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गणतंत्र को गुणतंत्र बनाने की जवाबदेही

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- रघु ठाकुर

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संविधान निर्माण के समय, संविधान सभा की बहसों में कहा गया था कि मूलाधिकारों के प्रावधान ऐसे प्रावधान हैं, जो देश के नागरिक को जन्मता प्राप्त होंगे तथा राज्य को इन्हें उपलब्ध कराना व इनकी सुरक्षा भी करना बाध्यकारी होगा, अन्यथा किसी भी उल्लंघन की दशा में इन्हें न्यायपालिका के माध्यम से हासिल किया जा सकेगा। इन अधिकारों को संविधान में समाविष्ट करते समय तत्कालीन लोकतांत्रिक देशों में से अनेक देशों के संविधान को आधार बनाया गया था- यथा ब्रिटेन, अमेरिका आदि।

अनुच्छेद 14-15-19-20-21 में इन मूलाधिकारों के प्रावधान शामिल हैं तथा इन अधिकारों पर राज्य सत्ता या किसी भी अतिक्रमण से रक्षा का दायित्व न्यायपालिका का है। अभी हाल ही में, संविधान की 9वीं अनुसूची के प्रावधान की धारणा करते हुए भारत के सर्वोच्च न्यायालय की नौ सदस्यीय बेंच ने स्पष्ट रूप से कहा कि राज्य निर्मित केवल वे ही कानून नई अनुसूची में रखे जा सकते हैं तथा न्यायिक समीक्षा के परे हो सकते हैं, जो संविधान प्रदत्त उपरोक्त मूलाधिकारों का हनन न करते हों। अगर कोई भी कानून इन अधिकारों को प्रभावित करता है तो उसे न्यायपालिका, नौवीं अनुसूची में होने के बावजूद निरस्त कर सकती है।

दरअसल, 1975 में जब देश में आपातकाल लागू हुआ था तब भी यह प्रश्न देश के समक्ष उपस्थित हुआ था। तत्कालीन भारत सरकार ने आपातकाल की घोषणा कर मूलाधिकारों को निलंबित कर दिया था तथा आंतरिक सुरक्षा कानून आदि के नाम से बने कानूनों के अंतर्गत लाखों लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया था। तब भी इन कानूनों व इनके अंतर्गत की गई गिरफ्तारियों को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी। परन्तु तत्कालीन सर्वोच्च न्यायालय ने इस राजकीय अधिनायकवाद को, कानूनसंगत कहकर हस्तक्षेप करने से इंकार कर दिया था। शायद इसका एक कारण तत्कालीन केंद्रीय सत्ता की हठधर्मिता और भय भी था जिससे न्यायाधीश भी आतंकित थे।
  संविधान निर्माण के समय, संविधान सभा की बहसों में कहा गया था कि मूलाधिकारों के प्रावधान ऐसे प्रावधान हैं, जो देश के नागरिक को जन्मता प्राप्त होंगे तथा राज्य को इन्हें उपलब्ध कराना व इनकी सुरक्षा भी करना बाध्यकारी होगा।      


अपनी कलम से, किसी को जेल भेजना या रिहा करना आसान होता है, परन्तु अपनी कलम व विचार की आजादी के लिए स्वतः जेल के सींखचों के पीछे जाने का जोखिम उठाना आसान नहीं होता है।

संविधान निर्माण के समय, कुछ अधिकारों को बाध्यकारी मानकर मूलाधिकारों के खंड में रखा गया था, परन्तु कुछ अधिकारों को दिलाने का दायित्व शासन का माना तो गया था परन्तु उन्हें नीति-निर्देशक सिद्धांतों के रूप में एक पृथक खण्ड अध्याय 4 में रखा गया था। शायद इसलिए कि आजादी के तत्काल बाद देश की व्यवस्था इतनी समर्थ नहीं मानी गई थी, जो इन अधिकारों को सक्षमता से क्रियान्वित कर सके, इसलिए संविधान निर्माताओं ने कुछ महत्वपूर्ण अधिकारों को नीति-निर्देशक बताकर सरकार से अपेक्षा की थी कि सरकार इन कार्यों या अधिकारों को भी आगामी 10-15 वर्षों में नागरिकों को उपलब्ध कराएगी।

संविधान सभा की बहसों की गंभीर विवेचना की जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जिन मुद्दों को नीति-निर्देशक माना गया था वे भी एक कल्याणकारी लोकतांत्रिक मुल्क में, नागरिक के मूलाधिकार जैसे ही हैं, केवल सरकारों को उन्हें बाध्यकारी ढंग से लागू करने के लिए कुछ समय देने की इच्छा से इन्हें नीति निर्देश के रूप में रखा गया था। इस अपेक्षा के साथ कि सरकारें यथा शीघ्र इन नीति-निर्देशों में वर्णित मुद्दों को भी क्रियान्वित करेंगी।

