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सुधा अरोड़ा की कविता : मां तुम्हारे लिए सिर्फ एक दिन रखा गया

हमें फॉलो करें सुधा अरोड़ा की कविता : मां तुम्हारे लिए सिर्फ एक दिन रखा गया

सुधा अरोड़ा

मां ने उस समय में कविताएं लिखीं,
जब लड़कियों के कविता लिखने का मतलब था
किसी के प्रेम में पड़ना और बिगड़ जाना,
कॉलेज की कॉपियों के पन्नों के बीच
छुपा कर रखती मां कि कोई पढ़ न ले उनकी इबारत
सहेज कर ले आईं ससुराल
पर उन्हें पढ़ने की न फुर्सत मिली, न इजाजत!
 
मां ने जब सुना, 
उनकी शादी के लिए रिश्ता आया है,
कलकत्ता के स्कॉटिश चर्च कॉलेज से 
बी कॉम पास लड़के का,
मां ने कहा, 
मुझे नहीं करनी अंग्रेजी दां से शादी!
उसे हिंदी में लिखना-पढना आना चाहिए!
नाना ने दादा तक पहुंचा दी बेटी की यह मांग 
और पिता ने हिंदी में अपने 
भावी ससुर को पत्र लिखा। 
मां ने पत्र पढ़ा तो चेहरा रक्ताभ हो आया 
जैसे उनके पिता को नहीं,
उनको लिखा गया हो प्रेमपत्र 
शरमाते हुए मां ने कहा --
'इनकी हिंदी तो मुझसे भी अच्छी है'
और कलकत्ता से लाहौर के बीच 
रिश्ता तय हो गया!
शादी के तीन महीने बाद ही मैं मां के पेट में थी,
पिता कलकत्ता में, मां थीं लाहौर,
जचगी के लिए गई थीं मायके!
खूब फुर्सत से लिखे दोनों 
प्रेमियों ने हिंदी में प्रेमपत्र,
बस, वे ही चंद महीने 
मां पिता अलग रहे,
उस अलगाव का साक्षी बना 
उन खूबसूरत चिट्ठियों का पुलिंदा,
जो लाल कपडे में एहतियात से रख कर 
ऐसे सहेजा गया 
जैसे गुरुग्रन्थ साहब पर 
लाल साटन की गोटेदार चादर डाली हो 
हम दोनों बहनों ने उन्हें पढ़-पढ़ कर 
हिंदी में लिखना सीखा! 
शायद पड़ा हो अलमारी के 
किसी कोने में आज भी!
उम्र के इस मोड़ पर भी, 
पिता छूने नहीं देते जिसे
पहरेदारी में लगे रहते हैं,
बस, मां जिंदा हैं उन्हीं इबारतों में ...
हम बच्चे तो 
अपनी-अपनी जिंदगी से ही मोहलत नहीं पाते 
कि मां को एक दिन के लिए भी 
जी भर कर याद कर सकें ! 
उस मां को -- 
जो एक रात भी आंख भर सो नहीं पातीं थीं,
सात बच्चों में से कोई न कोई हमेशा रहता बीमार,
किसी को खांसी, सर्दी, बुखार,
टायफ़ॉयड, मलेरिया, पीलिया 
बच्चे की एक कराह पर
झट से उठ जातीं 
सारी रात जगती सिरहाने ...
जिस दिन सब ठीक होते,
घर में देसी घी की महक उठती,
तंदूर के सतपुड़े परांठे, 
सूजी के हलवे में किशमिश बादाम डलते 
घर में उत्सव का माहौल रचते!
दुपहर की फुर्सत में 
खुद सिलती हमारे स्कूल के फ्रॉक,
भाईओं के पायजामे,
बचे हुए रंगबिरंगे कपड़ों का कांथा सिलकर 
चादरों की बेरौनक सफेदी को ढक देतीं,
क्रोशिए के कवर बुनतीं,
साड़ी का नौ गज बॉर्डर
पाई-पाई जोड़ कर 
खड़ा किया उन्होंने वह साम्राज्य,
जो अब साम्राज्य भर ही रह गया 
एलसीडी टी.वी सेट पर क्रोशिए के कवर कहां जंचते हैं!
धन-दौलत के ऐश्वर्य में नमी बिला गयी!
यूं भी ईंट गारे के पक्के मकानों में अब 
एयर कंडीशनर धुआंधार ठंडी खुश्क हवा फेंकते हैं,
उनमें वह खस की चिकों की सुगंध कहां!
किसी फाईव स्टार रेस्तरां में चार-पांच हजार का 
एक डिनर खाने वाले बच्चे,
कब मां के तंदूरी सतपुड़े पराठों को याद करते हैं,
जिनमें न जाने कितनी बार जली मां की उंगलियां! 
मां,
उंगलियां ही नहीं, 
बहुत कुछ जला तुम्हारे भीतर-बाहर 
पर कब की तुमने किसी से शिकायत, 
अब भी खुश हो न!
कि खूबसूरत फ्रेम में जड़ी तुम्हारी तस्वीर पर 
महकते चन्दन के हार चढा
हम अपनी फर्ज अदायगी कर ही लेते हैं 
तुम्हारे कर्ज का बोझ उतार ही देते हैं!
मां,
तुम उदास मत होना,
कि तुम्हारे लिए सिर्फ एक दिन रखा गया 
जब तुम्हें याद किया जाएगा!
बस, यह मनाओ 
कि बचा रहे सालों-साल 
कम से कम यह एक दिन! 

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