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भारत के उत्थान में बेटियों का योगदान

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सुशील कुमार शर्मा

राष्ट्र तभी सशक्त बन सकता है, जब उसका हर नागरिक सशक्त हो। इसमें भी महिलाओं की भूमिका ही सबसे आगे है। परिवार में एक मां के रूप में वह अपनी यह भूमिका अदा करती है। राष्ट्र निर्माण में उसके इस योगदान का लंबा इतिहास रहा है। विद्वानों का मानना है कि प्राचीन भारत में महिलाओं को जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा हासिल था। 
 
पतंजलि और कात्यायन जैसे प्राचीन भारतीय व्याकरणविदों का कहना है कि प्रारंभिक वैदिक काल में महिलाओं को शिक्षा दी जाती थी। ऋग्वेदिक ऋचाएं ये बताती हैं कि महिलाओं की शादी एक परिपक्व उम्र में होती थी और संभवत: उन्हें अपना पति चुनने की भी आजादी थी। ऋग्वेद और उपनिषद जैसे ग्रंथ कई महिला साध्वियों और संतों के बारे में बताते हैं जिनमें गार्गी और मैत्रेयी के नाम उल्लेखनीय हैं। 
 
समाज में भारतीय महिलाओं की स्थिति में मध्ययुगीन काल के दौरान और अधिक गिरावट आई, जब भारत के कुछ समुदायों में सती प्रथा, बाल विवाह और विधवा पुनर्विवाह पर रोक सामाजिक जिंदगी का एक हिस्सा बन गई थी। स्वतंत्रता के बाद से ही महिलाओं का विकास हमारी आयोजना का केंद्रीय विषय रहा है, परंतु पिछले 20 वर्षों में कई नीतिगत बदलाव आए हैं।
 
1970 के दशक में जहां कल्याण की अवधारणा अपनाई गई, वहीं 1980 के दशक में विकास पर जोर दिया गया। 1990 के दशक में महिला अधिकारिता यानी सशक्तीकरण पर जोर देने के साथ ही यह प्रयास भी किया गया कि महिलाएं निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल हों और नीति निर्माण के स्तर पर भी उनकी सहभागिता रहे। 
 
भारत सरकार ने देश में महिलाओं की स्थिति सुधारने का लक्ष्य हासिल करने के लिए वर्ष 2001 में महिला सशक्तीकरण हेतु राष्ट्रीय नीति जारी की। राष्ट्रीय महिला सशक्तीकरण नीति को केंद्र सरकार ने 21 मार्च 2001 को मंजूरी प्रदान की थी। इसके महत्वपूर्ण बिंदु निम्नलिखित हैं-
 
1. महिलाओं को देश के सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक जीवन में बराबर की भागीदार बनाना। 
2. मानव अधिकारों का उपयोग करना और पुरुषों के साथ सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और नागरिक आदि क्षेत्रों में आधारभूत, स्वतंत्रता की समान रूप से भागीदारी सुनिश्चित करना। 
3. महिलाओं के प्रति किसी भी तरह के भेदभाव को दूर करने के लिए कानूनी प्रणाली एवं सामुदायिक प्रक्रिया विकसित करना। 
4. महिलाओं के लिए ऐसा वातावरण तैयार करना कि वे यह महसूस कर सकें कि वे आर्थिक एवं सामाजिक नीतियां बनाने में शामिल हों। 
5. समाज में महिलाओं के प्रति व्यवहार में बदलाव लाने के लिए महिलाओं और पुरुषों को समाज में बराबर भागीदारी निभाने को बढ़ावा देना।
6. महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार एवं सामाजिक सुरक्षा में सहभागिता सुनिश्चित करना। 
7. महिला और बालिका अपराध के किसी भी रूप में व्याप्त असमानता को दूर करना।
 
हमारे देश के विकास में महिलाओं को सहभागी बनाने के लिए विशेष प्रयास किए गए हैं। भारतीय संविधान द्वारा कानूनों के माध्यम से महिलाओं की सुरक्षा और सामान्य जीवन में उनकी समान भागीदारी के लिए विशेष प्रावधान किए गए हैं। महिला साक्षरता दर भी 2011 के आंकड़ों के अनुसार लगभग 65 प्रतिशत बढ़ी है और वे देश में शीर्ष पदों पर कार्य कर रही हैं। 
 
