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मणिपुर की हिंसा रोकने में महिलाएं निभा सकती हैं कारगर भूमिका

हमें फॉलो करें मणिपुर की हिंसा रोकने में महिलाएं निभा सकती हैं कारगर भूमिका

DW

, बुधवार, 28 जून 2023 (07:49 IST)
प्रभाकर मणि तिवारी
Manipur Violence : पूर्वोत्तर की महिलाओं को देश के दूसरे राज्यों के मुकाबले राजनीति में भले भागीदारी कम मिली हो, समाज में उनको पुरुषों के मुकाबले ज्यादा अधिकार मिले हुए हैं। बीते महीने से जातीय हिंसा और आगजनीकी चपेट में रहे मणिपुर में भी स्थिति अलग नहीं है। राजनीतिक दलों ने महिलाओं को राजनीति में समुचित भागीदारी भले ही नहीं दी हो लेकिन इन महिलाओं के आंदोलन के आगे ब्रिटिश शासन से लेकर तमाम सरकारें झुकती रही हैं। राज्य में शराबबंदी समेत कई फैसलों के पीछे महिलाओं के आंदोलन की अहम भूमिका रही है।
 
राज्य में महिलाओं की बड़ी भूमिका
मणिपुर में महिलाएं हमेशा केंद्र में रही हैं। राज्य में चल रही जातीय हिंसा के बीच शांति और सामान्य स्थिति बहाल करने में भूमिका निभाने में भी वो पीछे नहीं है। राज्य में हिंसा और आगजनी के लंबे दौर से उपजी परिस्थिति में महिलाएं अहम भूमिका निभा रही हैं।
 
मणिपुर की महिलाओं ने शांति बहाली की मांग में लगातार मशाल जुलूस निकाले हैं और हाइवे पर केंद्रीय बलों की आवाजाही को नियंत्रित किया है। यह महिलाएं दिन में अलग-अलग गुट बना कर उग्रवादियों से अपने गांवों की सुरक्षा कर रही हैं। इसी सप्ताह डेढ़ हजार से ज्यादा महिलाओं की भीड़ ने सेना के कब्जे से 12 उग्रवादियों को छुड़ा लिया।
 
जातीय हिंसा के कारण लगातार उलझती परिस्थिति को सुलझाने में राज्य की महिलाएं और ज्यादा अहम भूमिका निभा सकती हैं। यहां कबीलाई समाज में महिलाओं की भूमिका बेहद खास है। अतीत में महिलाओं ने कई सामाजिक समस्याओं के खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलन के जरिए जीत हासिल की है।
 
स्थानीय महिलाओं के आंदोलन के कारण ही असम राइफल्स को राजधानी इंफाल में कांग्ला फोर्ट से अपना मुख्यालय हटाना पड़ा था। सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) के खिलाफ इरोम शर्मिला के सोलह साल लंबे आंदोलन से तो पूरी दुनिया परिचित है।
 
अफस्पा के तहत असम राइफल्स के कथित अत्याचारों के खिलाफ वर्ष 2004 में महिलाएं के निर्वस्त्र प्रदर्शन की तस्वीरों ने भी पूरी दुनिया में सुर्खियां बटोरी थी। अब मौजूदा परिस्थिति में ही महिलाओं पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर घर-परिवार और समाज की सुरक्षा के लिए सड़कों पर उतर आई हैं।
 
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मदर्स मार्केट
राजधानी इंफाल का 'इमा कैथल' या मदर्स मार्केट पूरे देश में अपनी किस्म का अकेला ऐसा बाजार है जहां तमाम दुकानदार महिलाएं ही हैं। यह अनूठा बाजार इस बात का जीता-जागता सबूत है कि यहां सामाजिक और आर्थिक मोर्चे पर पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की भूमिका कितनी अहम है। इमा कैथल या मदर्स मार्केट की लगभग चार हजार महिला दुकानदार राज्य में शांति और सामान्य स्थिति की बहाली की मांग को लेकर तीन दिवसीय धरना-प्रदर्शन भी कर चुकी हैं।
 
