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ईसा मसीह की क़ब्र या झगड़े की जड़

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राम यादव

, सोमवार, 1 अप्रैल 2024 (16:44 IST)
Grave Church in Jerusalem: येरुशलम में ईसा मसीह की क़ब्र पर बना ईसाई जगत का सबसे पवित्र चर्च, बड़े आकार के मटमैले चौकर पत्थरों और बाद के समय की ईंटों को जोड़कर बनी एक बड़ी-सी दुमंजिला इमारत है। जीसस क्राइस्ट (jesus christ) का ग्रेव-चर्च कहलाने वाला ईसाइयत का यही सबसे पवित्र तीर्थ स्थान है।
 
इस चर्च का असली मालिक कौन है? : 1600 वर्ष पूर्व जब यह चर्च बना था, तभी से वे अलग-अलग पक्ष आपस में लड़-झगड़ रहे हैं जिन्होंने इस चर्च में लंबे समय से डेरा डाल रखा है। झगड़ा इस बात को लेकर है कि इस चर्च का असली मालिक कौन है? किसका अधिकार है इस पर? हर दावेदार पक्ष ईसा मसीह की कथित क़ब्र पर बने इस जगप्रसिद्ध पवित्र चर्च के बहाने से दुनियाभर के ईसाइयों को अपने रंग में रंगना और अपनी मुट्ठी में कसना चाहता है। धार्मिक सत्ता के विस्तार की यही भूख, न कि ईश्वर-भक्ति झगड़े का कारण बनती है।
 
सुबह से शाम तक बड़ी भीड़ रहती है : इस चर्च में सुबह से शाम तक बड़ी भीड़ रहती है। धर्म के नाम पर होता तो बहुत कुछ है, पर अधिकतर सतही तौर पर और उन लोगों की नज़रों से परे, जो यहां आते हैं माथा टेकने। ईसाइयों की बहुलता वाले अलग-अलग देशों से आए अलग-अलग संप्रदायों के लोग, एक ही समय अलग-अलग भाषाओं में और एक-दूसरे की अगल-बगल में ही अपने-अपने रिवाज़ों वाले अनुष्ठानों में व्यस्त दिखते हैं।
 
शुरू-शुरू में यहां लगभग कुछ भी नहीं था। केवल 2 छोटे-मोटे चैपल यानी प्रार्थना कक्ष होते थे। एक चैपल 'गोलगाथा' नाम की उस जगह बना था, जहां ईसा मसीह को सूली (क्रॉस) पर चढ़ाया गया था और दूसरा उस जगह जहां उन्हें दफ़नाया गया था। बाद की सदियों में जिस किसी शासक ने येरुशलम पर विजय पाई। उसने इस चर्च को पहले तो तोड़ा-फोड़ा और कुछ समय बाद पुनः बना भी दिया। यह एक बहुत बड़ा आश्चर्य ही है कि यह चर्च आज भी अपनी जगह पर खड़ा है।
 
ऐसे 3 बड़े ईसाई संप्रदाय हैं, जो इस चर्च में होने वाली गतिविधियों पर कड़ी नज़र रखते हैं। वे ही इस चर्च के वस्तुत: मालिक भी बन गए हैं- ग्रीक यानी यूनानी, आर्मेनियाई और कैथोलिक। इन 3 बड़े ईसाई संप्रदायों के अलावा यहां 'सीरियन चर्च' और 'कॉप्टिक चर्च' कहलाने वाले 2 और बहुत पुराने ईसाई संप्रदाय भी सक्रिय हैं। इथियोपियाई ईसाइयों के एक अलग संप्रदाय ने चर्च की छत पर डेरा डाल रखा है। इथियोपियाई ईसाई, मिस्र के कॉप्टिक संप्रदाय के साथ 18वीं सदी में हुए एक शक्ति परीक्षण में अपनी साख खो बैठे थे। चर्च की छत पर से अब वे भी अपने अस्तित्व का पुन: बोध कराना चाहते हैं।
 
अंग्रेज़ों ने ही नियम बनाए थे : लेकिन सबसे मज़े की बात तो यह है कि सारी दुनिया के ईसाइयों के लिए इस सबसे पावन चर्च की रोज़मर्रा गतिविधियां अंग्रेजों के समय के ऐसे नियमों के अनुसार चलती हैं जिन्हें अंग्रेज़ों ने येरुशलम पर के अपने शासनकाल में बनाया था। अंग्रेज़ों ने ही उस समय नियम बनाए थे कि चर्च के किस हिस्से में कौन, कब पूजापाठ कर सकता है और कौन नहीं?
 
