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जंगल से एकतरफा संवाद- भाग 3

हमें फॉलो करें जंगल से एकतरफा संवाद- भाग 3
, मंगलवार, 7 अक्टूबर 2014 (16:43 IST)
- नेपाल के हिमालयी धौलागिरी अंचल से लौटकर सचिन कुमार जैन
 
पहाड़ मरते नहीं हैं!
 

 
नेपाल के पोखरा से बाग्लुंग के बीच हिमालय और धौलागिरी पर्वत श्रृंखला के परिवार के सदस्य इन पहाड़ों पर कुछ घाव नजर आने लगे हैं। ऊपरी चोटी तक पहुंचने के लिए सड़कें बन रही हैं। इन्हें बनाने के लिए बारूद से पहाड़ों को तोड़ा गया।
 
इसका परिणाम यह हुआ कि पहाड़ के भीतर तरतीब से जमे हुए पत्थर और मिट्टी खुल गई। बारिश अब उन खुले हिस्सों को और उघाड़ती जा रही है। जैसे-जैसे मिट्टी और छोटे-बड़े पत्थर बारिश के वार से निकलते हैं, पेड़ों की जड़ें भी नंगी होने लगती हैं। जब जड़ें बाहर आ जाती हैं, तो पेड़ मरने लगते हैं। जब पेड़ मरते हैं, तो जंगल मरता है। और जब जंगल मरता है तो क्या हमारा-तुम्हारा कुछ बचेगा। हम इस भुलावे में हैं कि हर बीमारी का इलाज है, पर यह सबसे बड़ा भ्रम है। बीमारी पैदा करना हमारे हाथ में है, उसे न पैदा करना हमारे हाथ में है, पर बीमारी का इलाज हमारे हाथ में नहीं है।

बस, हमें इतना समझना है कि सड़क बनाने के लिए हजारों किलोमीटर दूर किया गया बारूदी विस्फोट हमारी जिंदगी को भी दहलाता है। वह केवल पेड़ और पहाड़ को वस्त्रविहीन नहीं करता। वह हमारे कपड़े उतार रहा होता है। दूर से देखो तो लगता है पहाड़ इन घावों से कारण कराह रहा है। उसे पेड़-तोड़ (वैसे ही जैसे हमें बाल के उखड़ जाने पर बाल-तोड़ होता है) हो रहा है। इन पहाड़ों की मरहम-पट्टी करना ही हमारी सबसे बड़ी परियोजना होना चाहिए, पर हो इसके उलट रहा है। इन पहाड़ों के कपड़े उतरना, जड़ों पर से मिट्टी के कपड़े उतरना और बारूद बिछाना ही हमारी सबसे बड़ी परियोजनाएं हैं।

इन्हें हम विकास परियोजना कहते हैं। जिस विकास के परिणाम हमारे हाथ में ही न हों, उस तरह के विकास के मायने क्या हैं? क्या इससे पलायन रुकेगा, क्या इससे बीमारियां कम हो जाएंगी? क्या इससे गैर-बराबरी मिटेगी? क्या इससे साफ हवा और पानी मिलेगा? क्या सबको दो वक्त का भरपेट भोजन मिलेगा? क्या यह विकास समाज में सुरक्षा का अहसास पैदा कर पाएगा? इस सवाल का जवाब हमें खुद को देना है और खुद से लेना है; बस!
 
जंगल ने अपने होने या नदी ने भी अपने होने के लिए कभी किसी बस्ती को नहीं उजाड़ा। हमें लगता है, नदी-पहाड़-जंगल को मिटाकर ही हमारी उन्नति हो सकती है। क्या उन्हें मिटाए बिना हमारी बस्ती का बसे रहना संभव नहीं है? यह सोच ही रहा था कि बादलों का झुण्ड भी पहाड़ों से मिलने चला आया। कोई खेल खेल रहे थे शायद।
 
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नेपाल के काठमांडू से पश्चिम दिशा में लगभग 275 किलोमीटर दूर एक छोटा सा शहर है बाग्लुंग। शहर का छोटा होना ही अच्छा है, पर यहां के जंगल और पहाड़ अभूतपूर्व। इतने ऊंचे पहाड़ कम से कम मैंने तो नहीं ही देखे हैं। बस एक बात और ये पहाड़ धौलागिरी हिमालय की श्रृंखला के पहाड़ हैं... विशालकाय! इस नगरपालिका की जनसंख्या कोई 30 हजार है। इसकी एक बसाहट तातापानी में 64 परिवार रहते हैं। ये दलित हैं।

एक तरफ तो इस गांव में हर घर में बिजली है। ज्यादातर प्रसव अस्पताल में होते हैं। पानी तो उनके अपना ही है। बच्चों को सालाना छात्रवृत्ति भी मिल जाती है। छोटे बच्चों को पोषण भत्ता भी मिल जाता है; पर दूसरी तरफ इस दूरदराज पहाड़ी गांव के हर एक घर से एक व्यक्ति भारत, मलेशिया, कतर या दुबई में है। काम की तलाश में। ज्यादातर 3 या 4 साल में घर आते हैं; क्योंकि बस रोजगार नहीं है। इस इलाके में दलित समुदाय और संगठनों ने हर ताकत के केंद्र को चुनौती दी और अस्पृश्यता यानी छुआछूत बंद करने के लिए मजबूर किया। कम से कम इस इलाके में तो कोई उनसे रिश्वत नहीं मांगता है। वे मानते हैं कि सत्ता में ऊपर अब भी ऊंची जाति के लोग बैठे हैं, वे दलितों को काम नहीं मिलने देते। उन्हें लगभग हर रोज 20-30 किलो वजन उठाना ही नहीं पड़ता, बल्कि उसके साथ पहाड़ भी चढ़ना पड़ता है। फिर भी यह पूछे जाने पर कि क्या वे पहाड़ छोड़कर समतल में जाना चाहेंगे?

