Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

जर्जर कांधों पर जिम्मेदारियों का वजन

हमें फॉलो करें जर्जर कांधों पर जिम्मेदारियों का वजन

अनिल शर्मा

श्रमिक! ! दिहाड़ी...। जिम्मेदारी से परिपूर्ण शब्द जिनके खून-पसीने ने संसार को श्वास दे रखी है। तपती धूप, तेज बारिश, प्राकृतिक आपदा, शारीरिक पीड़ा इत्यादि से शनासाई करने वाले इन श्रमिकों या मजदूरों या कहिए कि दिहाड़ी लोगों का पूरा जीवन मेहनत-मशक्कत में गुजर जाता है, फिर भी अभावों का मकड़जाल उन्हें अपने पाश में बांधे रखता है जबकि श्रमिकों के हित में अनेक सरकारी योजनाएं चलायमान हैं।
 
बरसों हो गए फिर भी श्रमिक या मजदूर अभी भी रो रहे हैं। या तो सरकारी योजनाओं की खबर नहीं इन्हें या योजनाओं का लाभ मौकापरस्त ही उठा रहे हैं। सरकारी न्यूनतम मजदूरी कितने मजदूरों को मिल रही है? यह विचारणीय है। मजदूरों या श्रमिकों के हित के लिए श्रम विभाग या श्रम मंत्रालय मौके-मौके पर कभी-कभी जाग उठता है और थोड़ी-बहुत कार्रवाई कर फिर सो जाता है, क्योंकि आकाओं को मालिकों से 'भेंट-पूजा' मिल ही जाती है। 
 
विभिन्न संस्थानों आदि में खुली मजदूरी करने वाले या काम करने वाले श्रमिकों को मिलने वाले जीवन बीमा या प्रॉविडेंट फंड का लाभ केवल 2 से 7 प्रतिशत के लगभग श्रमिकों को ही मिल पाता है। काम करने का समय सरकारी तौर पर 6 घंटे है जबकि काम पूरे 8 से 12 घंटे लिया जाता है।
 
सुरक्षाकर्मी
 
निजी तौर पर लोगों को सुरक्षा प्रदान करने वाले निजी सुरक्षा गार्ड को पूरे 12 घंटे तीसों दिन की ड्यूटी करना बताया जाता है। इसके अलावा ठेकेदारों द्वारा कस्टमर्स से इनकी पगार से दोगुना ज्यादा पैसा लिया जाता है। अगर एक जवान को ये ठेकेदार 12 घंटे के 6 या 7 हजार रुपए मासिक देते हैं तो नियोक्ता से ठेकेदारों या सिक्यूरिटी गार्ड कंपनी वाले 14-15 हजार रुपए लेते हैं और उसमें भी जवान को दी जाने वाली ड्रेस, सीटी, डंडा आदि के पैसे तनख्वाह में से काट लिए जाते हैं। इनके साथ सबसे बड़ी व्यथा यह है कि कम पगार होने के बावजूद समय पर भी वेतन नहीं मिलता है।
 
श्रमिकों की व्यथा

 
निजी तौर पर काम करने वाले श्रमिकों को वास्तविक रूप से 150 से 200 रुपए दिए जाते हैं, जबकि सरकारी रेट कुछ और ही है। इनसे भी 8 से 12 घंटे काम लिया जाता है। इनकी सुरक्षा के लिए नियोक्ता द्वारा या तो कोई साधन नहीं प्रदान किए जाते हैं और किए जाते भी हैं तो नाममात्र के। अगर इन श्रमिकों के साथ कोई दुर्घटना होती है और नियोक्ता असरदार होता है तो नियोक्ता के खिलाफ कार्रवाई तो दूर मीडिया भी कुछ 'ले-देकर' चुप बैठ जाता है।
 
बाल श्रमिक
 
बाल श्रम की समस्या देश के समक्ष अभी भी एक चुनौती बनकर खड़ी है। सरकार इस समस्या को सुलझाने के लिए विभिन्न सकारात्मक सक्रिय कदम उठा रही है। बाल श्रमिकों के हित में कानून भी बने हैं। इनके स्वास्थ्य और शिक्षा की अनेक योजनाएं मौजूद हैं। आखिरकार इनका लाभ इन्हें क्यों नहीं मिलता? या बाल श्रमिक लेते क्यों नहीं? 
 
सवाल बड़ा गंभीर है, क्योंकि जानते हुए भी अनजान हैं कि देश के लगभग 20 करोड़ बाल श्रमिक आज भी दिहाड़ी रूप में 50 से 60 रुपए में अपना श्रम बेचकर जैसे-तैसे अपना परिवार पाल रहे हैं। उनके लिए ये सरकारी योजनाएं किसी काम की इसलिए नहीं हैं, क्योंकि योजनाएं तो सरकार बना देती है, मगर इन्हें क्रियान्वित करने वाले अधिकारी औपचारिकता बतौर 5 से 7 प्रतिशत के लगभग बच्चों को इन योजनाओं का लाभ प्रदान कर देते हैं, खानापूर्ति के लिए। 
 
इन बच्चों की जहां तक शिक्षा का सवाल है तो शिक्षा को सरकार ने निजी लोगों के हाथों में सौंपकर बिकाऊ बना दिया है, ऐसे में ये बाल श्रमिक कैसे शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं? और स्वास्थ्य के लिए तो इनके लिए किसी अस्पताल का मुंह देखना भी कपोल-कल्पना है। कितनी विडंबना की बात है कि जिन कांधों पर जिम्मेदारियों का वजन है, वे कांधे आज जर्जर हो रहे हैं!

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

श्रीदेवी : एक लंबी अत्यंत सफल यात्रा का अचानक से अंत हो जाना