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भारत गांधी के बाद, नेहरू के बाद

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-मंजीत ठाकुर

अकादमिक रूप से इतिहास को अगर कोई पढ़ना चाहे, तो सारी पाठ्य-पुस्तकें सन 47 में यूनियन जैक उतारकर और लाल किले पर तिरंगा लहराकर चुप बैठ जाती हैं। रामचंद्र गुहा की किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ आजादी के दौर से शुरू होकर आज तक की कहानी को विश्वसनीय तरीके से बयान करती है।
 
रामचंद्र गुहा की यह किताब 'इंडिया आफ्टर गांधी' मूल रूप से अंग्रेजी में है। उसका हिंदी अनुवाद नहीं, बल्कि मैं तो कहूंगा हिन्दी रूपांतर किया है सुशांत झा ने। मैं इस किताब को अनुवाद नहीं, रूपांतर इसलिए कह रहा हूं क्योंकि अनुवाद जैसी बोझिलता किताब के किसी अनुच्छेद में दिखती नहीं।
 
किसी किताब को अनुवाद करना उसको दोबारा जीने सरीखा होता है, लेखक के स्तर पर जाकर सोचना और एकतरह से पूरे संदर्भों को जानते-समझते हुए उसका हिन्दी के पाठकों के लिए पुनर्लेखन करना होता है।
 
मूल किताब में एक ही खंड है और उसका नाम भी एक ही है, इंडियाः आफ्टर गांधी। लेकिन हिन्दी के पाठकों के लिए सुविधाजनक बनाते हुए प्रकाशक ने किताब को दो खंडों में बांट दिया है। पहला है ‘भारतः गांधी के बाद’ और दूसरा है, ‘भारतः नेहरू के बाद’।
 
हिंदी में यह किताब प्रवाहमान भाषा में लिखी गई है। एक अनुच्छेद से दूसरे अनुच्छेद तक कथ्य बहता-सा लगता है। भाषा में भी साहित्यिक कड़ापन या गाढ़ापन नहीं है। शायद, भारतीय जनसंचार संस्थान से रेडियो टीवी पत्रकारिता का डिप्लोमा कर चुके सुशांत की यह आसान लेकिन असरदार भाषा उनके टेलीविजन में काम करने के तजुर्बे से हासिल हुआ है।
 
यह किताब उन वाकयों से शुरू होती, जहां से लगता है कि आजाद भारत सांप्रदायिकता, अभावों और गृहयुद्ध जैसे हालातों में बिखरकर रह जाएगा। लेकिन अपने पहले ही अध्याय '...और कारवां बनता गया' से लेखक स्थापित करते हैं कि भारत पहले विचार और बाद में मूर्त रूप में जरूर आया लेकिन यह विचार एक मजबूत लोकतांत्रिक सच्चाई में बदल चुका है।
 
गुहा ने अपनी किताब में क़द्दावर सूबाई क्षत्रपों के जीवन पर भी रोशनी डाली है। ये ऐेसे इलाकों के नेता थे जो यूरोपीय देशों से भी बड़े थे। वैसे, नेता के तौर पर रामचंद्र गुहा नेहरू के प्रेम में दिखते हैं और पटेल की भी तारीफ की गई है। वैसे हिंदू कोड बिल का जिक्र होने पर पाठक लेखक को अंबेडकर के पक्ष में खड़ा देख सकते हैं। फिर भी, लेखक ने पूरी किताब में इतिहासकारनुमा निष्पक्ष नज़रिया बरकरार रखा है, जो उनकी किताब को ऑथेंटिक बनाता है।
 
सामान्य लोगों, यानी जिनकी हिंदी की समझ बहुत क्लिष्ट या साहित्यिक  किस्म की नहीं है वो भी गांधी के बाद के भारत की घटनाओं पर अपनी समझ पैनी कर सकते हैं। दरअसल, रूपांतरकार ने संस्कृतनिष्ठ हिंदी की बजाय हिंदुस्तानी लिखने को तरज़ीह दी है, जो स्वागतयोग्य है।
 
अगर किसी की दिलचस्पी भारत का आजाद भारत के इतिहास को बारीकी से जानने में ही है, तो किताब का दूसरा खंड ज्यादा प्रासंगिक है। नेहरू की मौत के बाद भारत में आए सियासी उथल-पुथल के दौर को गुहा काफी महीन ढंग से उकेरते हैं। दूसरे खंड के अध्यायों पर गौर कीजिए, नेहरू के बाद उथल-पुथल का दौर, वाम की तरफ झुकाव, संकट में लौह महिला और यह बेटा भी कम नहीं।
 
गुहा नेहरू के बाद सत्तासीन हुई इंदिरा के दौर को उकरते हुए उऩके वाम की तरफ झुकाव के कारणों की सतर्क व्याख्या करते हैं। दूसरे खंड का पहला भाग पूरा का पूरा इंदिरा को समर्पित है। जिसमें संजय और राजीव के उदय और आपातकाल के दौर का कायदे से वर्णन है।
 
'यह बेटा भी कम नहीं' अध्याय में रामचंद्र गुहा राजीव गांधी की गैर-सियासी पृष्ठभूमि को उसका सकारात्मक पहलू बताते हैं और फिर यह अध्याय शनैः शनैः राजीव के इर्द-गिर्द कसने वाले दरबारी घेरे और उनकी मिस्टर क्लीन की छीजती छवि की ब्योरे देने लगती है।
 
अंग्रेजी में गुहा की भाषा निश्चित रूप से उन लोगों को अपील करेगी जिनके पास अंग्रेजी के संदर्भ होंगे और जिनके पास एक इतिहासबोध होगा, लेकिन सुशांत की हिंदी इस किताब को उन हिंदीवालों के लिए संदर्भ-पुस्तक के तौर पर खड़ी करती है, जो प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करते हों, या फिर आजादी के बाद के भारत की राजनीतिक घटनाओं पर अपनी बारीक निगाह रखना चाहते हों।
 
हालांकि, कई जगह प्रूफ की गलतियां हैं और हालांकि को हलांकि लिखा गया है। ऐसी ही कई गलतियां हिज्जे की भी हैं। लेकिन छपाई बढ़िया है और कलेवर भी। अंग्रेजी वाली मूल किताब की तुलना में हिंदी रूपांतर का कवर ज्यादा बेहतर बन पड़ा है और रंग संयोजन भी। उम्मीद है प्रकाशक इस किताब के अगले संस्करण में हिज्जे संबंधी गलतियों को सुधार देंगे।
 
किताब :  भारतः  गांधी के बाद
लेखक :  रामचंद्र गुहा
हिंदी रूपांतरकार : सुशांत झा
प्रकाशक : पेंग्विन
मूल्य : 399 रुपए

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