अंग्रेजों के बनाए नियम अब समस्या बन गए हैं। अलग-अलग संप्रदायों को चर्च के भीतर मिली अलग-अलग जगहों की सही-सही सीमाएं बता पाना बहुत मुश्किल हो गया है। अपने-अपने हिस्से की जगह को लेकर उनके बीच बार-बार उठने वाले सीमा-विवाद चर्च की पवित्रता को अपवित्र ही नहीं करते, ईसा मसीह के भक्तों के बीच ईर्ष्या और मनमुटाव भी पैदा करते हैं। आत्मीयता व आध्यात्मिकता पर सांसारिकता हावी होने लगती है।
 
ईसा मसीह को गोलगाथा पर ही सूली पर चढ़ाया गया : चर्च के ही एक हिस्से में 'गोलगाथा' कहलाने वाली एक जगह है जिसके बारे में माना जाता है कि ईसा मसीह को गोलगाथा नाम की जगह पर ही सूली पर चढ़ाया गया था। चर्च के गोलगाथा वाले प्रकोष्ठ में सूलीरोहण की पीड़ा दर्शाती ईसा मसीह की वैसी ही एक मूर्ति दिखाई पड़ती है, जैसी दुनिया के लगभग हर ईसाई चर्च में देखने में आती है।
 
इस चर्च के वर्तमान आर्मेनियाई धर्मगुरु का कहना है कि 1539 तक गोलगाथा वाली मूल जगह आर्मेनियाइयों के क़ब्ज़े में हुआ करती थी। उस समय के जॉर्जियाई लोग अपने समकालीन आर्मेनियाइयों से जलते थे कि गोलगाथा उनके नहीं, आर्मेनियाइयों के पास है। अत: जॉर्जियाइयों ने वहां के तत्कालीन सुल्तान को रिश्वत देकर पटा लिया कि गोलगाथा उन्हें देदिया जाए। लेकिन कुछ समय बाद आर्मेनियाई भी सुल्तान के पास पहुंचे। उन्होंने भी रिश्वत दी और गोलगाथा उन्हें वापस मिल गया।
 
कुछ और समय बीता। वहां तैनात सैनिक हटा लिए गए। उन सैनिकों के पास जो कुछ था, उसे उन्होंने यूनानियों को बेच दिया या यूनानियों ने खुद ही हथिया लिया। आर्मेनियाई भी एक बार फिर सुल्तान के पास गए। उसकी मुट्ठी फिर गरम की। इस बार सुल्तान ने उन्हें एक दूसरी जगह दी। तब वर्तमान चर्च में स्थित इस दूसरी जगह पर आर्मेनियाइयों ने ईसा मसीह के सूलीरोहण को समर्पित एक दूसरा गोलगाथा बनाया।
 
ईसाइयों के इस सबसे पावन चर्च में विभिन्न ईसाई संप्रदायों के बीच सहअस्तित्व के लिए अंग्रेज़ों ने जो जटिल नियम बनाए थे, इसराइल के जन्म के बाद से उनका पालन करवाना इसराइली पुलिस का कार्यभार बन गया है। ऐसे अपवाद बहुत कम ही होते हैं, जब इसराइली पुलिस को इस चर्च में नहीं बुलाया जाता। नियम यह भी है कि पुलिस, बिना बुलाए चर्च की इमारत में प्रवेश नहीं कर सकती। कुछ समय से जॉनी कसाब्री नाम का एक अरबी पुलिस अफ़सर इस चर्च से संबंधित क़ानून-व्यवस्था के मामलों का मुख्य प्रभारी है।
 
जॉनी की सलाह है कि पुलिस को बुलाने से पहले विभिन्न संप्रदायों के धर्माधिकारी पहले आपस में राय-बात कर कोई सहमति बना लिया करें ताकि पुलिस उनकी इच्छानुसार काम कर सके। कभी सबसे शक्तिशाली रहे इथियोपियाई ईसाई, अब येरुशलम के चर्च का सबसे दीनहीन संप्रदाय बन गए हैं। चर्च के प्रांगण में एक इंच भी ऐसी जगह नहीं है जिसे वे अपनी कह सकें।
 
