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शांति के दौर में भी सीमा पर शहीद होते सैनिक

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, शनिवार, 20 जनवरी 2018 (12:57 IST)
भारत में युद्ध की स्थिति नहीं होने के बावजूद बीते 13 वर्षों से हर तीसरे दिन सेना के एक जवान की मौत हुई है। यह मौतें सीमा पर युद्धविराम के उल्लंघन के अलावा आतंकवादी घटनाओं आदि में हुई हैं। वर्ष 2017 के दौरान भारतीय सेना के कुल 91 जवानों की मौत हुई। सेना की ओर से सैन्य दिवस पर जारी आंकड़ों से यह तथ्य सामने आया है। इस दौरान वर्ष 2012 में सबसे कम 17 जवानों की मौत हुई थी। उसके बाद यह आंकड़ा लगातार बढ़ रहा है।
 
रिपोर्ट
सेना की रिपोर्ट में कहा गया है कि जनवरी, 2005 से दिसंबर, 2017 तक अंतरराष्ट्रीय सीमा पर पाकिस्तान की ओर से हुए युद्धविराम के उल्लंघन या आतंकवादी-विरोधी अभियानों में कुल 1684 जवानों की मौत हो गई। बीते साल आठ अफसरों समेत कुल 91 जवान अपनी ड्यूटी के दौरान शहीद हुए। उससे पहले वर्ष 2016 में यह आंकड़ा 86 था। इसमें 11 अफसर भी शामिल थे। रक्षा विभाग के मुताबिक, इन 13 वर्षों में सबसे ज्यादा 342 मौतें वर्ष 2005 के दौरान हुई थीं। वर्ष 2006 में यह तादाद घट कर 223 तक पहुंची। वर्ष 2013 में सेना के अफसरों व जवानों की मौत का आंकड़ा सबसे कम (64) रहा।
 
उसके बाद इसमें लगातार बढ़ोतरी हुई है। इनमें सबसे ज्यादा मौतें पाक से लगी अंतरराष्ट्रीय सीमा पर हुई हैं। इसके अलावा जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों में आंतकवाद-विरोधी अभियानों के दौरान भी कई अफसरों और जवानों की मौत हुई है। लेकिन उनकी तादाद सीमा पर होने वाली मौतों के मुकाबले काफी कम है।
 
वजह
भारत और पाकिस्तान की सीमा और जम्मू-कश्मीर में दोनों देशों की नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर होने वाले युद्धविराम उल्लंघन और बिना किसी उकसावे के होने वाली फायरिंग सेना के जवानों के लिए जानलेवा साबित हो रही है। वर्ष 2003 में दोनों देशों के बीच युद्धविराम समझौता हुआ था। लेकिन उसके बाद सीमा पार से इसके उल्लंघन की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। भारत और पाकिस्तान की सीमा 3,323 किमी लंबी है। इसमें से 221 किमी लंबी अंतरराष्ट्रीय सीमा और 740 किमी लंबी नियंत्रण रेखा जम्मू-कश्मीर में है। युद्धविराम उल्लंघन की सबसे ज्यादा घटनाएं इसी राज्य में होती हैं।
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केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर हाल में जारी आंकड़ों में कहा गया है कि पाकिस्तान की ओर से वर्ष 2017 में लगभग 750 बार युद्धविराम का उल्लंघन किया गया जो बीते सात वर्षों में सबसे ज्यादा है। वर्ष 2016 के दौरान ऐसी महज 449 घटनाएं हुई थीं। बीते सात वर्षों से ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ी हैं। सरकार का दावा है कि पाकिस्तान की ओर से अक्सर बिना किसी उकसावे के फायरिंग की जाती है। इनमें सुरक्षा बल के जवानों के अलावा आम लोगों की भी मौत होती रही है। इसे लेकर भारत सरकार बार-बार पाकिस्तान के समक्ष विरोध जताती रही है। बावजूद इसके ऐसी घटनाएं थमने की बजाय बढ़ती ही जा रही हैं। सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी मानते हैं कि एक सक्रिय नियंत्रण रेखा पर सेना के जवानों की मरने की घटनाएं अममून ज्यादा होती हैं। लेकिन सेना की कोशिश ऐसे मामलों को न्यूनतम रखने की होती है।
 
अंकुश कैसे
आखिर अंतरराष्ट्रीय सीमा पर सेना की जवानों की मौत के बढ़ते मामलों पर अंकुश कैसे लगाया जा सकता है? रक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि सीमा और नियंत्रण रेखा पर आधारभूत ढांचे को मजबूत कर सेना को अत्याधुनिक हथियारों और उपकरणों से लैस कर इन मामलों को कुछ कम किया जा सकता है। लेकिन सीमा पर बार-बार युद्धविराम के एकतरफा उल्लंघन की वजह से ऐसे मामलों को पूरी तरह रोकना संभव नहीं है।
 
रक्षा विशेषज्ञ मोहन गोगोई बताते हैं, "युद्धविराम के उल्लंघन पर अंकुश लगाने का कोई तंत्र विकसित नहीं हो सका है। ऐसे में सीमा पर तैनात जवानों की सावधानी ही उनको बचा सकती है। इसके साथ ही अंतरराष्ट्रीय सीमा पर और नियंत्रण रेखा पर जवानों की तैनाती का समय भी घटाया जाना चाहिए ताकि उनको तनावमुक्त किया जा सके।" वह कहते हैं कि अक्सर ऐसे माहौल में काम करने वाले कई जवान तनाव में या तो खुदकुशी कर लेते हैं या फिर अपने साथियों की हत्या कर देते हैं। ऐसे में उन जवानों की छुट्टी का भी प्रावधान होना चाहिए।
 
विशेषज्ञों का कहना है कि यह विडंबना ही है कारगिल युद्ध के दौरान जितने जवान शहीद हुए उससे कई गुना ज्यादा जवान उसके बाद शांति के दौर में अपनी जान से हाथ धो बैठे हैं। मौजूदा हालात में जम्मू-कश्मीर जैसे दुर्गम इलाके में शायद इन घटनाओं पर पूरी तरह अंकुश लगाना संभव नहीं होगा।
 
रिपोर्टः प्रभाकर

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