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सुभाष के रास्ते से आजादी के मायने

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सुशील कुमार शर्मा

इस विषय पर लिखने से पहले बहुत सोचा कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विरुद्ध तो नहीं लिख रहा हूं, क्योंकि गांधीजी भारत की पहचान हैं। लेकिन फिर सोचा कि जो सत्य है  उसको सम्मान और आदर की चादर से नहीं ढांका जा सकता है। गांधीजी स्वयं सत्य के पुजारी रहे हैं, लेकिन वे भी मानव थे।
 
23 जनवरी 1897 को ओडिशा के कटक में जानकीनाथ बोस एवं प्रभावती के घर जन्मे सुभाषचन्द्र बोस का जीवन अत्यंत संघर्षपूर्ण, शौर्यपूर्ण और प्रेरणादायी है।
 
विवेकानंद की शिक्षाओं का सुभाष पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। अपने विशिष्ट व्यक्तित्व एवं उपलब्धियों की वजह से सुभाषचन्द्र बोस भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते  हैं। सुभाषचन्द्र बोस का जन्म उस समय हुआ, जब भारत में अहिंसा और असहयोग आंदोलन अपनी प्रारंभिक अवस्था में थे।
 
बचपन से ही हमारे दिमाग में यह धारणा बैठा दी गई है कि गांधीजी की अहिंसात्मक नीतियों से हमें आजादी मिली है। इस धारणा को पोंछकर दूसरी धारणा दिमाग में बैठाना कि  नेताजी और आजाद हिन्द फौज की सैन्य गतिविधियों के कारण हमें आजादी मिली, जरा मुश्किल काम है।
 
कांग्रेस के अधिवेशन में नेताजी ने कहा था कि मैं देश से अंग्रेजों को निकालना चाहता हूं। मैं अहिंसा में विश्वास रखता हूं किंतु इस रास्ते पर चलकर स्वतंत्रता काफी देर से मिलने  की आशा है। उन्होंने क्रांतिकारियों को सशक्त बनने को कहा। वे चाहते थे कि अंग्रेज भयभीत होकर भाग खड़े हों। वे देशसेवा के काम पर लग गए। न दिन देखा, न रात। उनकी  सफलता देख देशबंधु ने कहा था कि मैं एक बात समझ गया हूं कि तुम देश के लिए रत्न सिद्ध होंगे।
 
नेताजी ने अपने रेडियो संबोधन में आजाद हिन्द फौज की वैधता को जाहिर करते हुए कहा था कि मैं जानता हूं कि ब्रिटिश सरकार भारत की स्वाधीनता की मांग कभी स्वीकार  नहीं करेगी। मैं इस बात का कायल हो चुका हूं कि यदि हमें आजादी चाहिए तो हमें खून के दरिया से गुजरने को तैयार रहना चाहिए। अगर मुझे उम्मीद होती कि आजादी पाने का  एक और सुनहरा मौका अपनी जिंदगी में हमें मिलेगा, तो मैं शायद घर छोड़ता ही नहीं। मैंने जो कुछ किया है, अपने देश के लिए किया है। विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने और  भारत की स्वाधीनता के लक्ष्य के निकट पहुंचने के लिए किया है। भारत की स्वाधीनता की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है। आजाद हिन्द फौज के सैनिक भारत की भूमि पर  सफलतापूर्वक लड़ रहे हैं। हे राष्ट्रपिता! भारत की स्वाधीनता के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभ कामनाएं चाहते हैं।
 
21 अक्टूबर 1943 को नेताजी ने आजाद हिन्द की अस्थायी सरकार की घोषणा की। 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर में टाउन हॉल के सामने एक बड़े मैदान में सुभाषचन्द्र बोस  ने सैनिक वर्दी में आजाद हिन्द फौज के अधिकारियों एवं सैनिकों से भव्य परेड में सलामी ली। 
 
अपने ऐतिहासिक भाषण में उन्होंने कहा कि आज मेरी जिंदगी में सबसे अधिक अभिमान करने का दिन है, क्योंकि आज ईश्वर की कृपा से मुझे संसार के सामने यह घोषणा करने  का अवसर मिला है कि हिन्दुस्तान को आजाद कराने वाली सेना बन चुकी है। आजाद हिन्द फौज वह सेना है, जो हिन्दुस्तान को अंग्रेजों के जुल्मों से मुक्त करवाएगी। भाषण के  अंत में जब उन्होंने आजाद हिन्द फौज के सेनानियों को 'चलो दिल्ली' का नारा दिया तो सारा हॉल 'इंकलाब जिन्दाबाद', 'भारतमाता की जय' और 'आजाद हिन्द' के विजय घोष से  गूंज उठा।
 
