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पसीना सुखाने की आदत हमें कहीं पसीना-पसीना न कर दे...

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स्वरांगी साने

पसीना सुखाने या कहें पसीना ही न आए, इसलिए एयर कंडीशनर्स (एसी) का उपयोग शहरी जीवनशैली में आम होता जा रहा है। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि हमारी यही आदत कल को हमें इतना शर्मसार कर दे कि हम पसीना-पसीना हो जाएं। एक एसी न केवल आपके बिजली के बिल को बढ़ाता है बल्कि पर्यावरण का जो नुकसान करता है उसका हर्जाना भर पाना मुश्किल है। 
वास्तव में एसी को केवल और केवल मशीनों की कार्यप्रणाली को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए ही ईजाद किया गया था। जैसे दफ्तरों में एसी की कूलिंग से तमाम कम्‍प्यूटर्स एक गति में काम कर पाते हैं। मतलब एसी कम्‍प्यूटर्स के लिए हैं, इंसानों के लिए नहीं। लेकिन अब एसी हर जगह है, घरों में, ऑफ़िस में, मीटिंग रूम्स में, अस्पतालों में, मॉल्स में, थिएटर्स-सिनेमा हॉल में….सभी सार्वजनिक स्थानों पर इनका उपयोग नहीं अतिउपयोग धड़ल्ले से हो रहा है। इन जगहों पर एसी का तापमान इतना कम कर दिया जाता है कि कई बार ठिठुरन महसूस होने लगती है।
 
आईआईटी पवई से बीटेक पुरुषोत्तम दायमा बताते हैं, पहले एसी का प्रयोग अधिकांश इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के लिए किया जाता था क्योंकि अधिक ऊष्मा उन उपकरणों के लिए योग्य नहीं होती थी और ज़रूरी था कि उनका तापमान 25 डिग्री सेल्सियस से कम बना रहे। हालांकि अब अधिकांश कम्‍प्यूटर्स और लैपटॉप इस तरह से बनाए जाने लगे हैं जो 30 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान पर भी काम कर सकते हैं। ऐसे उपकरणों का अपना कूलिंग सिस्टम होता है। जाहिर है अब एसी का काम उन लोगों को सुकून देना भर रह गया है जो प्रकृति के साथ सामंजस्य नहीं बैठा सकते जैसा कि हज़ारों साल पहले उनके पूर्वज बैठा पाते थे।
 
मुंबई जैसे बड़े शहरों के आवासीय संकुलों में 24 घंटे एसी चलता रहता है और इन घरों का सबसे ज़्यादा चलने वाला उपकरण यही एक बनकर रह गया है। वे कहते हैं, हमारे ही परिवार का उदाहरण लें तो कभी हमारे यहां दो महीने का अधिकतम बिजली बिल 800 रुपए आता था, जिसमें सबसे ज़्यादा बिजली खर्च करने वाला उपकरण फ्रिज होता था जिस पर हर महीने 100 यूनिट जाया होती थी, लेकिन अब मेरी भतीजी ने उसके कमरे में एसी लगवा लिया और अब दो महीने का बिल 6600 रुपए तक आने लगा।
 
सवाल केवल पैसों का नहीं है। हमारे देश में एसी के लिए फ्रियॉन जैसी गैसों का उपयोग होता है, जो ओजोन परत के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है। भारत में एक खास लॉबी के लोग एसी में उन गैसों का उपयोग करने से रोकते हैं जो पर्यावरण के अनुकूल हो। उनका तर्क है कि पर्यावरण के अनुकूल होने वाली गैसों पर पैसा ज़्यादा खर्च होता है। इसके चलते इन हानिकारक गैसों का उपयोग एसी से होने वाले प्रदूषण में वृद्धि करता है। 
 
यह भी गौरेतलब है कि पाश्चात्य परिधान के साथ सूट पहनना या गले में टाई लगाना ठंडे देशों के लिए उपयुक्त है क्योंकि वहां का अधिकतम तापमान सालभर भी अमूमन 15 डिग्री से कम ही होता है, लेकिन हमारे यहां के दफ़्तरों और अस्पतालों में भी एक्‍जीक्यूटिव्स सूट पहने घूमते हैं और उनके लिए कंपनियां सेंट्रल एयर कंडीशनिंग की सुविधा प्रदान करती हैं।
 
दायमा कहते हैं, मैं कई अस्पतालों में गया हूं जहां के कुछ डॉक्टर्स और ऑपरेटर्स एयर हीटर भी चालू रखते हैं ताकि ऊष्मा बनी रहे। वहां मरीज़ों को ज़रूरत पड़ने पर दो कंबल तक दिए जाते हैं। बाह्य चिकित्सा विभाग (ओपीडी) के मरीज़ों को ठंडक अत्यधिक होने पर अत्यधिक ठंड की वजह से कई बार टॉयलेट जाना पड़ता है। यदि महज़ एक डिग्री तापमान बढ़ा दें तो अस्पताल हर महीने लाखों रुपए की बचत कर सकते हैं लेकिन उस बारे में कोई नहीं सोचता। 
 
