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साहित्य की ज़मीन पर यह साझा पट्टी

हमें फॉलो करें साहित्य की ज़मीन पर यह साझा पट्टी
, शनिवार, 4 अक्टूबर 2014 (19:33 IST)
एक थी अमीना। वह हर रोज़ आधी रात तक अपने शौहर अहमद का इंतज़ार किया करती थी। अहमद यारों की महफ़िल से लौटता, घर पहुंच कर सो जाता और फिर निकल जाता। न जाने कितने साल यह सिलसिला चलता रहा। अमीना ने कभी नहीं पूछा कि वह कहां जाता है और किनके साथ शाम गुज़ारता है। एक बार अमीना अपने शौहर की जानकारी के बगैर अपने बेटे के कहने पर घर से बाहर निकलती है और पहले एक मस्जिद और फिर बेटे के स्कूल जाती है। लेकिन इतनी भर बात पर उसका शौहर उसे घर से निकाल देता है, उसके मायके भेज देता है। यहां भी अमीना लगातार उस खुशक़िस्मत दिन का इंतज़ार करती है जब उसका शौहर उसे लौटा लाएगा। 
मिस्र के उपन्यासकार नगीब महफ़ूज़ के उपन्यास ‘पैलेस वाक’ की कहानी काफी बड़ी है, उसका वास्ता बीसवीं सदी की शुरुआती दहाइयों में मिस्र के भीतर चल रही राजनीतिक-सामाजिक खदबदाहट से भी है। लेकिन यह उपन्यास पढ़ते हुए किसी भारतीय पाठक को यह बिल्कुल अपने समाज की कहानी मालूम पड़ सकती है- बिल्कुल वैसी ही पितृसत्तात्मक पारिवारिक व्यवस्था, घरों की दहलीज तक सिमटी लड़कियां और बाहर मटरगश्ती करने को आज़ाद लड़के। लगता ही नहीं कि नगीब महफ़ूज़ किसी और समाज की कहानी लिख रहे हैं। 
 
मिस्र वह कोना है जहां से एशिया ख़त्म और अफ्रीका शुरू होता है। नक्शे में मिस्र से कुछ पहले और ऊपर टर्की है जो एशिया और यूरोप को बांटता है। इस्तांबुल वह शहर है जो आधा एशिया में है और आधा यूरोप में। मिस्र और टर्की से शुरू करें तो सऊदी अरब को एक किनारे छोड़ इराक-ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान से होते हुए हम भारत तक पहुंचते हैं और पाते हैं कि यह पूरी पट्टी अपने अलग-अलग धार्मिक विश्वासों, अपने अलग-अलग ऐतिहासिक संघर्षों और इससे पैदा होने वाली राजनीतिक विवशताओं के बावजूद अपने सामाजिक-पारंपरिक जीवन विन्यास में बहुत दूर तक मिलती जुलती है। यह एकजैसापन उस मानवीय सार्वभौमिकता जैसा नहीं है जिसमें हमें दुनिया भर का साहित्य मानव मात्र का साहित्य लगता है और उसमें दिखने वाली पीड़ाएं बिल्कुल अपनी जान पड़ती हैं। यह एकजैसापन अपनी एक-दूसरे से बंधे उस इतिहास-भूगोल और जीवन अभ्यास का हिस्सा है जो सदियों में विकसित हुआ है और जिसे तमाम तरह के सांस्कृतिक हमले पूरी तरह काट नहीं पाए हैं। बेशक, इस अभ्यास में एक जैसे अभिशाप भी शामिल हैं, लेकिन यह पट्टी मूलतः एक जैसी है जिसका दुर्भाग्य से हमारे भीतर एहसास बहुत कम रह गया है- क्योंकि हमारे बीच का पुल और यूरोप और अमेरिका के रास्ते से बनता है, उसमें सीधी आमदरफ़्त कम बची हुई है- जो बची हुई है, उसे कई तरह की धार्मिक-राजनीतिक भगदड़ों ने बिल्कुल धूल-धूसरित कर डाला है। 
 
