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जरा, अपने 'पुरुषत्व' पर विचार कीजिए

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प्रज्ञा पाठक

अभी मैंने अफगानिस्तान और ईरान की वेटलिफ्टर महिलाओं के विषय में पढ़ा कि कैसे वे अपने परिवार के तमाम विरोधों के बीच अपने  खेल को ज़िंदा रखे हुए हैं। अफगानिस्तान में तो परिवार के अतिरिक्त आईएसआईएस का भी खौफ बना रहता है। 
 
एशियन पावर लिफ्टिंग में सिल्वर मेडल जीतने वाली नसीमा के अनुसार अफगानिस्तान की लड़कियों का खेलों में करियर बनाना सीमा पर लड़ने जैसा खतरनाक है। प्रैक्टिस करने जाने पर यह पता नहीं होता कि शाम को घर लौट पाएंगी या नहीं? 
 
नसीमा ने खेल के लिए बड़ी कीमत चुकाई है। पति ने उन्हें इसी वजह से तलाक दे दिया। अपने 1 वर्ष के बच्चे सहित बीमार पिता और पांच भाई बहनों को जिम और स्टेडियम में( जहां वे प्रैक्टिस करती हैं )चपरासी की नौकरी कर पाल रही हैं ।
 
ऐसी ही कहानी दोनों देशों की अन्य कई महिला खिलाड़ियों की है। यह सब पढ़कर दुःख होना तो स्वाभाविक था,लेकिन न जाने क्यों ऐसा महसूस ही नहीं हुआ कि यह किसी अन्य देश की महिलाओं की कहानी है। महिलाओं पर परिवार ,समाज और पुरुषों के अत्याचार सार्वभौमिक हैं। कम-अधिक रूप में यह हर देश में होता है।
 
यह मेरी समझ से परे है कि जब ईश्वर ने नारी और पुरुष की रचना एक ही संज्ञा-'मानव'-देकर की है तो उनमें भेदभाव क्यों करें ? मात्र शारीरिक आधार पर दोनों परस्पर भिन्न हैं, लेकिन बुद्धि, भावना ,संवेदना क्षमता आदि सभी में समान रुप से संपन्न हैं।

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पहले कभी शारीरिक शक्ति में महिलाएं पुरुषों से कम मानी-समझी जाती थीं। अब तो उन्होंने पुरुषों वाले सभी कार्य दक्षता के साथ संपन्न कर इस बात को भी असत्य सिद्ध कर दिया।
 
जीवन के सभी कार्य क्षेत्रों में वे पुरुषों के साथ बराबरी की क्षमता का प्रदर्शन कर रही हैं। फिर क्यों हमारे समाज की सोच नहीं बदलती? 
 
क्यों पुरुष उन्हें दबाना चाहते हैं? क्यों वे उन्हें अपने समकक्ष नहीं देखना चाहते ?
 
पुरुषों को बुरा लगे तो अवश्य लगे , लेकिन मैं यकीन के साथ कह सकती हूं कि वे नारी को इसलिए प्रताड़ित करते हैं कि कहीं उनका सिंहासन ना छिन जाए। अपनी सत्ता को अक्षुण्ण रखने के लिए वे अपनी मां ,पत्नी,बहन,बेटी आदि सभी रिश्तों में नारी को शासित करते हैं। वे उनके नारी होने अर्थात् कम शक्तिसंपन्न होने का हवाला देते हुए उनका सुरक्षा कवच बनकर स्वयं की उन पर वरीयता साबित करने का प्रयास करते हैं।
 
जब अनुभव की बात आती है तो पुरुष स्वयं को बाहरी दुनिया का अधिक अनुभव होने का तर्क देते हैं,जो कहीं-कहीं सही होता है। उसका कारण भी है। जब आप नारी को बाहर निकलने देना नहीं चाहते तो वह कैसे अनुभव लेगी ? फिर वह यदि बाहर निकले तो अन्य पुरुष उसे अपनी बुरी नीयत का शिकार बना कर दमित करते हैं। यदि वह उनसे भी लड़ ले तो घर के पुरुष फिर इसी आधार पर डरा कर उनका बाहरी दुनिया से संपर्क काटने का प्रयास करते हैं।
 
कुल मिलाकर घर हो या बाहर, नारी पर पुरुष का दमन-चक्र चलता ही रहता है।
 
अरे कापुरुषों ! तनिक विचार तो करो, जब महिला हर रूप में आपके लिए आवश्यक है तो क्यों उस पर अत्याचार करते हो? मैं आपसे पूछती हूं कि क्या मां की ममता के बिना आप का निर्वाह संभव है ? क्या पत्नी के साहचर्य के बिना आपका जीवन अधूरा नहीं है ? क्या बहन के निर्मल व अखूट स्नेह के अभाव में आपको सूनापन नहीं लगेगा ? क्या बेटी की हार्दिकता को जिए बिना आप को सुकून मिलेगा ? नहीं ना?
 
फिर यह संकुचितता क्यों ?ह्रदय की ऐसी दरिद्रता लेकर कहां जाएंगे आप ? अपनी संतति के समक्ष क्या सिद्ध होंगे ? आने वाले समय को एक 'मानव' के रुप में क्या जवाब देंगे? इतिहास में क्या कोई सम्माननीय स्थान बना पाएंगे ?
 
जरा पूछिए अपनी आत्मा से। यदि इन सभी सुलगते प्रश्नों के जवाब आपके पास नहीं हैं,तो इसका सीधा सा आशय यह है कि आप मानवता के नाम पर एक धब्बा हैं।

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स्मरण रखिए, नारी अपने कोमल ह्रदय और संवेदना प्रधान स्वभाव के कारण आप से पराजित होती है। वह आपको 'अपना' मान कर पराजय में भी सुख अनुभूत करती है। जिसे आप अपनी जीत मानते हैं, वह आप की सबसे बड़ी हार है क्योंकि नारी आपसे श्रेष्ठ मानव सदा से सिद्ध होती आई है। 
 
उसने 'स्वयं' की कीमत देकर आपको बनाया, बचाया और आगे बढ़ाया।
 
थोड़ा तो स्वविवेक जागृत कीजिए और सोचिए कि एक पुरुष के 'पुरुषत्व' के सही मायने सिर्फ नारी को दबा कर उस पर शासन करने में हैं अथवा उसके साथ स्नेहपूर्वक समानता के भाव को जीकर अपना घर स्वर्ग बनाने में है?

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