इस इथियोपियाई संप्रदाय के लगभग 2 दर्जन लोग चर्च के पास ही जीर्ण-शीर्ण मकानों के एक गंदे-से संकुल में रहते हैं। अपने धार्मिक कर्मकांडों के लिए वे चर्च से ही सटे 'अल सुल्तान' नाम के मठ का उपयोग करते हैं। यह जगह 5 दशक पूर्व एक इसराइली अदालत ने उन्हें दी थी। इस बीच मिस्र के कॉप्टिक ऑर्थोडॉक्स संप्रदाय वाले उस पर अपना दावा जताने लगे हैं।
 
कॉप्टिकों का तर्क है कि मठ का 'अल सुल्तान' नाम ही यह प्रमाणित कर देता है कि उसे एक मिस्री सुल्तान ने बनवाया था। इथियोपियाई परंपरा में तो ऐसे नाम होते ही नहीं। इसी विवाद के चलते 2015 में मिस्री कॉप्टिक संप्रदाय के लोगों ने इथियोपियाइयों की अच्छी-ख़ासी पिटाई कर दी। यह मामला भारत में ज्ञानवापी मस्जिद वाले विवाद से मिलता-जुलता है। 'ज्ञान' एक विशुद्ध संस्कृत शब्द है जबकि मस्जिदों के नाम अरबी-फ़ारसी शब्दों वाले होते हैं।
 
ईसा के पार्थिव शरीर को सलीब से उतारकर ज़मीन पर रख दिया गया था : सलीब (क्रॉस) पर लटकाए गए ईसा मसीह की मृत्यु के बाद उनके पार्थिव शरीर को सलीब से उतारकर ज़मीन पर रख दिया गया था। शरीर को नहलाने-धोने के बाद यहूदी परंपरा के अनुसार उन पर नमक लगाया गया। माना जाता है कि ईसा मसीह के पार्थिव शरीर को इसी चर्च के नीचे बनी क़ब्र में दफ़नाया गया है, हालांकि इस मान्यता की सच्चाई को लेकर संदेह भी हैं। कहा यह भी जाता है कि ईसा मसीह, ईस्टर वाले त्योहार के 40 दिन बाद मानो पुनर्जीवित हो गए और बादलों से घिरकर स्वर्ग की ओर चले गए।
 
येरुशलम जाने वाले तीर्थयात्री पुण्य प्रप्ति के लिए ईसा मसीह की इस कथित क़ब्र के ऊपर के पथरीले फ़र्श पर मीठी गंध वाले तेल आदि छिड़ककर उसे अपने साथ लाए कपड़ों से पोंछते हैं। फ़र्श को पोंछने और चूमने के बाद वे इन कपड़ों को अपने साथ घर ले जाते हैं और ऐसे लोगों को बांटते हैं, जो स्वयं येरुशलम नहीं जा सके हैं ताकि उन्हें भी ईसा मसीह का आशीर्वाद मिले। कई तीर्थयात्री फ़र्श को पोंछते और चूमते समय इतने भावुक हो जाते हैं कि रोने लगते हैं।
 
एक-दूसरे के प्रति व्यवहार प्रतिद्वंद्वियों जैसा : कहने को तो येरुशलम के इस चर्च को एक ही ईसाई पंथ के अलग-अलग संप्रदायों ने सदियों से आपस में बांट रखा है। लेकिन एक-दूसरे के प्रति उनका व्यवहार सहयोगियों की अपेक्षा प्रतिद्वंद्वियों जैसा कहीं अधिक है। उनके बीच कोई न कोई विवाद अक्सर उठ खड़ा होता है। मामला पुलिस के पास जाता है और हर बार इसराइली पुलिस अधिकारी जॉनी कसाब्री को बीच-बचाव करते हुए गुत्थी सुलझानी पड़ती है। समय के साथ कसाब्री इस कला के माहिर बन गए हैं। उनका कहना है कि सबकी सुनना और धीरज रखना उनका मूल मंत्र है। 
 
चर्च के 2 दरवाज़े हैं। एक हमेशा बंद रहता है। बाबा आदम के ज़माने के बने दूसरे दरवाज़े की चाबी एक ख़ास मुस्लिम घराने के पास रहती है। एक युद्ध के बाद 1687 में येरुशलम पर सुल्तान सलाहदीन का अधिकार हो गया था। उसे य़ह अनूठा विचार आया कि चर्च की चाबी मुसलमानों के पास रहनी चाहिए। उस समय येरुशलम में 2 प्रतिष्ठित मुस्लिम परिवार रहते थे- जूदेह और नुसेइबेह। इन्हीं दोनों परिवारों के सदस्य मध्ययुग से ही सुबह चर्च के द्वार पट खोलते और शाम को बंद करते हैं।
 