लेकिन जब राजनीति, इतिहास, भूगोल सब जैसे इस आमदरफ़्त को भुला पर आमादा दिखाई दें तो साहित्य ही वे धुंधली पड़ रही पदचापें बचाए रखता है जिनसे हम अपने साझापन को कुछ बेहतर ढंग से पहचान पाते हैं। एक अन्य नोबेल विभूषित उपन्यासकार ओरहान पामुक का उपन्यास ‘स्नो’ इस लिहाज से फिर एक बेहतर पाठ सुलभ कराता है। वहां कठमुल्लेपन और आधुनिकता के बीच चल रहा टकराव जो द्वंद्व रचता है, उसकी विडंबनाएं हमें बिल्कुल जानी-पहचानी लगती है। उपन्यास में एक स्कूल प्रिंसिपल की हत्या हुई है। हत्यारा बहुत विनम्रता से उनसे बात करता है। बात-बात पर कहता है, वह हिंसा में नहीं, संवाद में यकीन रखता है। धीरे-धीरे उसका लहजा सख्त होता जाता है। और फिर संवाद एक सिहरा देने वाली हत्या के साथ ख़त्म हो जाता है। 
 
दरअसल इन तमाम वर्षों में यह पूरी पट्टी- भारत से लेकर मिस्र तक- तरह-तरह के झंझावातों से गुज़री है। मिस्र की गुलाबी क्रांति फिर से लहूलुहान ठहराव की चपेट में आ गई है, मिस्र और टर्की के बीच इजराइल और लेबनान से लेकर सीरिया तक की वह पूरी पट्टी है जिसमें सांप्रदायिक नफ़रत और जुनून की सियासत रोज दिल दहला देने वाली कहानियों के साथ सामने आती है। उससे आगे ईरान-इराक से लेकर अफगानिस्तान-पाकिस्तान तक कठमुल्ला दहशतगर्दी के कई दशक हैं। मुश्किल यह है कि इस झंझावाती महादेशकाल की जटिलता को समझने की जगह हम दो-तीन बहुत आसान सरलीकरणों का सहारा लेते हैं। सबसे बड़ा सरलीकरण यह है कि यह सब इस्लाम की असहिष्णुता के अलग-अलग रंग हैं। दूसरा सरलीकरण इसी की कोख से निकलता है कि यह इस्लाम के पिछड़ेपन को नतीजा है और उसे पिछड़ा बनाए रखने की साज़िश है। तीसरा सरलीकरण यह है कि यह सब तेल की राजनीति में अमेरिका का खड़ा किया हुआ टंटा है। 
 
बेशक, यह तीसरा सरलीकरण बहुत वजनी है, लेकिन इससे बाकी दो सरलीकरणों को भी बल मिलता है। सच्चाई यह है कि यह पूरी पट्टी कहीं अपनी राजनीतिक व्यवस्था, कहीं अपनी सामाजिक परंपरा और कहीं अपनी आर्थिक प्राथमिकताओं की वजह से उलझी हुई है, कहीं इस पट्टी के अलग-अलग मुल्कों में काबिज लालची हुक्मरान इस लड़ाई को अपने-अपने ढंग से रसद दे रहे हैं, कहीं पुराने ज़ख़्म अपने नए और उतने ही बर्बर प्रतिशोध ले रहे हैं, कहीं नकली बुनियाद पर रोप दिया गया एक मुल्क बेदखल किए गए वाशिंदों को अपनी तोपों और मिसाइलों के दम पर नागरिकता की सरहद में रहना सिखा रहा है, कहीं यूरोप और अमेरिका का पाला-पोसा हुआ राक्षसी कट्टरपंथ अपना मोल मांग रहा है और कहीं सीधे पश्चिमी दुनिया के हित इस एशियाई हिस्से को अपने कुचक्रों की राजधानी बनाए बैठे हैं। इसे इस्लामी दुनिया का झगड़ा करार देना उसकी कहीं ज्यादा ठोस और वास्तविक वजहों से आंखें मूंद लेना है। 
 
दुर्भाग्य से इन तमाम झगड़ों के शिकार एक ही क़िस्म के लोग हैं- वे मामूली लोग जो इतिहास के चक्के तले रौंदे जा रहे हैं, वे मासूम बच्चे जो कहीं ढाल की तरह इस्तेमाल किए जा रहे हैं और कहीं आसान निशानों की तरह- और इन सबके साथ रौंदी जा रही है वह सामाजिक विरासत जो सदियों में धीरे-धीरे आकार लेती है, वे कहानियां जो मनुष्यता की स्मृति बनाती हैं, अचरज को एक मूल्य की तरह बचाए रखती हैं और अपने साथ वह इतिहास लिए चलती हैं जो अन्यथा किन्हीं किताबों में दर्ज नहीं हो पाता। अलीबाबा और चालीस चोर, सिंदबाद जहाज़ी और हज़ार रातों की कहानियां और न जाने कितने वे किरदार, जो इस मिट्टी से उगे और हमारे अपने हो गए, जो हमारी रातों की नींद का जादू बनाते रहे, वे सब कुचले जा रहे हैं। मजारें, दरगाहें, विरासतें रौंदी जा रही हैं।
 