उसी तरह ऑफ़िस में काम करने वाले दफ़्तर से निकलते ही कोट उतार देते हैं और जैसे ही कार में बैठते हैं, दुबारा पहन लेते हैं। यह तो ऊर्जा के साथ धन का भी अपव्यय है। इतना ही नहीं यह तो सरासर मानवीय सेहत और उससे भी बढ़कर पर्यावरण का ह्रास है। लेकिन मैंने यह भी देखा है कि हममें से ही कई 25 डिग्री तापमान पर भी पसीना-पसीना होने लगते हैं। कई कारों में एसी की सेटिंग ऐसी होती है उसका तापमान 20 डिग्री से अधिक बढ़ाया ही नहीं जा सकता। 
 
मैं कई दफ़्तरों और अस्पतालों में गया हूं जहां 18 डिग्री तापमान होता है, जिससे सभी ठिठुरते हैं और गर्मियों में भी स्वेटर पहनते हैं। ध्यान दीजिए इससे उनका कुछ नहीं जाता क्योंकि वे उसे उपभोक्ता की जेब से वसूल लेते हैं। आपको बता दें कि कमरे के भीतर के तापमान को एक डिग्री सेल्सियस कम करने भर से हम वातावरण के तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की हलचल मचा देते हैं, जिसके सुदूर परिणाम हमें भुगतने पड़ सकते हैं।
 
दायमा कहते हैं कि थर्मोडायनैमिक्स का नियम है कि बंद कमरों की, चाहे वह घर हो या दफ्तर आप जितनी ऊष्मा कम करने की कोशिश करते हैं, उतनी ही ऊष्मा वातावरण में संचित हो जाती है। मौसम वैज्ञानिक डॉ. मिलिंद मुजुमदार कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय मानक नियमों की सलाह मानें तो कमरे के तापमान को 28 डिग्री सेल्सियस तक रखना ही ठंडक का अहसास पाने के लिए काफ़ी है। कम से कम गर्मी के दिनों में कमरे के भीतर का तापमान 26-27 डिग्री सेल्सियस से कम नहीं हो। बाहरी वातावरण से 10 से 15 डिग्री सेल्सियस का अंतर स्थापित कर लेना वैसे भी मनुष्य की सेहत के लिए हानिकारक हो सकता है। यदि पर्यावरण की हानि को रोकना है तो प्रकृति से तादात्मय स्थापित करना बहुत ज़रूरी है।
 
सबसे अच्छा तरीका तो यह है कि एसी को पंखे (फैन) के मोड में चलाया जाए या उसके तापमान को 28 डिग्री सेल्सियस से अधिक पर ही सेट रखें। इससे न केवल पर्यावरण की रक्षा होगी बल्कि मानवीय स्वास्थ्य और उसके साथ ऊर्जा की भी बचत होगी। यदि बिना सूझबूझ के एसी का प्रयोग किया जाता है तो उससे प्रतिदिन 9-10 यूनिट ऊर्जा का नाहक अपव्यय होता है। एसी के स्मार्ट प्रयोग से ऊर्जा का दहन प्रतिदिन तीन यूनिट तक ही होगा एवं ऊर्जा का अपव्यय कम किया जा सकता है। 
 
एसी के कम्प्रेसर और कंडेंसर का इस्तेमाल सूझबूझ से होना चाहिए। बेहतर होगा कि कमरे के भीतर प्राकृतिक वायु का प्रवाह बना रहने दें न कि वायु की नमी (थर्मोडायनैमिक्स-उष्णता) के साथ खिलवाड़ किया जाए। ज़ाहिरन समुद्री किनारे पर तापमान जब चरम पर होता है तब यह बात लागू नहीं होगी। मौसम वैज्ञानिक डॉ. मिलिंद मुजुमदार इस बात की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि जब भीतरी तापमान 30 डिग्री सेल्सियस से भी अधिक हो यानी चरम पर हो तब भी कम्प्रेसर को केवल 15 मिनट के लिए चालू करने और उसके बाद मात्र वायु प्रवाह के नियंत्रण द्वारा ही शानदार परिणाम देखे जा सकते हैं।
 
ख़ासकर शाम और रात के समय एसी को फैन मोड पर (खासकर समुद्री किनारों से लगे क्षेत्रों में) रखना लाभदायी होता है। ऐसा करने से कमरे को बंद कर रखने वाली घुटन से भी आपको मुक्ति मिल सकती है। ऊर्जा की बचत तो निश्चित होनी है। गर्म हवा को एक्जॉस्ट पंखे के उपयोग से तो बाहर फेंक ही सकते हैं।
 
विगत कुछ वर्षों में सामान्य मानसूनी वर्षा में कमी, स्थान विशेष में अनाकलनीय बाढ़ एवं तीव्र सूखे की घटनाओं में वृद्धि हमें पर्यावरण के संतुलन की गंभीरता पर सावधानी से ध्यान देने के लिए सूचित करती है। यदि हम प्राकृतिक ऊर्जा स्त्रोतों का उपयोग सही तरीके से नहीं करेंगे तो हमारे स्वास्थ्य के साथ पर्यावरण की हानि अटल है, जिसके गंभीर परिणाम गर्मी में और विशेषत: शहरी भागों में भुगतने पड़ सकते हैं। यह सब इसलिए ताकि पर्यावरण को फिर पहले की तरह सुकूनदायी बनाया जा सके।

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