समय बीतने के साथ दोनों की नई पीढ़ियों को ठीक से याद नहीं रहा कि कौन-सा परिवर सुबह चर्च का ताला खोलता है और कौन-सा शाम को बंद करता है। इसलिए अब एक अलग ही रिवाज़ बन गया है। अब चाबी सदा जूदेह घराने की 28वीं पीढ़ी के आबिद जूदेह के पास रहती है। नुसेइबेह घराने के वाजेह नुसेइबेह हर सुबह जूदेह परिवार से चाबी लेकर चर्च के प्रवेश द्वार का ताला खोलते हैं और शाम को ताला बंद कर चाबी जूदेह परिवार को लौटा देते हैं।
 
कोई 260 वर्ष पूर्व येरुशलम जब अंग्रेज़ों के आधिपत्य में आया तो उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि अपनी-अपनी डफली अपना-अपना राग अलापने वाले इस बहुसांप्रदायिक चर्च को संभाला कैसे जाए। उन्होने तय किया कि भला इसी में है कि सबको अपना-अपना राग अलापने दिया जाए। इसीलिए चर्च में प्रवेश करते ही सामने दिखने वाला पूरा गलियारा सबके लिए है। गलियारे के अगल-बगल में और अंत में पड़ने वाला चैपलनुमा हर प्रार्थना कक्ष किसी न किसी संप्रदाय के अधीन है। शुरू के 2 प्रार्थना कक्ष आर्मेनियाइयों के हैं। कैथोलिकों के पास केवल एक कक्ष है। ग्रीक ऑर्थोडॉक्स चर्च वालों के पास 4 कक्ष हैं और एक प्रार्थना कक्ष मिस्र के कॉप्टिक ऑर्थोडॉक्स चर्च के पास है।
 
खींचतान और मारपीट की नौबत : तब भी अपनी-अपनी सीमाओं को लेकर लगभग हर दिन खींचतान होती है। ऐसी-ऐसी जगहों पर पूजा-अर्चना के प्रयास होते हैं जिन पर ऐसा प्रयास करने वाले संप्रदाय का अधिकार नहीं होता। इस कारण कई बार मारपीट तक की नौबत आ जाती है और पुलिस को बुलाना पड़ता है।
 
ईसा मसीह की क़ब्र के ऊपर चिंतन-मनन के लिए एक अलग कमरा बना है। साथ ही ग्रीक ऑर्थोडॉक्स चर्च वालों को इस कमरे में शाम 5 बजे से सांध्यकालीन प्रार्थना का प्रथम अधिकार भी है। उनके बाद क्रमश: आर्मेनियाई और कैथोलिक इस कमरे का 2-2 घंटों के लिए उपयोग कर सकते हैं। इस चर्च में केवल सामान्य भक्तजन ही नहीं आते, देश-विदेश के नेता, राजनय और बड़े-बड़े पधाधिकारी भी आते हैं। उनकी सुरक्षा और दैनिक गतिविधियों की सुचारुता की ज़िम्मेदारी इसराइली पुलिस के कंधों पर है।
 
ईस्टर और क्रिसमस जैसे त्योहारी दिनों पर गाजे-बाजे के साथ जुलूस और झांकियां भी निकाली जाती हैं। खूब भीड़-भाड़ और धक्का-मुक्की होती है। भगदड़ मचने और लोगों के पैरों तले कुचले जाने के का ख़तरा भी रहता है। इसराइली पुलिस को धैर्यवान भी बने रहना पड़ता है और भीड़ को नियंत्रण में रखने के लिए कठोरता भी दिखानी पडती है।
 
विशेषकर क्रिसमस या ईस्टर जैसे त्योहारी दिनों पर आने वाले तीर्थयात्री अपने मन में किसी दैवीय चमत्कार की भी कामना लेकर आते हैं। पर चमत्कारों की जगह अब दुर्घटनाओं की संभावना कहीं अधिक होती है, क्योंकि बहुत से लोग हाथों में जलती मशालें और मोमबत्तियां लिए रहते हैं।
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/ विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/ विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई जिम्मेदारी नहीं लेती है।)

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