भारत से लगे अफगानिस्तान पाकिस्तान में भी यही कहानी दूसरे स्तर पर दोहराई जा रही है। नार्वे की एक लेखिका आश्ने सीयर्स्ताड ने काबुल में सुल्तान नाम के एक किताब वाले के घर छह महीने गुज़ारे और ‘बुकसेलर ऑफ़ काबुल’ के नाम से एक किताब लिखी। किताब वाला बताता है कि उसकी किताबें पहले रूसियों ने जलाईं, फिर तालिबान ने और फिर अमेरिकी सैनिकों ने। इसी किताब में लेखिका बताती है कि जिस काबुल में धूप से चमड़ी जल जाती है, वहां लड़कियां धूप की कमी से बीमारी की शिकार होती हैं, चूंकि उन्हें घर से बाहर निकलने नहीं दिया जाता। मशहूर लेखक खालिद हुसैनी के उपन्यासों, ‘द काइट रनर’,  ‘थाउजैड स्प्लेंडिड संस’, या ‘व्हेन द माउंटेंस इकोड’ में अपनी तरह की कारोबारी रोमानियत और पश्चिम प्रभावित दृष्टि है, लेकिन इसके बावजूद इन किताबों से अफगानिस्तान के इस हिस्से की जो त्रासदी छनकर आती है, वह अलक्षित नहीं रह जाती। बामियान के गिराए जाते बुद्ध, मक़तलगाहों में बदले जाते फुटबॉल स्टेडियम और इन सबके बीच कहानी लिखने की कोशिश कर रहा एक बच्चा वे प्रतीक बनाते हैं जिनकी मार्फत इस त्रासदी को काफी कुछ समझा जा सकता है।
 
अंततः सवाल यही बचा रहता है कि इतना सारा ख़ून-ख़राबा क्यों हो रहा है, वह कौन सी राजनीति है जो इतनी पुरानी सभ्यताओं की कोख से पनपे मुल्कों को कट्टरता, दहशतगर्दी और मौत के घरों में तब्दील कर रही है। जनरल जिया उल हक़ की मृत्यु पर केंद्रित हनीफ मोहम्मद का उपन्यास ‘अ केस ऑफ एक्सप्लोडिंग मैंगोज़’ बहुत दिलचस्प ढंग से बताता है कि किस तरह ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के तख़्तापलट के बाद जिया उल हक़ ने पाकिस्तान की पेशेवर आधुनिक फौज को एक प्रतिबद्ध मजहबी जमात में बदलने की कोशिश की। जिया उल हक़ के पीछे वही अमेरिका खड़ा था जो अफगानिस्तान में तालिबान के पीछे खड़ा रहा और इराक में सद्दाम विरोधियों के पीछे। इजराइल तो ख़ैर अमेरिका का खडा किया हुआ ही है।
 
इस समूचे संघर्ष को फिर भी अमेरिकी उकसावे और ईंधन के इकहरे चश्मे से देखना हालात को ठीक से पढ़ने से इनकार करना होगा। मेरा कहना बस इतना है कि इन सरलीकरणों के पार जाकर हम यह समझने की कोशिश करें कि राजनीति और इतिहास की बड़ी विडंबनाएं सबसे ज़्यादा उस आदमी को कुचलती हैं जो किसी भी सभ्यता का सबसे वाजिब और वैध नागरिक होता है। यह सच इतिहास, भूगोल और राजनीतिशास्त्र की किताबें भले न समझा पाती हों, साहित्य समझाता है। सिर्फ गद्य में ही नहीं, पद्य में भी। आखिर टर्की के कवि नाज़िम हिक़मत से लेकर फिलिस्तीनी कवि महमूद दरवेश और पाकिस्तान के फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ तक जिस पीड़ा और संघर्ष की बात करते रहे हैं, उनसे हमारी पीड़ा या हमारा संघर्ष किस मायने में अलग है? यह एक साझा विरासत है जो टूट और बिखर रही है, जिसे बचाया जाना ज़रूरी है। 

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