राष्‍ट्र के समग्र विकास तथा उसके निर्माण में महिलाओं का लेखा-जोखा और उनके योगदान का दायरा असीमित है तथापि देश के चहुंमुखी विकास तथा समाज में अपनी भागीदारी को उसने सशक्त ढंग से पूरा किया है। अपने अस्तित्व की स्वतंत्रता कायम रखते हुए वे पुरुषों से भी 4 कदम आगे निकल गई हैं। 73वें संवैधानिक संशोधन के बाद छत्तीसगढ़ सहित देश के कई राज्यों में पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया गया है जिससे आज कई महिलाएं ऊर्जावान नेतृत्व से अपने स्थानीय परिवेश में परिवर्तन ला रही हैं। 
 
जहां एक ओर भारतीय महिलाएं विधि, अकादमिक, साहित्य, संगीत, नृत्य, खेल, मीडिया, उद्योग, आईटी सहित विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रही हैं, वहीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस में एक विषय था, 'समावेशी नवोन्मेष के लिए विज्ञान और तकनीक में स्त्रियों की भूमिका।' महिला वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से यह एक उत्तम विचार था। अब यह विचार और आगे बढ़ सकता है, क्योंकि प्रक्षेपास्त्र अग्नि-5 के सफल परीक्षण के बाद महिला वैज्ञानिक टेसी थॉमस की मुख्य भूमिका उभरकर सामने आई है। मिसाइलमैन डॉ. अब्दुल कलाम की प्रमुख शिष्या रहीं डॉ. थॉमस को भी इस परीक्षण के बाद 'मिसाइल वुमन' अथवा 'अग्नि-पुत्री' नामों से संबोधित किया जाने लगा है। मिसाइल कार्यक्रम का संपूर्ण नेतृत्व संभालने वाली वे देश की पहली महिला वैज्ञानिक बन गई हैं।
 
राजनीतिक और सामाजिक सुधारों के क्षेत्र में महिलाओं ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। विजयलक्ष्मी पंडित ने 1946, 1947, 1950 और 1963 में संयुक्त राष्‍ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया। 1953-54 में वे संयुक्त राष्‍ट्र महासभा की सदस्य भी रहीं। 1962-64 में महाराष्‍ट्र की राज्यपाल और 1964-66 तक लोकसभा की सदस्य रहीं। कुल्सुम जे. सायानी ने 1957 में यूनेस्को के तत्वावधान में हुए प्रौढ़ शिक्षा सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किया। उन्हें 1959 में समाजसेवा के लिए पद्‍मश्री तथा 1969 में नेहरू साक्षरता पुरस्कार से सम्‍मानित किया गया। जैनब बेगम 1972 में विधानसभा की सदस्य निर्वाचित हुईं तथा कई वर्षों तक वे जिला कांग्रेस कमेटी श्रीनगर की अध्यक्ष रहीं। उन्होंने पिछड़ी हुई जातियों के लिए 27 वर्ष तक निरंतर कार्य किया।
 
वर्तमान में भी महिलाएं दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में महापौर, मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, राज्यमंत्री और सांसदों के पद पर आसीन हो देश की प्रगति के लिए कार्यशील हैं। देश के विभिन्न राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतों में भी महिलाएं विभिन्न पदों पर आसीन हैं।
 
महिलाओं की स्थिति में लगातार परिवर्तन को देश में महिलाओं द्वारा हासिल उपलब्धियों के माध्यम से उजागर किया जा सकता है-
 
