाहिए। इन स्थितियों में हर मानव का यही स्वर होता है कि- 'प्रभो, हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। बुराइयों से अच्छाइयों की ओर ले चलो। मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो...।' इस प्रकार हम प्रकाश के प्रति, सदाचार के प्रति, अमरत्व के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करते हुए आदर्श जीवन जीने का संकल्प करते हैं।
 
प्रकाश हमारी सद्प्रवृत्तियों का, सद्ज्ञान का, संवेदना एवं करुणा का, प्रेम एवं भाईचारे का, त्याग एवं सहिष्णुता का, सुख और शांति का, ऋद्धि और समृद्धि का, शुभ और लाभ का, श्री और सिद्धि का अर्थात दैवीय गुणों का प्रतीक है। यही प्रकाश मनुष्य की अंतरचेतना से जब जागृत होता है, तभी इस धरती पर सतयुग का अवतरण होने लगता है। 
 
प्रत्येक व्यक्ति के अंदर एक अखंड ज्योति जल रही है। उसकी लौ कभी-कभार मद्धिम जरूर हो जाती है, लेकिन बुझती नहीं है। उसका प्रकाश शाश्वत प्रकाश है। वह स्वयं में बहुत अधिक दैदीप्यमान एवं प्रभामय है। इसी संदर्भ में महात्मा कबीरदासजी ने कहा था- 'बाहर से तो कुछ न दीसे, भीतर जल रही जोत'।
 
दीपावली का पर्व ज्योति-ज्योत का पर्व है। दीपावली का पर्व पुरुषार्थ का पर्व है। यह आत्म-साक्षात्कार का पर्व है। यह अपने भीतर सुषुप्त चेतना को जगाने का अनुपम पर्व है। यह हमारे आभामंडल को विशुद्ध और पर्यावरण की स्वच्छता के प्रति जागरूकता का संदेश देने का पर्व है।
 
यद्यपि लोकमानस में दीपावली एक सांस्कृतिक पर्व के रूप में अपनी व्यापकता सिद्ध कर चुका है। फिर भी यह तो मानना ही होगा कि जिन ऐतिहासिक महापुरुषों के घटना-प्रसंगों से इस पर्व की महत्ता जुड़ी है, वे अध्यात्म जगत के शिखर-पुरुष थे। इस दृष्टि से दीपावली पर्व लौकिकता के साथ-साथ आध्यात्मिकता का भी अनूठा पर्व है।
 
हमारे भीतर अज्ञान का तमस छाया हुआ है। वह ज्ञान के प्रकाश से ही मिट सकता है। ज्ञान दुनिया का सबसे बड़ा प्रकाश दीप है। जब ज्ञान का दीप जलता है, तब भीतर और बाहर दोनों आलोकित हो जाते हैं। अंधकार का साम्राज्य स्वत: समाप्त हो जाता है। ज्ञान के प्रकाश की आवश्यकता केवल भीतर के अंधकार मोह-मूर्छा को मिटाने के लिए ही नहीं, अपितु लोभ और आसक्ति के परिणामस्वरूप खड़ी हुई पर्यावरण प्रदूषण और अनैतिकता जैसी बाहरी समस्याओं को सुलझाने के लिए भी जरूरी है।
 
आतंकवाद, भय, हिंसा, प्रदूषण, अनैतिकता, ओजोन परत का नष्ट होना आदि समस्याएं 21वीं सदी के मनुष्य के सामने चुनौती बनकर खड़ी हैं। आखिर इन समस्याओं का जनक भी मनुष्य ही तो है, क्योंकि किसी पशु अथवा जानवर के लिए ऐसा करना संभव नहीं है। अनावश्यक हिंसा का जघन्य कृत्य भी मनुष्य के सिवाय दूसरा कौन कर सकता है? आतंकवाद की समस्या का हल तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि मनुष्य अनावश्यक हिंसा को छोड़ने का प्रण नहीं करता।
 
