Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

कौन कहता है कि फ़ेसबुक अच्छे साहित्य की क़ब्रगाह है...

हमें फॉलो करें कौन कहता है कि फ़ेसबुक अच्छे साहित्य की क़ब्रगाह है...
webdunia

सुशोभित सक्तावत

ख्यात साहित्यकार उदयन वाजपेयी स्वयं फ़ेसबुक पर हैं। वे ट्व‍िटर पर ज़रूर नहीं हैं। और जैसा कि उनके हाल के कथन से अनुमान लगाया जा सकता है, वे फ़ेसबुक का भी ज़्यादा इस्तेमाल नहीं करते। यहां तक ठीक था। दिक़्क़त तब शुरू हुई, जब उन्होंने सोशल मीडिया के प्रति अपने ऐसे विचारों को व्यक्त किया, जो ना केवल तिथिबाह्य थे, बल्कि उनमें किंचित दुर्भावना की झलक भी दिखाई दी। उन्होंने कहा कि फ़ेसबुक पर लिखकर कभी कोई महान लेखक नहीं बना है और यह स्थान आलोचनात्मक विवेक की क़ब्रगाह है।
 
हिंदी के ऐसे अनेक साहित्यकार हैं, जो सोशल मीडिया या सूचना तकनीक के अन्य साधनों का उपयोग नहीं करते हैं। इनमें कई कथित प्रगतिशील कहलाने वाले साहित्यकार भी हैं, जो सोशल मीडिया के परिप्रेक्ष्य में सहसा निहायत परंपरागत रुख़ अख़्त‍ियार कर लेते हैं। मैंने निजी तौर पर हिंदी के लेखकों को ब्लॉगर और फ़ेसबुक के प्रति हिक़ारत के भाव से प्रतिक्रियाएं व्यक्त करते हुए देखा है। फ़ेसबुकिया लेखक करके तो एक पद भी चलन में है, जो कि दुर्भावना की ध्वनि देता है। अलबत्ता विष्णु खरे जैसे वरिष्ठ लेखक ब्लॉग जगत में पर्याप्त सक्रिय हैं। मंगलेश डबराल, असद ज़ैदी, उदय प्रकाश, कुमार अंबुज इत्यादि के भी फ़ेसबुक अकाउंट हैं, लेकिन बहुधा वे उनका इस्तेमाल साहि‍त्य‍िक विमर्श के बजाय राजनीतिक टिप्पणियां करने के लिए ही करते हुए बरामद होते हैं। 
 
हिंदी के इन साहित्यकारों के भावबोध के सर्वथा परे एक ऐसी पीढ़ी उभरकर सामने आई है, जो यह मानती है कि अगर आप फ़ेसबुक, लिंक्डइन, इंस्टाग्राम या ट्विटर पर नहीं हैं तो आपका कोई अस्त‍ित्व ही नहीं है। सोशल मीडिया आज विशेषकर युवाओं के जीवन का अभिन्न अंग बन गया है। हर नवोन्मेषी प्रविधि की तरह सोशल मीडिया की भी अच्छाइयां और बुराइयां हैं। लेकिन उसे सिरे से ख़ारिज़ कर देना तो ख़ैर बुद्ध‍िमानी नहीं कहलाएगी।
 
जब पहले-पहले ब्लॉगर चलन में आया था तो यह एक क्रांति की तरह था। सहसा, संपादकों और प्रकाशकों के वर्चस्व से मुक्त होकर साहित्य पाठकों तक अपनी सीधी पहुंच बना रहा था। कई उम्दा साहित्य‍िक पत्रिकाएं तब ब्लॉग-जगत में चलन में आई थीं, जैसे सबद, कबाड़ख़ाना, प्रतिलिपि, जानकीपुल, अनुनाद इत्यादि। इन ब्लॉग पर रचनाएं प्रकाशित की जातीं, उन पर टिप्पणियों का दौर चलता और कुल-मिलाकर किसी साहित्य‍िक पत्रिका में क्या छपना चाहिए और किसे छापा जाना चाहिए, इस पूर्वग्रह से परे एक उर्वर, जीवंत, प्राणवान और ऊर्जस्व‍ित रचना-संस्कृति अस्त‍ित्व में आई थी। उसने अपने समय में कई युवाओं के बौद्ध‍ि‍क विकास में महती भूमिका निभाई थी।
 
बाद उसके, फ़ेसबुक ने केंद्रीय स्थान ले लिया। आज अनेक ऐसे युवा लेखक हैं, जिन्हें कथादेश, ज्ञानोदय, आलोचना या वागर्थ में भले ही स्थान नहीं मिलता हो, लेकिन उनके फ़ेसबुक अकाउंट अपनी साहित्य‍िक गुणवत्ता के कारण अपनी एक पैठ बना चुके हैं और उन्हें खोज-खोजकर पढ़ा जाता है। शायक आलोक, अम्बर रंजना पांडेय जैसे कवि विशुद्ध रूप से फ़ेसबुक की उपज हैं और हिंदी की किसी बड़ी पत्रिका ने उन्हें अभी तक प्रकाशित नहीं किया है। इसके बावजूद आज उनका अपना एक पाठक वर्ग है। चूंकि फ़ेसबुक सोशल नेटवर्क, प्राइवेट मैसेजिंग, पर्सनल शेयरिंग आदि का भी माध्यम है, इसलिए इसमें आपको हर तरह के लोग हर तरह के मक़सद से सक्रिय नज़र आएंगे। यहां भाषा और विचार पर किसी तरह का फ़िल्टर नहीं होने के भी अपने ख़तरे हैं। लेकिन समूची फ़ेसबुक संस्कृति को ही इस आधार पर निरस्त कर देना तो पूर्वग्रह का परिचय देना होगा।
 
प्रसंगवश, उदयन वाजपेयी ने मणि कौल के सिनेमा पर अभेद आकाश शीर्षक से एक अत्यंत सुंदर पुस्तक प्रकाशित कराई है। मुझे नहीं मालूम, कितने लोगों ने उस पुस्तक को पढ़ा होगा। लेकिन उस पुस्तक से प्रेरणा लेकर मणि कौल पर मेरे द्वारा लिखी गई लेखमाला को अब तक हज़ारों लोग पढ़ चुके हैं और इसने मणि‍ के सिनेमा के प्रति जो नई रुचि जगाई है, उसी का परिणाम है कि आज उनकी फ़िल्में खोजकर देखी जा रही हैं। निश्च‍ित ही, फ़ेसबुक की प्रासंगिकता का इससे बेहतर उदाहरण उदयन वाजपेयी के निजी संदर्भ में कोई दूसरा नहीं हो सकता था।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

हिन्दू नए साल पर कविता : आओ, मनाएं प्रतिपदा