1. प्रथम भारतीय महिला क्रिकेट टीम कप्तान- शांता रंगास्वामी (कर्नाटक)
2. भारत की प्रथम महिला शासक- रजिया सुल्तान (1236)
3. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रथम महिला अध्यक्ष- एनी बेसेंट (1917)
4. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रथम भारतीय महिला अध्यक्ष- सरोजिनी नायडू
5. प्रथम क्रांतिकारी महिला- मैडम कामा
6. देश के किसी राज्य विधायिकी की प्रथम महिला विधायिका- डॉ. एस. मुत्तुलक्ष्मी रेड्डी (मद्रास विधान परिषद, 1926)
7. भारत के किसी राज्य की विधानसभा की प्रथम महिला अध्यक्ष- श्रीमती शन्नोदेवी
8. देश के किसी राज्य के मंत्रिमंडल में प्रथम महिला मंत्री- विजयलक्ष्मी पंडित (संयुक्त प्रांत, 1937)
9. देश के किसी राज्य की प्रथम महिला मुख्यमंत्री- सुचेता कृपलानी (उत्तरप्रदेश, 1963)
10. देश के किसी राज्य की प्रथम महिला राज्यपाल- सरोजिनी नायडू (उत्तरप्रदेश)
11. देश के किसी राज्य की प्रथम दलित मुख्यमंत्री- मायावती (उत्तरप्रदेश)
12. भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री- इंदिरा गांधी (1966)
13. केंद्रीय व्यवस्थापिका की प्रथम महिला सांसद- राधाबाई सुबारायन (1938)
14. राज्यसभा की प्रथम महिला उपसभापति- बायलेट अल्बा (1962)
15. राज्यसभा की प्रथम महिला सचिव- बीएस रमादेवी (1993)
16. देश के किसी राज्य की मुख्यमंत्री बनने वाली प्रथम महिला अभिनेत्री- जानकी रामचन्द्रन (तमिलनाडु, 1987)
17. देश के किसी शहर की प्रथम महिला मेयर- तारा चेरियन (मद्रास, 1957)
18. देश की प्रथम महिला राजदूत- विजयलक्ष्मी पंडित (सोवियत रूस, 1947)
19. देश की प्रथम महिला न्यायिक अधिकारी (मुंसिफ)- अन्ना चांडी (भूपू ट्रावनकोर राज्य, 1937)
20. संयुक्त राष्ट्र के महासभा की प्रथम महिला अध्यक्ष- विजयलक्ष्मी पंडित (1953)
21. देश की प्रथम महिला अधिवक्ता- रेगिना गुहा
22. देश की प्रथम महिला बैरिस्टर- कोर्नोलिया सोराबजी (इलाहाबाद उच्च न्यायालय, 1923)
23. उच्च न्यायालय की प्रथम महिला न्यायाधीश- न्यायमूर्ति अन्ना चांडी (केरल उच्च न्यायालय, 1959)
24. देश के किसी राज्य की प्रथम महिला मुख्य सचिव- पद्मा
25. उच्च न्यायालय की प्रथम महिला मुख्य न्यायाधीश- न्यायमूर्ति लीला सेठ (हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय, 1991)
26. सर्वोच्च न्यायालय की प्रथम महिला न्यायाधीश- न्यायमूर्ति मीरा साहिब फातिमा बीबी (1989)
27. आयकर न्यायाधिकरण की प्रथम महिला सदस्य- न्यायमूर्ति मीरा साहिब फातिमा बीबी
28. देश की प्रथम महिला सत्र न्यायाधीश- अन्ना चांडी (केरल, 1949)
29. उच्च न्यायालय बार एसोसिएशन की सचिव- प्रिया हिमोरानी
30. प्रथम महिला मजिस्ट्रेट- ओमना कुंजम्मा
31. संघीय लोक सेवा आयोग की प्रथम महिला अध्यक्ष- रोज मिलियन बैथ्यू (1992)
32. वेनिस फिल्मोत्सव में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का गोल्डन लॉयन पुरस्कार पाने वाली प्रथम भारतीय महिला- मीरा नायर फिल्म- मानसून वैडिंग (2001)
33. सेना मेडल प्राप्त करने वाली प्रथम महिला- विमला देवी (1988)
34. योजना आयोग की प्रथम महिला अध्यक्ष- इंदिरा गांधी
35. देश की प्रथम महिला सर्जन- डॉ. प्रेमा मुखर्जी
36. अशोक चक्र (वर्तमान के शौर्य चक्र) प्राप्त करने वाली प्रथम महिला- ग्लोरिया बेरी (मरणोपरांत)
37. किसी विश्वविद्यालय के छात्रसंघ की प्रथम महिला अध्यक्ष- अंजू सचदेव (दिल्ली विश्वविद्यालय)
38. अशोक चक्र से सम्मानित प्रथम महिला- नीरजा मिश्र (मरणोपरांत)
39. नोबेल पुरस्कार विजेता प्रथम महिला- मदर टेरेरसा (1978)
40. भारतरत्न से सम्मानित होने वाली प्रथम महिला- इंदिरा गांधी (1971)
41. ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाली प्रथम महिला- आशापूर्णा देवी (1976)
42. साहित्य अकादमी सम्मान पाने वाली प्रथम महिला- अमृता प्रीतम (1956)
43. मूर्तिदेवी पुरस्कार से सम्मानित प्रथम महिला- प्रतिभा राय
44. अर्जुन पुरस्कार से विभूषित प्रथम महिला- एन. लम्सडेन (हॉकी, 1961)
45. लेनिन शांति पुरस्कार से सम्मानित प्रथम महिला- देविका रानी रोरिक (1969)
46. ऑस्कर पुरस्कार प्राप्त करने वाली प्रथम भारतीय व प्रथम महिला- भानु अथैवा (वेशभूषा सज्जा हेतु, फिल्म गांधी, 1983)
47. मैगसेसे पुरस्कार पाने वाली प्रथम सम्मानित महिला- डॉ. अमृता पटेल (1992)
48. अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने वाली प्रथम अभिनेत्री- नरगिस दत्त (कार्लोबी बेरी फिल्मोत्सव का सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार फिल्म मदर इंडिया, 1958)
49. बर्लिन फिल्मोत्सव में पुरस्कार पाने वाली प्रथम महिला- मधुर जाफरी
50. सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री की राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त करने वाली प्रथम अभिनेत्री- नरगिस दत्त (फिल्म रात और दिन, 1968)
 
