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प्यार एहसास है रुह से महसूस करने का

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- मानस
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रिश्तों की कोई निर्धारित परिभाषा नहीं होती। कोशिश भी की जाए तो शायद कोई ऐसी परिभाषा नहीं ग़ढ़ी जा सकती जो रिश्तों को गहराई से परिभाषित कर सके। आशय यह नहीं कि रिश्ता कोई उलझी हुई इबारत है जिसे समझाया नहीं जा सकता, बल्कि असलियत यह है कि 'रिश्ता' जीवन की सफलता का एक बड़ा मानक है, जिसे कुछ शब्दों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता।

कुछ रिश्ते ऐसे होते हैं जो पूरा जीवन बदलकर रख देते हैं, पर कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं जिनके जुड़ने का अफसोस जीवन भर होता है और इस तरह के रिश्ते की कसक जीवनभर सालती रहती है।

सामाजिक जीवन में सामान्यतः रिश्तों को दो भागों में विभाजित किया जाता है। एक रिश्ता वह जो खून से बंधा होता है, दूसरा रिश्ता जो हम स्वयं गढ़ते हैं। भारतीय परिवेश में खून के रिश्तों को सबसे ज्यादा अहमियत दी जाती है और माना जाता है कि खून का रिश्ता ही सही मायने में जीवन का जुड़ाव होता है, और इससे बढ़कर रिश्ता होता है वैवाहिक संबंधों का।

इससे इतर जो रिश्ते होते हैं वे न तो खून से बंधे होते हैं और न उनमें सामाजिक दायित्वों का ही कोई बंधन होता है। दरअसल सही रिश्ते वे ही होते हैं, जो सारे बंधनों से मुक्त होकर सिर्फ दिल से बंधे होते हैं। इस बात से कई लोगों को एतराज भी हो सकता है, पर सच यही है कि खून के रिश्ते तो इत्तफाक से बनते हैं।
  रिश्तों की कोई निर्धारित परिभाषा नहीं होती। कोशिश भी की जाए तो शायद कोई ऐसी परिभाषा नहीं ग़ढ़ी जा सकती जो रिश्तों को गहराई से परिभाषित कर सके। आशय यह नहीं कि रिश्ता कोई उलझी हुई इबारत है जिसे समझाया नहीं जा सकता, बल्कि असलियत यह है कि 'रिश्ता' जीवन।      


एक परिवार के सदस्यों का आपस में रिश्ता सिर्फ इसलिए होता है कि उन्हें इत्तफाक ने मिलाया होता है। कुछ हद तक यही बात सामाजिक परिवेश में तय होने वाले वैवाहिक संबंधों पर भी लागू होती है। सिर्फ एक नजर में एक-दूसरे को देखकर वैवाहिक संबंधों की स्वीकृति दे देना और फिर जीवनभर उस रिश्ते को निभाना वास्तव में रिश्तों में बंधना नहीं बल्कि समझौता है।

असल रिश्ता तो वह है, जो हम अपनी पूरी समझ-बूझ और परख के साथ तथा अपनी पसंद से बनाते हैं। फिर चाहे वह रिश्ता दो दोस्तों के बीच का हो या फिर प्रेमियों का या फिर पड़ोसियों के बीच का पारिवारिक-सा रिश्ता ही क्यों न हो। सभी में यह बात 'कॉमन' है। कोई भी रिश्ता इत्तफाक या सामाजिक दबाव में नहीं बना।

अपने पूरे जीवन में हम कई लोगों से मिलते हैं। कुछ हमें अच्छे लगते हैं तो कुछ को हम पहली नजर में खारिज कर देते हैं। संपर्क में आने वाले कुछ लोगों से बार-बार मिलने और बात करने की इच्छा होती है और यही आकर्षण दोस्ती या प्रेम की मजबूत गाँठ बन जाता है। ठीक यही बात समीप रहने वाले दो परिवारों के बीच भी होती है। बहुत सारे लोगों के बीच रहकर भी ऐसे लोग उंगलियों पर गिनने लायक ही होते हैं, जिन्हें हम अपने बहुत नजदीक मानते हैं।

उन्हें अपने दिल की बात बताने का भी मन करता है और उनके दिल की बात सुनने की भी इच्छा होती है। अक्सर देखा जाता है कि स्कूल, कॉलेज या दफ्तरों में कई जोड़ी दोस्त होते हैं। सभी एक साथ रोज मिलते तो जरूर हैं पर सभी को जब भी बातचीत का अवसर मिलता है, वे गुटों में बंट जाते हैं। इसका सीधा-सा अर्थ यही है कि जो जिसके साथ निकटता महसूस करता है, वह उसी के साथ समय भी गुजारना चाहता है।

