Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

आखिर क्यों केजरीवाल ने की भेदभाव की राजनीति?

हमें फॉलो करें आखिर क्यों केजरीवाल ने की भेदभाव की राजनीति?
webdunia

डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र

हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के संघीय ढांचे की एक बड़ी कमी तब उभरकर सामने आई है, जब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली के अस्पतालों में केवल दिल्लीवासियों को ही उपचार उपलब्ध कराने का शासनादेश निर्गत कर वहां के समस्त प्रवासियों को महामारी के इस विकट संकट काल में चिकित्सा सुविधा से वंचित कर दिया। उनका तर्क है कि यदि अन्य प्रदेशों से आकर बसे लोगों को उपचार देंगे तो संसाधनों की कमी के कारण दिल्लीवासी रोगियों के लिए उपचार उपलब्ध कराने में कठिनाई होगी।
 
दिल्ली के एल.जी. महोदय ने मुख्यमंत्री के उक्त आदेश को पलटकर दिल्ली में रह रहे सभी भारतीयों को उपचार सुविधा उपलब्ध कराई है। केन्द्रीय प्रतिनिधि एल.जी. और राज्य के रहनुमा मुख्यमंत्री के आदेशों का यह विरोधाभास नया नहीं है। केन्द्र का भाजपा शासन और जिन राज्यों में भाजपा का शासन नहीं है उनके मध्य के विरोध पहले भी सामने आते रहे हैं। पारस्परिक विरोध की यह राजनीति अगर सामान्य भारतीय के हित में हो तो निश्चय ही स्वागत के योग्य है किन्तु यदि दलगत स्वार्थों के लिए, वोट बैंक की राजनीति के लिए यह विरोध किया जाय तो निश्चय ही चिंता का विषय है।
 
पश्चिम बंगाल, राजस्थान, पंजाब, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ आदि प्रांतों में जहां अन्य दलों की सरकारें हैं वहां केन्द्र सरकार के निर्देशों की अवहेलना अथवा केन्द्र सरकार द्वारा इन प्रदेशों को इनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित किया जाना- दोनों ही स्थितियां भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं हैं। केन्द्र शासन केवल उन राज्यों को ही सुविधा देने के लिए नहीं है, जहां उसके दल की सरकारें हों। न ही ऐसे राज्य केन्द्रीय नियंत्रण से मुक्त प्रांतीय नेतृत्व की स्वतंत्र जागीरे हैं जो भारतीयता की व्यापक अवधारणा को तिरस्कृत कर क्षेत्रीयता की संकीर्णता को प्रोत्साहित करें। 
 
प्रवासी मजदूरों, कर्मचारियों एवं अन्यान्य कारणों से अपने ही देश के अन्य राज्यों से आकर बसे भारतीयों को उनकी इच्छा के विरूद्ध अपने राज्य से बाहर निकालने के प्रयत्न, उनके मौलिक अधिकारों से उन्हें वंचित करने के ऐसे शासनादेश निश्चय ही गंभीर चिंता का विषय हैं क्योंकि ये देश की एकता, अखंडता और सार्वभौम सत्ता को प्रश्नांकित करते हैं।

मुंबई से प्रवासी मजदूरों की वापसी, कोटा (राजस्थान) से उप्र के छात्रों की वापसी और अब दिल्ली में अन्य राज्यों से आए लोगों के उपचार पर प्रतिबंध आदि कार्य यह सोचने पर विवश करते हैं कि क्या अब सत्ता के पदों पर बैठने के बाद निर्वाचित नेतृत्व पूरे समाज और संपूर्ण भारतीयता के लिए न होकर केवल अपने दल, अपने क्षेत्र, अपने समर्थकों तक ही सीमित रह कर कल्याण कार्य करेगा। यदि इस नकारात्मक दिशा में राजनीति आगे बढ़ेगी तो यह लोकतंत्र कितने दिन टिक सकेगा? राज्यों से केंद्र की टकराहट सर्वथा अशुभ है।
 