मूलाधिकारों और मानवीय अधिकारों के संरक्षण के लिए वैसे तो राज्य जवाबदार हैं, परन्तु सर्वोच्च न्यायालय तथा मानव अधिकार आयोग विशेष तौर पर शक्तिसंपन्न माने जाते हैं। कभी-कभी इन संस्थाओं ने मूलाधिकारों व मानव अधिकारों के प्रश्नों को लेकर कुछ महत्वपूर्ण व ऐतिहासिक निर्णय दिए हैं। परन्तु देश में यह आम धारणा है कि इन संस्थाओं में संपन्न लोगों ‘एलीट क्ला’ व ‘सेलिब्रिटी’ को ज्यादा महत्व मिलता है, जो अपने आप में संविधान के मूलाधिकारों की व्यवस्था के खिलाफ है।

चूँकि नीति-निर्देशक सिद्धांत, नागरिक की बुनियादी जरूरतों जैसे शिक्षा, पानी, स्वास्थ्य या चिकित्सा, सफाई, प्रदूषण मुक्ति आदि को लेकर है, जो मानव अधिकार भी है तथा मूलभूत जरूरतें भी। अतः अपेक्षा यही थी कि आजादी के बाद व विशेषतः 26 जनवरी 50 को संविधान लागू होने के 15-20 वर्षों में, इन्हें मूलाधिकार का दर्जा दे दिया जाएगा। परन्तु इसके लिए प्रयास तो दूर की बात है, इन अधिकारों को उपलब्ध कराने के सरकार ने कोई विशेष प्रयास नहीं किए हैं। जो प्रयास किए भी गए हैं वे सर्वथा अनुपयुक्त व भ्रामक हैं। जैसे शिक्षा का अधिकार, संविधान में मूलाधिकार में शामिल किया गया है। परन्तु शिक्षा देने का दायित्य राज्य के बजाए अभिभावकों पर ज्यादा डाल दिया गया है। यहाँ तक कि जो अभिभावक शिक्षा की जरूरतों की पूर्ति नहीं कर सकेगा, वह दंड का भागीदार होगा। कुल मिलाकर गरीबी को भी दंडनीय अपराध बना दिया गया है।

कौन-सा अभिभावक ऐसा होगा जो सुविधाएँ होने के बाद भी अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दिलाना चाहेगा। होना तो यह चाहिए था कि सम्पूर्ण शिक्षा का दायित्व सरकार उठाती तथा उसमें किसी प्रकार की त्रुटि के लिए सरकार अपराधी मानी जाती, परन्तु हो उलटा रहा है। अभी हाल ही में दिल्ली सरकार ने फरमान जारी किया था कि जिसके घर में मलेरिया मच्छर (एडीस) पाया जाएगा वह पाँच सौ रुपए के दंड का भागीदार होगा। अब कौन गरीब अपने घर में मच्छर पालना चाहता है, पर वह क्या करे। राज्य सरकारों व स्थानीय संस्थाओं ने अपने सफाई, दवा छिड़काव आदि कार्यक्रमों को लगभग समाप्त ही कर दिया है।

शिक्षा के अधिकार के क्रियान्वयन के नाम पर सरकार ने सर्वशिक्षा अभियान तथा मध्याह्न भोजन का कार्यक्रम आरंभ किया है, जो सरकारी आँकड़े इस संबंध में जारी होते हैं, वे त्रुटिपूर्ण हैं, जिनका जमीन से कोई संबंध नहीं है। सर्वशिक्षा अभियान के नाम पर जो गुरुजी, शिक्षाकर्मी आदि ठेका शिक्षण की पद्धति आरंभ की गई है, उसमें खानापूर्ति तो हो रही है, परन्तु शिक्षा का वास्तविक फैलाव नहीं हो पा रहा है

राज्य के दायित्
लोकतंत्र एक राजनीतिक प्रणाली है, जो निर्वाचन द्वारा प्राप्‍त होती है। परन्तु हमारा लोकतंत्र लूट तंत्र बन गया है जिसमें मत, मन व धन सभी की लूट है। संविधान में हमने गणतंत्र शब्द को अंगीकार किया है। गणतंत्र में अकेले मतदाता ही नहीं, वरन जागरूक मतदाता होना चाहिए। गणतंत्र तभी सफल हो सकता है, जब वह गुणतंत्र हो यानी मतदाता गुणवान हो।

(लेखक समाजवादी चिंतक है।)

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