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इस खुशी से वंचित न करो

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- मंगला रामचंद्र

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माँ का फोन आया तो सदा की तरह चित्त प्रसन्न हो गया। स्वयं माँ बने एक अरसा हो गया, पर अभी भी माँ से बातें करने की, उनकी आवाज सुनने की प्रतीक्षा रहती है। इस बार माँ की आवाज में हल्का क्रोध, उलाहना और डाँट का पुट देखकर हमेशा की तरह चहक नहीं सकी।

'बहुत बड़ी और समझदार हो गई ना, फुरसत नहीं है। मेरे पत्रों का उत्तर तक नहीं दे पाती हो।' 'माँ, आपके फलाँ-फलाँ तारीख के पत्र का जवाब दिया तो था...' मैं हकला रही थी।

'ओहो, तारीख तो अच्छी तरह याद है, पर इसी तरह जवाब भेजना हो तो ना ही लिखो,' माँ का गुस्सा कम नहीं हुआ था। मेरी तो बोलती ही बंद हो गई थी। कुछ समझाने की कोशिश व्यर्थ हो जाती। 'ठीक है़ तुम लोगों ने कंप्यूटर ले लिया और उस पर काम करना भी सीख लिया। अपने भाई-भाभी को तीसरे-चौथेरोज कुशलता की चार लाइनें ईमेल पर भेज देती हो, पर मैं तो नहीं पढ़ पाती न।'
  माँ का फोन आया तो सदा की तरह चित्त प्रसन्न हो गया। स्वयं माँ बने एक अरसा हो गया, पर अभी भी माँ से बातें करने की, उनकी आवाज सुनने की प्रतीक्षा रहती है। इस बार माँ की आवाज में हल्का क्रोध, उलाहना और डाँट का पुट देखकर हमेशा की तरह चहक नहीं सकी।      


'सॉरी माँ, असल में बात ये...'

मेरी बात कहीं अटक गई। 'तेरा पत्र जब भी आता है, उसे बार-बार छूती हूँ, बार-बार पढ़ती हूँ। लगता है तुझे ही स्पर्श कर रही हूँ। तेरा पत्र तेरे लिए तो अक्षरों की चंद कतारें हैं, पर मेरे सामने तो तेरे जन्म से विवाह तक की सारी यादें फोटो एलबम की तरह खुलती चली जाती हैं। मुझे इस मामूली खुशी से वंचित क्यों करती हो?'

माँ की आवाज आखिर तक आते-आते भारी और भीगी हुई लगने लगी थी। कागज का लिफाफा न जाने कितने हाथों से गुजरकर आता होगा, तब भी माँ अपनी संतान का स्पर्श उसमें ढूँढ लेती है। सारे कार्यों को परे ढकेलकर सजल नयनों से माँ को पत्र लिखने बैठ गई।

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