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारत एक है। आज भारत का कोई भी नागरिक देश के किसी भी भाग में जाकर बसने, कार्य-व्यवसाय करने के लिए स्वतंत्र है। किंतु यदि क्षेत्रीयता को राष्ट्रीयता से अधिक महत्व दिया गया तो निश्चय ही राष्ट्रीय अखंडता के लिए संकट खडे होंगे। अलगाववाद की विषवल्लरी क्षेत्रीयता की मरुभूमि में ही पनपती है। इसके विषैले फल क्षेत्रीय राजनीतिक दल विशेष को राज्य के सत्ता सिंहासन तक पहुंचाने के लिए भले ही मधुर लगें किंतु राष्ट्रीय संदर्भां में कडवे ही होंगे। भारत का मानचित्र भारत की एकता से ही संभव है।
 
इसलिए मेरी निम्नांकित पंक्तियां विचारणीय हैं-
 
यह क्षेत्रवाद की लपट अगर नभ चूमेगी
फिर कैसे कोई कहीं सुखी रह पाएगा।
हर भारतीय तजकर सारी सुख-सुविधाएं
अपने प्रांत तक सीमित हो रह जाएगा।।
कैसे विकास बादल फिर नभ में छाएंगे ?
कैसे भारत मां का नक्शा बन पाएगा ?
फिर सागर किसके पावन चरण पखारेगा ?
हिमवान किसे कंचन किरीट पहनाएगा ?
 
अतः भारत माता की छवि सुरक्षित रखने के लिए क्षेत्रीयता की अपेक्षा राष्ट्रीयता को अधिक महत्व दिए जाने की आवश्यकता है। प्रायः क्षेत्रीय दल इस आवश्यकता की उपेक्षा करते हुए दिखाई देते हैं। कोरोना के संकट काल में भी ऐसे संकेत सामने आए हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री का उपर्युक्त आदेश भी इसी उपेक्षा का साक्ष्य है।
           
आज कोरोना मरीजों की अबाध गति से बढ़ती संख्या हमारी अदूरदर्शी राजनीति का भी दुष्परिणाम है। दिल्ली की वर्तमान भयावह स्थिति के लिए वहां की सरकार भी कम दोषी नहीं है जिसने महामारी की भयावह संक्रामकता के बाबजूद लॉकडाउन खोलने की वकालत करके पहले आपदा को आमंत्रित कर आग में घी डालने का काम किया और जब अब कोरोना के मरीजों की संख्या सीमाएं पार कर रही है; पिछले सारे प्रतिमान तोड़कर बाढ़ की तरह बढ़ रही है तब अपने कर्तव्य की पूर्ति दिल्लीवासियों तक सीमित कर क्षेत्रीय लोकप्रियता अर्जित करने की, वोट बैंक मजबूत करने की कोशिशें जारी हैं।
 
हमारे महानगरों के निर्माण, विकास, प्रगति और उनकी वर्तमान समुन्नत-स्थिति की नींव में वहां के लोगों के साथ-साथ अन्य प्रांतों से आकर बसे लोगों का भी महत्वपूर्ण योगदान है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता और न ही किया जाना चाहिए। हमारी अवधारणा भारतीयता की है, क्षेत्रीयता की नहीं। राज्य को आगे रखकर भारत को पीछे नहीं रखा जा सकता क्योंकि राज्य भारत का एक अंग है, संपूर्ण भारत नहीं। हमारा संविधान ‘हम भारत के लोग’ का उद्घोष करता है, ‘हम अमुक क्षेत्र के लोग’ का नहीं। अतः हमारे प्रयत्न भी बिना किसी भेदभाव के सारे भारत के लोगों की सेवा और सुरक्षा के लिए होना चाहिए। राष्ट्रीय आपदा के संकट काल में तो इस भारतीय-भाव की पुष्टि और भी आवश्यक है।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
 


Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

पितृ दिवस पर कविता : जीवन में जरूरी है नदी की मिठास