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(वरुथिनी एकादशी)
  • तिथि- वैशाख कृष्ण एकादशी
  • शुभ समय- 7:30 से 10:45, 12:20 से 2:00
  • व्रत/मुहूर्त- वरुथिनी एकादशी, नर्मदा पंचकोशी यात्रा, प्रभु वल्लभाचार्य ज.
  • राहुकाल-प्रात: 10:30 से 12:00 बजे तक
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Vallabhacharya Jayanti 2024: श्री वल्लभाचार्य जयंती कब है, श्री कृष्ण का श्रीनाथजी स्वरूप क्या है?

हमें फॉलो करें Shri Vallabhacharya Jayanti

WD Feature Desk

, शुक्रवार, 3 मई 2024 (16:19 IST)
Shri Vallabhacharya Jayanti
Shri Vallabhacharya Jayanti: कृष्ण भक्त और पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक वल्लाभाचार्य की जयंती वैशाख कृष्ण एकादशी के दिन मनाई जाती है। वैशाख कृष्ण एकादशी को वरूथिनी एकादशी भी कहा जाता है। इस बार 4 मई को उनकी जयंती मनाई जाएगी। वे श्री कृष्ण के अनन्नय भक्त थे और श्री कृष्ण के श्रीनाथजी विग्रह की पूजा करते थे। 
कौन थे वल्लभाचार्य : सोमयाजी कुल के तैलंग ब्राह्मण लक्ष्मण भट्ट के यहां जन्मे वल्लभाचार्य का अधिकांश समय काशी, प्रयाग और वृंदावन में ही बीता। उनकी माता का नाम इलम्मागारू था। उनकी पत्नी का नाम महालक्ष्मी था। उनके दो पुत्र थे गोपीनाथ और विट्ठलनाथ। जब इनके माता-पिता मुस्लिम आक्रमण के भय से दक्षिण भारत जा रहे थे तब रास्ते में छत्तीसगढ़ के रायपुर नगर के पास चंपारण्य में 1478 में वल्लभाचार्य का जन्म हुआ। बाद में काशी में ही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई और वहीं उन्होंने अपने मत का उपदेश भी दिया। ऐसा माना जाता है कि वल्लभाचार्य के 84 (चौरासी) शिष्य थे जिनमें प्रमुख हैं सूरदास, कृष्णदास, कुंभनदास और परमानंद दास। 52 वर्ष की आयु में उन्होंने सन 1530 में काशी में हनुमानघाट पर गंगा में प्रविष्ट होकर जल-समाधि ले ली।
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श्री कृष्ण का श्रीनाथजी स्वरूप क्या है?
पुष्टि मार्ग में भगवान कृष्ण के उस स्वरूप की आराधना की जाती है जिसमें उन्होंने बाएँ हाथ से गोवर्धन पर्वत उठा रखा है और उनका दायाँ हाथ कमर पर है। श्रीनाथ जी का बायाँ हाथ 1410 में गोवर्धन पर्वत पर प्रकट हुआ। उनका मुख तब प्रकट हुआ जब श्री वल्लभाचार्यजी का जन्म 1479 में हुआ। अर्थात्‌ कमल के समान मुख का प्राकट्य हुआ। 1493 में श्रीवल्लभाचार्य को अर्धरात्रि में भगवान श्रीनाथ जी के दर्शन हुए।
 
श्रीगोवर्धनीचरण धीर प्रभु श्रीनाथजी वल्लभ और वल्लभियों के सर्वस्व हैं। राजस्थान के मेवाड़ में श्रीनाथद्वारा में प्रभु विराजित हैं। नाथद्वारा तीर्थ वैष्णवों और संपूर्ण धर्मावलंबियों के लिए पूर्ण रुप से खुला हुआ है। साधू पांडे जो गोवर्धन पर्वत की तलहटी में रहते थे उनकी एक गाय थी। एक दिन गाय ने श्रीनाथ जी को दूध चढ़ाया। शाम को दुहने पर दूध न मिला तो दूसरे दिन साधू पांडे गाय के पीछे गया और पर्वत पर श्रीनाथजी के दर्शन पाकर धन्य हो गया।
दूसरी सुबह सब लोग पर्वत पर गए तो देखा कि वहाँ दैवीय बालक भाग रहा था। वल्लभाचार्य को उन्होंने आदेश दिया कि मुझे एक स्थल पर विराजित कर नित्य प्रति मेरी सेवा करो। तभी से श्रीनाथ जी की सेवा मानव दिनचर्या के अनुरूप की जाती है। इसलिए इनके मंगला, श्रृंगार, ग्वाल, राजभोग, उत्थापन, आरती, भोग, शयन के दर्शन होते हैं।

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