रिश्तों को जीवन की सफलता और असफलता के मामले में भी एक बड़ा मानक माना गया है। कब, कौन-सा रिश्ता या कौन-सी दोस्ती व्यक्ति को सफलता की ऊंचाइयों पर पहुंचा दे, कहा नहीं जा सकता लेकिन यदि परिस्थितियां अनुकूल न हों तो इसका उलट भी हो सकता है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जब किसी साथी की मदद से व्यक्ति शिखर पर पहुंच गया, पर सारा दारोमदार इस बात पर निर्भर है कि आप अपने रिश्ते के प्रति कितने गंभीर हैं।

इसलिए कि जो रिश्ते किसी सामाजिक दायित्व की डोर से बंधे नहीं होते हैं, वे बड़े नाजुक भी होते हैं और इसीलिए इन्हें सहेजने, संभालने की भी आवश्यकता ज्यादा महसूस की जाती है। दोस्ती या प्रेम के रिश्तों का बन जाना संयोग हो सकता है, पर इन्हें बनाए रखना कम चुनौतीपूर्ण नहीं है। लंबे और मधुर रिश्तों के लिए सबसे जरूरी होता है, आपसी सामंजस्य और समर्पण का भाव। जीवन में वही रिश्ता सफल होता है, जिसमें न तो अहं का भाव हो और न जीत की भावना। अपने साथी को जिताना ही सबसे बड़ी जीत मानी जाती है।

जीवन में ऊंचाइयों को छूने की स्थिति हमेशा नहीं आती। जब भी कोई अपने लक्ष्य को छूने की कोशिश में फिसलता है, उसे सहारे की जरूरत महसूस होती है। और यही वह वक्त होता है, जब रिश्तों की परीक्षा की घड़ी आती है। जब भी ऐसे हालात आते हैं, अपने साथी को ऐसे संभालें और सहारा दें कि आपका रिश्ता सार्थक हो जाए।

खलील जिब्रान ने अपने एक संदेश में कहा है- 'तुम्हारा मित्र तुम्हारे अभावों की पूर्ति है।' इस एक वाक्य का अर्थ काफी गूढ़ है। यदि वास्तव में हम साथी के अभावों को भर देते हैं तो वह रिश्ता सार्थक हो जाता है, जो इसी उद्देश्य के लिए बंधा था।

किसी भी रिश्ते की पहली शर्त है कि उसमें सहिष्णुता हो। क्योंकि जीवन में जिसमें सहन करने की शक्ति न हो, वह सुखी नहीं रह सकता और न अपने साथी को ही सुख दे सकता है। फिर चाहे रिश्ता दोस्ती का हो, प्रेम का या फिर पति-पत्नी का। रिश्तों के अवमूल्यन से बचने के लिए सबसे जरूरी तत्व है कि सभी एक-दूसरे की भावनाओं का आदर करें और समर्पण का भाव रखें।

समर्पण भी ऐसा कि जिसमें स्वार्थ की कोई मिलावट न हो, क्योंकि रिश्तों का पूरा बंधन विश्वास की जिस डोर से बंधा होता है, वह स्वार्थ की जरा-सी आँच से भी झुलस जाता है। और जो रिश्ता किसी स्वार्थ के वशीभूत होकर बांधा जाता है वह ज्यादा लंबा सफर तय नहीं कर पाता और किसी न किसी मोड़ पर आकर उसकी कलई खुल जाती है। इसलिए जरूरी है कि रिश्तों के प्रति गंभीरता बरती जाए और कोशिश भी की जाए कि इनमें कोई खराश न आए।

खून के रिश्तों या पारिवारिक रिश्तों के अलावा जो रिश्ते दिल के रास्ते पर बँधते हैं, उनका सबसे जरूरी तत्व है, भावनात्मक रूप से उसकी गर्माहट को हमेशा महसूस किया जाना। क्योंकि रिश्तों के बीच की गर्माहट जब भी ठंडी होने लगती है, जुड़ाव के धागे चटकने लगते हैं और एक दिन ऐसे रिश्ते हमेशा के लिए समाप्त होकर दिल के किसी कोने में सिर्फ याद बनकर रह जाते हैं। हर किसी के जीवन में ऐसी यादों की कमी नहीं होती, जब वे पीछे छूटे जीवन के किसी मोड़ पर अपने रिश्तों को छोड़ आए हों।

ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि हम उनमें भावनात्मकता का रंग नहीं भरते। स्कूल, कॉलेज या छोड़ चुके दफ्तरों को याद कीजिए, जहां कोई न कोई ऐसा अजीज साथी जरूर होगा, जो तब तो आपके बहुत नजदीक था पर आज नहीं है। ऐसा इसलिए कि आपने उन रिश्तों को सहेजकर नहीं रखा। जीवन की इस आपाधापी में रिश्तों की अहमियत को महसूस करना जरूरी इसलिए भी है कि आज सबसे अनमोल चीज रिश्ते ही तो हैं।

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