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जैन धर्म में श्रुत पंचमी का महत्व, जानिए...

हमें फॉलो करें जैन धर्म में श्रुत पंचमी का महत्व, जानिए...

राजश्री कासलीवाल

* दुर्लभ जैन ग्रंथ एवं शास्त्रों की रक्षा का महापर्व श्रुत पंचमी
 
जैन धर्म में ज्येष्ठ माह, शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को 'श्रुत पंचमी' (Shruti Panchami, ज्ञान पंचमी) का पर्व मनाया जाता है। इस दिन भगवान महावीर के दर्शन को पहली बार लिखित ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत किया गया था। पहले भगवान महावीर केवल उपदेश देते थे और उनके प्रमुख शिष्य (गणधर) उसे सभी को समझाते थे, क्योंकि तब महावीर की वाणी को लिखने की परंपरा नहीं  थी। उसे सुनकर ही स्मरण किया जाता था इसीलिए उसका नाम 'श्रुत' था। 
 
जैन समाज में इस दिन का विशेष महत्व है। इसी दिन पहली बार जैन धर्मग्रंथ लिखा गया था। भगवान महावीर ने जो ज्ञान दिया, उसे श्रुत परंपरा के अंतर्गत अनेक आचार्यों ने जीवित रखा। गुजरात के गिरनार पर्वत की चन्द्र गुफा में धरसेनाचार्य ने पुष्पदंत एवं भूतबलि मुनियों को सैद्धांतिक देशना दी जिसे सुनने के बाद मुनियों ने एक ग्रंथ रचकर ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी को प्रस्तुत किया।
 
एक कथा के अनुसार 2,000 वर्ष पहले जैन धर्म के वयोवृद्ध आचार्यरत्न परम पूज्य 108 संत श्री धरसेनाचार्य को अचानक यह अनुभव हुआ कि उनके द्वारा अर्जित जैन धर्म का ज्ञान  केवल उनकी वाणी तक सीमित है। उन्होंने सोचा कि शिष्यों की स्मरण शक्ति कम होने पर ज्ञान वाणी नहीं बचेगी, ऐसे में मेरे समाधि लेने से जैन धर्म का संपूर्ण ज्ञान खत्म हो  जाएगा। तब धरसेनाचार्य ने पुष्पदंत एवं भूतबलि की सहायता से ‘षटखंडागम’ शास्त्र की रचना की, इस शास्त्र में जैन धर्म से जुड़ी कई अहम जानकारियां हैं। इसे ज्येष्ठ शुक्ल की  पंचमी को प्रस्तुत किया गया। इस शुभ मंगलमयी अवसर पर अनेक देवी-देवताओं ने णमोकार महामंत्र से ‘षटखंडागम’ की पूजा की थी।
 
इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि इस दिन से श्रुत परंपरा को लिपिबद्ध परंपरा के रूप में प्रारंभ किया गया। उस ग्रंथ को ‘षटखंडागम’ के नाम से जाना जाता है। इस दिन से श्रुत  परंपरा को लिपिबद्ध परंपरा के रूप में प्रारंभ किया गया था इसीलिए यह दिवस श्रुत पंचमी (Shruti Panchami) के नाम से जाना जाता है। इसका एक अन्य नाम ‘प्राकृत भाषा दिवस’ भी है। 
 
श्रुत पंचमी के दिन जैन धर्मावलंबी मंदिरों में प्राकृत, संस्कृत, प्राचीन भाषाओं में हस्तलिखित प्राचीन मूल शास्त्रों को शास्त्र भंडार से बाहर निकालकर, शास्त्र-भंडारों की साफ-सफाई करके, प्राचीनतम शास्त्रों की सुरक्षा की दृष्टि से उन्हें नए वस्त्रों में लपेटकर सुरक्षित किया जाता है तथा इन ग्रंथों को भगवान की वेदी के समीप विराजमान करके उनकी पूजा-अर्चना करते हैं, क्योंकि इसी दिन जैन शास्त्र लिखकर उनकी पूजा की गई थी, क्योंकि उससे पहले जैन ज्ञान मौखिक रूप में आचार्य परंपरा से चल रहा था।
 
इस दिन जैन धर्मावलंबी पीले वस्त्र धारण करके जिनवाणी की शोभा यात्रा निकालकर पर्व को मनाते हैं, साथ ही अप्रकाशित दुर्लभ ग्रंथों/  शास्त्रों को प्रकाशित करने के उद्देश्य से समाज के लोग यथाशक्ति दान देकर इस परंपरा का निर्वहन करते हैं।
 

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