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व्यंग्य : सरकारी चिकन पार्लर और मैं

हमें फॉलो करें व्यंग्य : सरकारी चिकन पार्लर और मैं

अक्षय नेमा मेख

सुबह-सुबह चाय की चुस्की के साथ अखबार पर नजर दौड़ा रहा था कि अचानक नजर ठिठककर ठहर गई। नजर के घोड़ों का दम फूल चुका था और चश्मा धुंधला पड़ गया था। एक ही सांस में कप भरी चाय गुटकी, घोड़ों को पुचकारा और आंखें मींचते हुए पुन: खबर को तटस्थ होकर पढ़ने लगा। खबर थी कि अब सरकार मुर्गा बेचेगी। पढ़कर एक-दो नहीं, कई तरह के भाव एकसाथ मन में आने लगे।
 
पहला भाव आया कि सरकार की इस उदार नीति के प्रति उसे धन्यवाद ज्ञापित करूं, क्योंकि सरकार के पास बेचने को अब कुछ और बचा भी नहीं होगा? जो पहले रेत, फिर ठेके, फिर व्यापमं के पर्चों में लपेटकर ईमान फिर देश तक बेचने की कोशिशें कीं और अब मुर्गा? सोच ही रहा था कि दूसरा भाव सरकार को जी-भर कोसने का हुआ, पर देश का सभ्य नागरिक होने के नाते इस भाव पर भी पूर्णविराम लगा दिया।
 
फिर अचानक जो हुआ, वो मुझे भी नहीं पता। सहसा एक दिव्य प्रकाश हुआ जिसने मुझे अपने आगोश में ले लिया। मैं दिवास्वप्न में खो गया। मैं देखता हूं कि सरकारी मुर्गी फॉर्म का उद्घाटन हो रहा है। मुर्गा मंत्री भाव अलाप रहे हैं। सौ वाला पचास, सौ वाला पचास। सारा प्रशासनिक अमला कमीशन की जद में आकर रोजाना गांव-गांव साइकल पर मुर्गा बेचने निकलता है।
 
आधार कार्ड पर प्रति व्यक्ति सवा किलो मुर्गा खरीदी शुरू होती है। मुर्गा सब्सिडी देता है, जो सीधे बैंक अकाउंट में आ जाती है। किसानों की मांगों की अनदेखी कर उन्हें मुर्गापालन के लिए बाध्य किया जाता है और खेती का भारी-भरकम बोझ सरकार अपने व्यापारी मित्रों को सौंप देती है। सरकार गरीब की थाली देखकर खुश दिखती है और किसान राहत की सांस लेते हुए।
 
शाकाहारियों की जीभें लपलपाने लगती हैं। बनिया-बामन और लहसुन-प्याज का परित्याग कर चुके बांकुरों को हाथ में थैला रखे सरकार मुर्गा फॉर्म पर देखता हूं। ज्ञानीजन मांसभक्षण को देशभक्ति कहते हैं। सरकार के प्रति उनका अद्वैतवाद धरातल पर उतर आता है। सरकार के नेता-मंत्रियों सहित सरकार भक्तों को मुर्गे के अत्यधिक सेवन से अपच और उदरशूल हो उठता है। चिंतित सरकार ओझों से मशविरा कर मुर्गे के साथ शराब भी अनिवार्य कर देती है।
 
सरकार का ढाबा खूब चलता है। मेरी जीभ भी मुर्गे की रसीली टांगों का स्वाद लेना चाहती है। मैं भी सरकार मुर्गा फॉर्म, जो अब सरकार तंदूरी ढाबा में परिवर्तित हो चुका है, कर ओर जाता हूं। जहां पहले से सरकारी जनप्रतिनिधियों का कब्जा रहता है। मैं ऑर्डर देने ही वाला होता हूं कि बाहर अदम गोंडवी साहब की आवाज में- 'उतरा है रामराज्य सरकारी ढाबा पर' सुनाई देता है और मेरी दिवास्वप्न की तंद्रा टूट जाती हैं। देखता हूं घड़ी में 11.30 बज चुके होते हैं। चुपचाप अखबार लपेटता हूं और काम पर निकल पड़ता हूं।

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