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मकर संक्रांति का पौराणिक महत्व

- पंडित आर. के. राय

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तुंगस्थे तु चन्द्रेक्षितो भार्गवेण स्वगृहे गुरौ।
मन्देक्षितः सुरेज्यो पौषे रवि मकरेऽतिदुर्लभम्‌।

अर्थात् पौष के महीने में जब चन्द्रमा अपने उच्च वृषभ राशि शुक्र द्वारा देखा जाता हो, गुरु अपने घर में शनि द्वारा देखा जाता हो तथा इसी मध्य सूर्य मकर राशि में प्रवेश करे तो यह योग अति दुर्लभ होता है। ध्यान रहे, शनि व दैत्यों के गुरु शुक्र चन्द्रमा को देखते हों तथा देवताओं के गुरु बृहस्पति को स्वयं शनि देखते हो।

ग्रहों के अधिपति सूर्य अपनी समस्त आभा एवं किरणों को विश्राम प्रायः देते हुए अपने पुत्र ग्रह के भवन मकर राशि में चले जाते हों। उस समय की विभीषिका में धैर्यपूर्वक किया गया थोड़ा भी पुण्य कार्य अमोघ फल देने वाला होगा।

इस वर्ष सन् 2011 में 14 जनवरी को आधी रात के बाद अर्थात् अंग्रेजी मान से 15 जनवरी को मानक समयानुसार 00.31 बजे सूर्य देव मकर राशि में प्रवेश कर रहे हैं। गुरु मीन राशिगत होकर कन्या राशि में स्थित शनि द्वारा देखे जा रहे हैं।

चन्द्रमा अंग्रेजी मान से 15 जनवरी को मानक समयानुसार 04.42 बजे अपनी उच्च राशि वृषभ राशि में प्रवेश करते ही वृषभ राशि के स्वामी शुक्र द्वारा देखे जाने लगते हैं। इस प्रकार मकर संक्रांति का पुण्यकाल 15 जनवरी दिन शनिवार को प्रारम्भ होकर 16 जनवरी को दोपहर बाद 4 बजकर 31 मिनट तक होगा।

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प्रायः माघ महीने में ही मकर संक्रांति होती है। सब देवी-देवता इस परम पुण्यकाल में प्रयाग की पुण्य भूमि पर उतर आते हैं और माघ महीने के अन्त तक तप, जप, पूजा, पाठ एवं दान आदि करते हैं।

माघ मकरगत रवि जब होई। तीरथ पतिहिं आव सब कोई। (रामचरित मानस)

इसके पीछे एक अन्तर्कथा कही जाती है। कहा जाता है कि भगवान सूर्य अपने पुत्र शनि का लगातार अपमान देख कर दुःखी हो गए। सब देवी-देवता शनि देव से घृणा करते थे। उन्हें देवताओं के बीच स्थान प्राप्त नहीं था तथा शनि के रूप-रंग एवं क्रियाकलाप के कारण सब लोग भगवान सूर्य का उपहास यह कहा करते थे कि यह सूर्यदेव का पुत्र है। इससे भगवान सूर्य कुपित होकर अपनी किरणों को समेट कर अपने पुत्र शनि के घर मकर राशि में चले गए।

सूर्य के शीतल होते ही दानव उग्र हो गए। उन्होंने अपनी समस्त सेना के साथ देव लोक पर आक्रमण कर दिया। रोग, व्याधि, पाप, अत्याचार, माया, ठगी, दुर्बुद्धि एवं वासना आदि के साथ दैत्यों ने देव लोक तथा भूलोक पर भयंकर आक्रमण कर दिया।

जब देवी-देवताओं को कहीं शरण नहीं मिला तो वे भागे हुए भगवान सूर्य देव की पुत्री यमुना के तट पर आए। किन्तु उस पवित्र जल में अपना पाप धोने का साहस नहीं कर सके। अन्यथा सूर्य देव और ज्यादा नाराज हो सकते थे। अतः सब मिलकर परम शक्तिशाली एवं अमोघवर प्राप्त परम प्रतापी अक्षयवट के पास त्रिधा शक्तियों से युक्त तीन परम पावन नदियों - गंगा, यमुना एवं सरस्वती के संगम स्थल पर पहुँचे।

दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य ने पहले ही दानवों को सचेत कर दिया था कि जो औषधि विद्या मैंने भगवान शिव से प्राप्त की है। वह समस्त औषधियाँ गंगा में भी निहित हैं, क्योंकि वह भी शिव की जटा से ही निकल कर बहती है। अतः गंगा के पास नहीं जाना। लगातार गंगा की औषधियों से पोषण प्राप्त कर उसके तट पर स्थित वटवृक्ष भी परम शक्तिशाली हो चुका है। अतः उस वृक्ष को भी नुकसान नहीं पहुँचाना। क्योंकि जो भी उसे नुकसान पहुँचाएगा वह नष्ट हो जाएगा।

अतः दानव एवं उसकी सेना संगम की तपोभूमि के पास नहीं आई। इसीलिए उसे सुरक्षित स्थल जानकर ब्रह्माजी ने यहाँ पर बहुत बड़ा यज्ञ किया।

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