लगभग 25 माह तक तूफानी दौरे करके, सभाएं करके भारतीय नागरिकों एवं सैनिकों में उन्होंने अभूतपूर्व आत्मविश्वास, एकता, निष्ठा एवं त्याग जैसे उच्चतम आदर्शों की भावना का  संचार किया। स्वयंसेवक बनने के लिए कतारें लग गईं। लोग स्वेच्छा से उन्हें धन देने लगे। हबीबुर रहमान नामक एक मुस्लिम व्यापारी ने उन्हें 1 करोड़ की संपत्ति एवं रत्न दान में  दिए। उसे इस त्याग के लिए 'सेवक हिन्द' की उपाधि दी गई।
 
जोशीले भाषण में उन्होंने अपील की ईश्वर के नाम पर, पूर्वजों के नाम पर जिन्होंने भारतीयों को एक सूत्र में बांधकर एक राष्ट्र बनाया। उन स्वर्गवासी वीरों के नाम पर जिन्होंने शौर्य  एवं आत्मबलिदान की परंपरा बनाई। उन्होंने कहा कि हम भारतवासियों को देश की स्वतंत्रता के लिए युद्ध करने और भारतीय झंडे के नीचे आने का आह्वान करते हैं। आजाद हिन्द  की स्थापना के तुरंत बाद सुभाषचन्द्र बोस ने सिंगापुर में 'झांसी रानी की रेजीमेंट' का गठन किया। कैप्टन डॉ. लक्ष्मी स्वामीनाथन को इसका संचालक बनाया गया। इस संगठन में  महिलाएं नियमित परेड और राइफल चलाती थीं। कुछ सेविकाएं, नर्स तथा अन्य कार्य संभालती थीं।
 
28 अक्टूबर 1943 को जापान के प्रधानमंत्री जनरल तोजो ने पूर्वी एशिया के युद्ध में अंग्रेजों से जीता गया अंडमान-निकोबार द्वीप नेताजी की इस अस्थायी सरकार के अधीन कर  दिया गया। आजाद हिन्द सरकार ने इस द्वीप का नाम शहीद एवं स्वराज द्वीप रखा। अंडमान-निकोबार के बाद भारत के पूर्वी द्वार बर्मा से अंग्रेजों को खदेड़कर वहां पर आजाद हिन्द  सरकार का तिरंगा फहराने की महत्वाकांक्षा उनमें जोर पकड़ रही थी अत: उन्होंने अपना कार्यालय जनवरी 1944 में रंगून में स्थापित कर दिया। बर्मा (अब म्यांमार) के सभी  भारतवासियों में अपार उत्साह का संचार हुआ।
 
नेताजी के मार्गदर्शन में आजाद हिन्द फौज की सेनाएं मलाया, थाईलैंड, बर्मा (म्यांमार) के सीमावर्ती क्षेत्रों को पार करती हुई भारत की सीमा तक पहुंच गईं। कर्नल रतूड़ी के नेतृत्व  में 4 फरवरी 1944 को अराकान युद्ध के मोर्चे पर अंग्रेजों से घमासान युद्ध करके वहां से अंग्रेजी सैनिकों को खदेड़कर 18 मार्च 1944 को विजय का झंडा फहराया तथा भारत  भूमि पर अपनी विजय का शंखनाद फूंका।
 
मणिपुर के मोरांग पर तिरंगा फहराने के बाद 8 अप्रैल 1944 को कोहिमा का किला फतह कर लिया गया तथा इंफाल पर चारों ओर से घेरा डाल दिया। परंतु इसके पश्चात मानसून  के भयंकर मौसम के हिसाब से तैयारी न होने के कारण आजाद हिन्द फौज, जो भारत की भूमि पर 150 मील अंदर तक पहुंच चुकी थी, आगे न बढ़ सकी।
 
उन्होंने घोषणा की कि अब भारत के पास सुनहरा मौका है और उसे अपनी मुक्ति के लिए अभियान तेज कर देना चाहिए। 8 सितंबर 1939 को युद्ध के प्रति पार्टी का रुख तय  करने के लिए सुभाष को विशेष आमंत्रित के रूप में कांग्रेस कार्यसमिति में बुलाया गया। उन्होंने अपनी राय के साथ यह संकल्प भी दोहराया कि अगर कांग्रेस यह काम नहीं कर  सकती है तो फॉरवर्ड ब्लॉक अपने दम पर ब्रिटिश राज के खिलाफ युद्ध शुरू कर देगा।
 
जुलाई 1940 में 'हालवेट स्तंभ', जो भारत की गुलामी का प्रतीक था, के इर्द-गिर्द सुभाष
की यूथ ब्रिगेड के स्वयंसेवक भारी मात्रा में एकत्र हुए और देखते ही देखते वह स्तंभ मिट्टी में मिला दिया गया। स्वयंसेवक उसकी नींव तक की एक-एक ईंट तक उखाड़ ले गए।  यह तो एक प्रतीकात्मक शुरुआत थी। इसके माध्यम से सुभाष ने यह संदेश दिया कि जैसे उन्होंने यह स्तंभ धूल में मिला दिया है, उसी तरह वे ब्रिटिश साम्राज्य की भी ईंट-से-ईंट  बजा देंगे। आजाद हिन्द फौज को छोड़कर विश्व इतिहास में ऐसा कोई भी दृष्टांत नहीं मिलता, जहां 30-35 हजार युद्धबंदियों ने संगठित होकर अपने देश की आजादी के लिए ऐसा  प्रबल संघर्ष छेड़ा हो।
 
