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क्या अब बड़ी खबर होगी, तो मोदी खुद ब्रेक करेंगे..?

-ब्रजमोहन सिंह

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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को लेकर हमेशा यह चर्चा रहती है कि मीडिया को लेकर वह बहुत सहज नहीं हैं, खासकर ख़बरिया टेलीविज़न चैनल्स को लेकर। यह आज के संदर्भ में मीडिया के लिए बेहद चिंता की बात हो सकती है मोदी के लिए नहीं, क्योंकि मीडिया हमेशा बड़ी ख़बर को लेकर ताक़ में रहती है। दिल्ली की मीडिया की चिंता से भी सभी बखूबी वाकिफ़ हैं, जो राष्ट्रीय राजधानी में बैठे-बठे पूरे हिंदुस्तान की नब्ज़ को समझने, जानने और परखने का दावा करता है।

मोदी के दिल्ली आने के बाद मीडिया को एक भी खबर ब्रेक करने का मौका नहीं मिला। सबसे पहले हम बात मंत्रियों के चयन की बात करते हैं। नेशनल मीडिया दिल पर हाथ रखकर बताए कि सालों से सत्ता के गलियारे में चक्कर काट रहे पत्रकारों को भनक तक नहीं लगी कि मोदी के कैबिनेट में कौन-कौन मंत्री शामिल होंगे! क्या ऐसा मन लें कि मीडिया के लिए यह पहली बड़ी हार थी। इसका फैसला पत्रकारों पर ही छोड़ देते हैं।

दिल्ली के पत्रकरों में इस बात को लेकर मलाल भी है कि न्यूज़ ब्रेक न कर पाने की वजह से पूरे बिरादरी में ही स्वाभाविक चिंता है। संपादकों को भी इस बात की जानकारी है कि अब खबरों का इनफ्लो वैसा नहीं रहेगा, जैसा कि यूपीए के दौरान था।

नरेन्द्र मोदी के काम करने के स्टाइल से हम सब वाकिफ हैं, उन्होंने सरकार बनाने के बाद अफसरशाही के ऊपर अपनी ज़बरदस्त पकड़ बनाई है। किसी नई व्यवस्था में नए नेतृत्व के आने के बाद ऐसा लाज़मी भी है। मोदी ने इस सिद्धांत को बल ही दिया है। आज मोदी के साथ वैसे लोग खड़े हैं, जो पिछले 20 सालों में उनके साथ कहीं न कहीं खड़े थे। ऐसे एक नहीं कई उद्धरण है।

एक लोकशाही में सजग मीडिया का होना बहुत ही ज़रूरी है। मीडिया सरकार की कमियों को ज़ाहिर करने के लिए ज़रूरी भी है। मीडिया समाज का आईना भी होता है, लेकिन पिछले कुछ सालों में मीडिया की विश्वसनीयता को लेकर काफी कुछ बदला है। खबरों का अंदाज़ भी बदला है। आज सवाल बड़ा यह नहीं है कि 'क्या दिखाना है', प्रश्न यह है कि क्या नहीं दिखाना है और दिखाना है तो कितना दिखाना है।

देश की सियासत और पत्रकारिता में आए बदलाव से मोदी वाकिफ न हों, ऐसा नहीं है। मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, उनके पास हर टीवी चैनल्स, अख़बार और उसमें काम कर रहे पत्रकारों से सीधा राफ्ता था। प्रधानमंत्री बनने के बाद ऐसा कुछ संभव नहीं है, लेकिन मोदी के उस अंदाज़ को देखिए और समझिए, जब वह अंग्रेजी के “स्वनामधन्य” पत्रकारों को इंटरव्यू न देकर वैसे पत्रकारों को चुनते हैं, जो रीजनल मीडिया के लिए काम करते हैं। मसलन ईटीवी, सहारा उर्दू, और वैसे अख़बार और चैनल जिनको हम मुख्यधारा से अलग मानने की भूल करते हैं।

मीडिया का एक बड़ा अंग्रेज़ीदां तबका, ओपिनियन बनाने का दावा करने वाला तबका, मोदी के लिए बहुत मायने नहीं रखते। सोशल मीडिया पर भले ही मोदी पिछले कुछ हफ्ते से चुप हैं, लेकिन बात जब बड़ी घोषणाओं की आएगी तो मोदी पत्रकारों के ज़रिए अब खबर ब्रेक नहीं करेंगे। ट्‍विटर या अपनी वेबसाइट पर जाकर मोदी सीधा-सीधा संवाद कायम करेंगे। प्रधानमंत्री टमाटर और प्याज़ पर बयान नहीं देंगे, उसके लिए मंत्री और अधिकारी हैं।

शायद मोदी की टीम सितंबर में होने वाली बराक ओबामा से मुलाकात के लिए ज्यादा फिकरमंद हो। खबर तो यही है कि मोदी की पूरी टीम 15 अगस्त की तैयारी में लगी है। इससे पहले मोदी शायद कुछ न बोलें।

देशभर में जो लोग मोदी के भाषणों के अतिरेक की शिकायत कर रहे थे, आज वही शिकायत करते हैं कि मोदी आखिर बात क्यों नहीं करते? विपक्ष में रहकर मोदी कहते रहे कि देश के प्रधानमंत्री का नाम मनमोहनसिंह नहीं 'मौनमोहन' होना चाहिए, अब वही विपक्ष मोदी की चुप्पी का कारण जानना चाह रहा है।

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