मोह का अंधकार भगाने के लिए धर्म का दीप जलाना होगा। जहां धर्म का सूर्य उदित हो गया, वहां का अंधकार टिक नहीं सकता। एक बार अंधकार ने ब्रह्माजी से शिकायत की कि सूरज मेरा पीछा करता है और वह मुझे मिटा देना चाहता है। ब्रह्माजी ने इस बारे में सूरज को बोला तो सूरज ने कहा- 'मैं अंधकार को जानता तक नहीं, मिटाने की बात तो दूर, आप पहले उसे मेरे सामने उपस्थित करें। मैं उसकी शक्ल-सूरत देखना चाहता हूं।' ब्रह्माजी ने उसे सूरज के सामने आने के लिए कहा तो अंधकार बोला- 'मैं उसके पास कैसे आ सकता हूं? अगर आ गया तो मेरा अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।'
 
हालांकि दीपावली एक लौकिक पर्व है। फिर भी यह केवल बाहरी अंधकार को ही नहीं, बल्कि भीतरी अंधकार को मिटाने का पर्व भी बने। हम भीतर में धर्म का दीप जलाकर मोह और मूर्छा के अंधकार को दूर कर सकते हैं। 
 
दीपावली के मौके पर सभी आमतौर से अपने घरों की साफ-सफाई, साज-सज्जा और उसे संवारने-निखारने का प्रयास करते हैं। उसी प्रकार अगर भीतर चेतना के आंगन पर जमे कर्म के कचरे को बुहारकर साफ किया जाए, उसे संयम से सजाने-संवारने का प्रयास किया जाए और उसमें आत्मारूपी दीपक की अखंड ज्योति को प्रज्वलित कर दिया जाए तो मनुष्य शाश्वत सुख, शांति एवं आनंद को प्राप्त हो सकता है। 
 
महान दार्शनिक संत आचार्यश्री महाप्रज्ञजी लिखते हैं- 
 
'हमें यदि धर्म को, अंदर को, प्रकाश को समझना है और वास्तव में धर्म करना है तो सबसे पहले इन्द्रियों को बंद करना सीखना होगा। आंखें बंद, कान बंद और मुंह बंद- ये सब बंद हो जाएंगे तो फिर नाटक या टीवी देखने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। नाटक देखने की जरूरत उन्हें पड़ती है, जो अंतर-दर्शन में नहीं जाते। यदि आप केवल आधे घंटे के लिए सारी इन्द्रियों को विश्राम देकर बिलकुल स्थिर और एकाग्र होकर अपने भीतर झांकना शुरू कर दें और इसका नियमित अभ्यास करें तो एक दिन आपको कोई ऐसी झलक मिल जाएगी कि आप रोमांचित हो जाएंगे। आप देखेंगे कि भीतर का जगत कितना विशाल है, कितना आनंदमय और प्रकाशमय है। वहां कोई अंधकार नहीं है, कोई समस्या नहीं है। आपको एक दिव्य प्रकाश मिलेगा।' 
 
दीपावली पर्व की सार्थकता के लिए जरूरी है कि दीये बाहर के ही नहीं, दीये भीतर के भी जलने चाहिए, क्योंकि दीया कहीं भी जले, उजाला ही देता है। दीये का संदेश है- हम जीवन से कभी पलायन न करें, जीवन को परिवर्तन दें, क्योंकि पलायन में मनुष्य के दामन पर बुजदिली का धब्बा लगता है, जबकि परिवर्तन में विकास की संभावनाएं जीवन की सार्थक दिशाएं खोज लेती हैं। 
 
असल में दीया उन लोगों के लिए भी चुनौती है, जो अकर्मण्य, आलसी, निठल्ले, दिशाहीन और चरित्रहीन बनकर सफलता की ऊंचाइयों के सपने देखते हैं जबकि दीया दुर्बलताओं को मिटाकर नई जीवनशैली की शुरुआत का संकल्प है।

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