जवाब होता है- नहीं, बिलकुल नहीं! नदी, जंगल और पहाड़ हमारे लिए चुनौती नहीं, बल्कि हमारी ताकत हैं। हमारे लिए तो चुनौती अपना खुद का समाज है, जो शोषण और छुआछूत को सत्ता का माध्यम मानता है। हमारा समाज यह क्यों नहीं समझ पाता कि महावीर, बुद्ध, कालिका, शिव और राम का भी जंगल के बिना के बिना कोई अस्तित्व नहीं है, तो उसका अस्तित्व इसके बिना कैसे बचा रहेगा? जंगल के बिना बुद्ध बुद्ध नहीं, राम राम नहीं, शिव शिव नहीं और महावीर महावीर नहीं। हमारे धर्म और श्रद्धा की धुरी तो जंगल ही है। मैं अंदाजा लगा पाया कि हम पहाड़, नदी और पेड़ मिटाने से क्यों हिचकते नहीं हैं; क्योंकि हम अब अध्यात्म के विपरीत दिशा में बहुत दूर जा चुके हैं, जहां मुक्ति नहीं अकाट्य बंधन अंतिम लक्ष्य है। 
 
पहाड़, नदी और जंगल मिलकर धौलागिरी घाटी बनाते हैं। यहां का इंसानी समाज प्रकृति के इस निर्माण का मतलब समझता है। शायद यही कारण है कि सैकड़ों किलोमीटर की इस घाटी में, यहां से निकलने वाले झरनों, सड़कों और पगडंडियों के आसपास भी मूत्रपात करना वर्जित है। जंगल, पहाड़ और नदी की त्रिवेणी को देवी माना जाता है। शब्दों में उनके संतोष को कह पाना असंभव है। धरती पर कोई भी क्रिया या प्रतिक्रिया होने पर (धरती का गर्म होना या जलवायु परिवर्तन) पहाड़ को खत्म नहीं करेगी, समुद्र को खत्म नहीं करेगी, पानी को खत्म नहीं करेगी; यदि किसी का अंत होगा तो विकास करने वाले मानव समाज का। भू-भाग कहीं भी तैरता रहेगा, हम कहां तैरेंगे? पेड़ तो बीज बनकर बच जाता है, इंसान को फिर पैदा होने के लिए पहले बंदर बनना पड़ता है। जानवर बनने के लिए हम इतने तत्पर क्यों हैं?
 
मुझे तो यही लगता है कि हम अक्सर अपनी महफिलें सजाकर खुद ही गैरहाजिर रहते हैं। इन जंगलों की महफिल से आप गैरहाजिर नहीं हो सकते। यहां आपको हाजिर होना ही पड़ेगा। यह हाजिरी इस बात का अहसास कराती है कि पनपते जाओ, देखते जाओ जाओ जैसा है उसे जानो और आगे बढ़ते जाओ। किसी को नकारो मत, उसे भी होने दो। बस इतना ध्यान रखना तुम्हारी कोई रचना, किसी के अस्तित्व के खात्मे पर न टिकी हो। बड़ा अजीब सा लगता है यह जानकर कि हम तो अक्सर उसे मोहब्बत करने के लिए खोजते हैं, जो हाजिर नहीं है। जो मौजूद है उसे अपनाते नहीं हैं। ये जंगल न तो बाहर जाता है, न बाहर से किसी के आने का इंतजार करता है। यह तो बस भीतर है। 
 
पत्ते, डालियां, घास, टूटे तने, सब कुछ भारी मात्रा में जमीन पर गिरे पड़े थे। पानी भी बरसता ही रहा था यानी उनके सड़ने (यह शब्द एक मनोवृत्ति का परिचायक है) के लिए माकूल व्यवस्था थी, पर वहां सड़ांध क्यों नहीं थी? वहां तो कोई कचरा (यह शब्द हमारे व्यवहार की कुछ परिणतियों का परिचायक है) उठाने और सुगंध छिड़कने भी नहीं आता। इन सैकड़ों किलोमीटर के पहाड़ी जंगलों में तो केवल सड़ांध ही होना चाहिए थी, पर लोग तो यहां खुशबु की तलाश में आते हैं और उसे पाते भी हैं। तो हमारे शहर या बस्ती में जो सड़ांध फैली है वह कहां से आती है? क्या हमारे व्यवहार और सोच से! यहां हमें वही रंग एक अलग अहसास क्यों देते हैं, वे जिन्दा क्यों लगते है; हमारी जिंदगी के रंग मर चुके हैं! अच्छे जीवन से हमारा आशय क्या है; प्रतिस्पर्धा, विद्वेष और भाव हिंसा? ये मेरे सवाल थे खुद से! 
 

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