आजाद हिन्द फौज के माध्यम से भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करने का नेताजी का प्रयास प्रत्यक्ष रूप में भले ही सफल नहीं हो सका हो किंतु उसका दूरगामी परिणाम  हुआ। सन् 1946 में रॉयल एयरफोर्स के विद्रोह के तुरंत बाद नौसेना का विद्रोह इसका उदाहरण है। नौसेना विद्रोह के बाद ही ब्रिटेन को विश्वास हो गया कि अब भारतीय सेना के  बल पर भारत में शासन नहीं किया जा सकता और भारत को स्वतंत्र करने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचा।
 
महात्मा गांधी और स्वयं के संबंधों पर सुभाषचन्द्र बोस ने लिखा है कि महात्मा गांधी और मेरे बीच हुई समझौता वार्ताओं से यह जाहिर हो गया कि एक तरफ गांधी धड़ा मेरे  नेतृत्व को कतई स्वीकार नहीं करेगा और दूसरी तरफ मैं कठपुतली अध्यक्ष बनने के लिए तैयार नहीं था, नतीजतन मेरे लिए अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के अलावा कोई विकल्प  ही नहीं बचा। मैंने 29 अप्रैल 1939 को इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस पार्टी के भीतर एक परिवर्तनकारी व प्रगतिशील समूह के गठन के लिए मैंने तुरंत कदम आगे बढ़ाए ताकि  समूचा वाम धड़ा एक बैनर के तले एकजुट हो सके।
 
26 जनवरी 1931 को कोलकाता में राष्ट्रध्वज फहराकर सुभाष एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे तभी पुलिस ने उन पर लाठी चलाई और उन्हें घायल कर जेल भेज दिया।  जब सुभाष जेल में थे, तब गांधीजी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया और सब कैदियों को रिहा करवा दिया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने सरदार भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को  रिहा करने से साफ इंकार कर दिया। भगत सिंह की फांसी माफ कराने के लिए गांधीजी ने सरकार से बात तो की, परंतु 'नरमी' के साथ।
 
सुभाष चाहते थे कि इस विषय पर गांधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड़ दें, लेकिन गांधीजी अपनी ओर से दिया गया वचन तोड़ने को राजी नहीं थे। अंग्रेज  सरकार अपने स्थान पर अड़ी रही और भगत सिंह व उनके साथियों को फांसी दे दी गई। भगत सिंह को न बचा पाने पर सुभाष गांधीजी और कांग्रेस के तरीकों से बहुत नाराज हो  गए।
 
नवंबर 1945 में दिल्ली के लाल किले में आजाद हिन्द फौज पर चलाए गए मुकदमे ने नेताजी के यश में वर्णनातीत वृद्धि की और वे लोकप्रियता के शिखर पर जा पहुंचे। अंग्रेजों  द्वारा किए गए विधिवत दुष्प्रचार तथा तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक दलों द्वारा सुभाष के विरोध के बावजूद सारे देश को झकझोर देने वाले उस मुकदमे के बाद माताएं अपने बेटों को  सुभाष का नाम देने में गर्व का अनुभव करने लगीं। घर-घर में राणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी महाराज के जोड़ पर नेताजी का चित्र भी दिखाई देने लगा।
 
जहां स्वतंत्रता से पूर्व विदेशी शासक नेताजी की सामर्थ्य से घबराते रहे, तो स्वतंत्रता के उपरांत देशी सत्ताधीश जनमानस पर उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व के अमिट प्रभाव से घबराते  रहे। स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने स्वतंत्रता के उपरांत देश के क्रांतिकारियों के एक सम्मेलन का आयोजन किया था और उसमें अध्यक्ष के आसन पर नेताजी के तैलचित्र को आसीन  किया था। यह एक क्रांतिवीर द्वारा दूसरे क्रांतिवीर को दी गई अभूतपूर्व सलामी थी। 
 
नेताजी ने युवा वर्ग को आजादी की लड़ाई से जोड़ने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। सिंगापुर के रेडियो प्रसारण द्वारा नेताजी के आह्वान, 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा' का  ही परिणाम ही रहा कि जिसने युवाओं को प्रेरणा दी। बोस का मानना था कि युवा शक्ति सिर्फ गांधीवादी विचारधारा पर चलकर स्वतंत्रता नहीं पा सकती, इसके लिए प्राणों का  बलिदान जरूरी है। यही वजह थी कि उन्होंने 1943 में 'आजाद हिन्द फौज' को एक सशक्त स्वतंत्र सेना के रूप में गठित किया और युवाओं को इससे प्रत्�

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