नारीवादी आंदोलनों और सरकारी प्रयासों में महिलाओं के लिए सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक आजादी की पैरवी की जाती है। यह संपूर्ण सशक्तीकरण की अवधारणा के लिए सर्वथा उचित भी है, लेकिन पानी के लिए संघर्ष में महिलाओं की भूमिका को अब तक समझा नहीं गया है। 
 
प्रखर नारी आंदोलनों ने अब तक वैवाहिक जीवन में स्त्री के अधिकार, महिला शिक्षा, राजनीति में भूमिका, आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता जैसे विभिन्न बुनियादी पहलुओं पर जनमानस को बदलने का काम किया है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना, मूल अधिकार, मूल कर्तव्य और राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों में लिंग समानता का सिद्धांत अंतरनिहित है। 
 
महिलाओं के प्रति हमारा दृष्टिकोण कुछ मनावैज्ञानिक भ्रम का शिकार है। पुरुषत्व की श्रेष्ठता का भान होना भी उसी का एक रूप है। लेकिन अगर पिछली 3-4 पीढ़ियों का लेखा-जोखा देखें तो इस सोच में बदलाव भी आए हैं। हमें अपनी सोच का दायरा बढ़ाते हुए महिलाओं के असल मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना होगा, जो हमारे अवचेतन में भी शामिल कर दिए गए हैं। ये सभी मुद्दे सांस्कृतिक और सामाजिक हैं जिन पर नए सिरे से मंथन किया जाना चाहिए। चाहे वे तथाकथित मर्दानगी और पुरुषत्व से जुड़े हुए मुद्दे ही क्यों न हों? 
 
आज महिलाओं के मुद्दों और सरोकारों पर कहीं अधिक संवेदनशील होने और परिपक्वता दिखाने की आवश्यकता है। बालिका के जन्म से लेकर उसके युवा होने और युवा से बुजुर्ग होने तक उन्हें हर वाजिब हक की पैरवी हमें करना होगी। इस साक्षर और शिक्षित भारत में कन्या भ्रूणहत्या और भेदभाव इस पतन की जिंदा मिसाल हैं। यदि हर माता-पिता लड़की और लड़के का भेद अपने मन से हटा दें तो आंकड़ों का यह भेद स्वत: ही मिट जाएगा। 
 
आज की स्थितियों से यह स्पष्ट है कि इस तरह की समस्या कानूनी कम और सामाजिक ज्यादा है। इस सामाजिक मानसिकता को बदलने का जिम्मा देश की वर्तमान युवा पीढ़ी को ही उठाना होगा, जो कथित रूप से साक्षर तो है, पर इन सब बातों से जिसके शिक्षित होने पर प्रश्नचिन्ह लगा है। 

वंदे मातरम
 
 

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