इस बाजार की महिलाओं का आंदोलन का लंबा इतिहास रहा है। इन लोगों ने 19वीं सदी के आखिरी दशक में तत्कालीन ब्रिटिश शासकों के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी थी। ब्रिटिश अत्याचारों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाते हुए महिलाओं ने वर्ष 1939 में 'नूपी लाना' यानी महिला आंदोलन शुरू किया था। इसके नतीजे में अंग्रेजों को अपने कई फैसले वापस लेने पड़े थे।
 
समाज के लिए आंदोलन का इतिहास
राज्य की महिलाओं के कड़े विरोध के कारण ही वर्ष 1991 में मणिपुर में आर।के। रणबीर सिंह के नेतृत्व वाली पीपुल्स पार्टी सरकार को मणिपुर शराब निषेध अधिनियम पारित करना पड़ा था। सालाना छह सौ करोड़ के राजस्व घाटे को पाटने के लिए मौजूदा मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने बीते दिनों शराबबंदी को आंशिक रूप से हटाने का फैसला किया था। लेकिन महिला संगठनों के विरोध के कारण वह फैसला परवान नहीं चढ़ सका।

सत्तर के दशक में महिलाओं ने तमाम गांवों की गश्त करते हुए हजारों शराबियों और शराब तस्करों को पकड़ा और सजा भी दी थी। 'निशा बंद' नामक इस अभियान ने उस समय काफी सुर्खियां बटोरी थी।
 
राज्य के महिला संगठन नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) को लागू करने की मांग कर रहे हैं। संगठन से जुड़ी महिलाएं म्यांमार, नेपाल और बांग्लादेश के घुसपैठियों की पहचान कर उनको वापस भेजने की भी मांग कर रहे हैं। अब राज्य के निर्वाचित प्रतिनिधियों और केंद्रीय सुरक्षा बलों के खिलाफ भी महिलाओं में नाराजगी बढ़ रही है। महिला संगठन रास्ता रोक कर सुरक्षा बल के जवानों को गांवों में नहीं घुसने दे रही हैं।
 
वर्ष 1980 में सुरक्षा बलों के कथित अत्याचारों से युवा पीढ़ी की सुरक्षा के लिए तमाम महिलाओं ने मिल कर 'मीरा पैबीस' नामक आंदोलन शुरू किया था। इसके तहत महिलाएं अलग-अलग गुटों में अपने-अपने इलाके पर निगाह रखती थी ताकि सुरक्षा बल उग्रवाद के बहाने बिना वजह युवाओं की गिरफ्तारी या हत्या नहीं कर सकें। वर्ष 1992 से 1996 के चार साल के दौरान नागा और कुकी समुदाय में जारी जातीय हिंसा में भी मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों पर अंकुश लगाने में स्थानीय महिलाओं की भूमिका काफी अहम रही थी।
 
अफस्पा के खिलाफ लंबे समय तक भूख हड़ताल करने वाली इरोम शर्मिला ने हाल में राज्य की तमाम महिलाओं से अपनी जातीय पहचान से ऊपर उठ कर संकट की इस घड़ी में राज्य के लोगों के हित में एकजुट होकर काम करने की अपील की है।
 
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि मौजूदा परिस्थिति में जब केंद्र और राज्य सरकार तमाम कोशिशों, अमित शाह के दौरे और बड़े पैमाने पर सुरक्षाबलों की तैनाती के बावजूद हिंसा पर काबू पाने में नाकाम रही है, इन महिलाओं को इसके लिए अग्रिम मोर्चे पर खड़ा किया जा सकता है।

राज्य में महिला संगठनों के पिछले ट्रैक रिकार्ड को देखते हुए मैतेई और कुकी महिला संगठनों के जरिए शांति बहाली की पहल से लगातार जटिल होती पहेली को सुलझाने की राह निकल सकती है।


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